पढ़ाई की, नौकरी की और फिर एक दिन सब छोड़ छाड़ कर दिल्ली के वरुण मित्रा ऐक्टर बनने मुंबई आ जाते हैं। कहानी फिल्मी है लेकिन सच है। ‘जलेबी’ फिल्म के ऐक्टर वरुण मित्रा कई वेब सीरीज में भी नजर आ चुके हैं। हाल ही में वह दिल्ली आए और अपनी फिल्म ‘रक्षक’, करियर और दिल्ली के बारे में खुलकर बात की।हमने आपकी फिल्म ‘जलेबी’ देखी है। वो काफी अच्छी फिल्म थी। फिल्म में आपका किरदार भी दिल्ली वाले का था। उस दौर को आप कैसे याद करते हो?वो मेरा एक स्पेशल टाइम था, जब मैंने भट्ट साहब के साथ एक साल बिताया था, उसमें बहुत मजा आया था। उनसे जिंदगी की जैसी बातें होती थीं वो कमाल की थीं। वो खुल कर बात करते हैं। दरअसल, मुकेश जी और भट्ट जी के साथ मेरी मुलाकात बहुत फिल्मी थी। जब मैं उनके ऑफिस गया तो उन्होंने थोड़ा बहुत मेरा काम देखा। उनको वो बहुत पसंद आया। भट्ट साहब ने मेरा हाथ पकड़ लिया। वो ऐसे ही हैं, हाथ-वात पकड़ लेते हैं और वो आपकी आंखों में देखने लगते हैं, जैसे वो आपकी आंखों में झांक रहे हों कि क्या है इसके अंदर। बस उसके बाद, उनको मैं समझ आ गया और उन्होंने मुझे फिल्म का ऑफर दिया। जलेबी मेरे लिए एक भावनात्मक अनुभव था। भट्ट साहब के साथ इमोशन के बिना काम होता ही नहीं है। मेरी वो पहली फिल्म थी तो मुझे काफी कुछ सीखने को भी मिला। मैं उसकी रिलीज को लेकर भी नर्वस था। जब फिल्म थिएटर पर आई तो बहुत अच्छा वह नहीं कर पाई, तब ऐसा लगता था कि पैकअप करके वापस चलो दिल्ली। लेकिन ओटीटी पर जलेबी को लोगों ने बहुत पसंद किया। गाने भी लोगों को अच्छे लगे। तो फिर मजा आया।आप दिल्ली से हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही आपने पढ़ाई की है। डीयू में आजकल एडमिशन प्रोसेस चल रहा है। कॉलेज के दिनों का कोई खास किस्सा जो आपको याद हो, बताएं। दिल्ली आने के बाद कौन सी चीजें आप करना पसंद करते हैं?दिल्ली आने के बाद मैं सबसे पहले परिवार से तो मिलता ही हूं। अपने स्कूल के दोस्तों और मेरी एक फ्रेंड चांदनी है, उनके घर पर मुलाकात होती है। आने के एक-दो दिन पहले ही सबको बता देता हूं। हमारी कॉलोनी में एक रेस्तरां है कर्ल कबाब तो वहां खाते हुए मैं बड़ा हुआ हूं। एक मील उसका जरूर खाता हूं। बंगाली मार्केट में चाट खाने भी जाता हूं। (हंसते) दिल्ली यूनिवर्सिटी की यादें बतानी चाहिए कि नहीं पता नहीं। जब मैं डीयू में था तो अटेंडेंस को लेकर उतना डिसिप्लिन नहीं होता था, जितनी सख्ती आज होती है। मैंने शायद ही कोई क्लास अटेंड की होगी। कॉलेज के बाहर ही बैठे रहते थे और वहां छोले-भटूरे खाते थे। टाइम पास करते थे। मैं आखिर में पढ़ाई करता था। मैं हमेशा से ऐसा ही था। दो-तीन महीने में ही मैं पूरी पढ़ाई कर लेता था, लेकिन क्लास तो बहुत ही मुश्किल ही मैंने अटेंड की होंगी।आपकी ऐक्टिंग में आने की कहानी भी काफी फिल्मी है। आमतौर पर लोगों को लगता है कि घर में ऐक्टिंग में करियर बनाने की बात करेंगे तो चार बातें सुनने को मिलेंगी। आप अपनी जर्नी के बारे में बताएं।(हंसते हुए) हमें भी चार बातें सुननी पड़ी हैं, लेकिन पता नहीं कैसे मैंने किसी बात को नहीं सुना। मेरे पिता ने भी इस बारे में बाेला था, क्योंकि मेरी एक अच्छी जॉब और सैलरी थी, तो सब लोगों को लगता था कि ये क्यों बेवकूफी कर रहा है, कहां हीरो बनने जाएगा। लेकिन ईमानदारी से कहूं तो अगर मुझे पता होता कि यहां पर कितनी प्रतियोगिता है और यहां कितने लोग लाइन में हैं, तो पता नहीं मैं ये कर पाता की नहीं। फिर मुंबई पहुंचा और कुछ समय बिताया। फिर एक एजेंसी ने मुझे साइन कर लिया। थोड़ा काम मिलना शुरू हो गया तो मैं घर गया, अपनी जॉब छोड़ी और फिर मुंबई में बस गया। फिर वो ही बात हो गई कि आ गए हैं तो कुछ करेंगे ही। करियर की शुरुआत में ही मुझे विज्ञापन मिलने लगे, ट्रैवल शोज मिले, जिससे मुझे कैमरे के सामने समय बिताने का मौका मिला और उससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा।आपने अब तक जितने किरदार किए हैं वो काल्पनिक रहे हैं, लेकिन ‘रक्षक’ में आपने पहली बार आप एक रियल किरदार को निभा रहे हैं और ये घटना भी काफी बड़ी थी। इस रोल को करने के लिए क्या चुनौतियां आपने फेस कीं?मैं कोशिश करता हूं कि मेरे सारे किरदार रियल जैसे ही रहें। मुझे अच्छा लगता है कि कोई ऐसा किरदार हो जो सामान्य इंसान की तरह लगे। लेकिन हां, ये पहली बार था कि ये किरदार एक दम रियल था। गिल्टी माइंड और बाकी मेरे प्रोजेक्ट्स में फिक्शन रोल रहे हैं। रियल किरदार को अदा करने में एक जिम्मेदारी आप पर आ जाती है। हम त्रिवेणी सिंह के परिवार से भी मिले थे। तो ये और बड़ी जिम्मेदारी हो जाती है क्योंकि उस व्यक्ति को फैमिली भी उसे देखने वाली होती है। इसलिए किरदार को वैसा प्ले करना जैसा उनके परिवार और दोस्तों ने बताया था वो भी बड़ी चुनौती था। मुझमें जो काबिलियत है, उसके हिसाब से मैंने पूरी मेहनत और ईमानदारी से रोल को करने की कोशिश की है।’रक्षक’ में आपका किरदार किस तरह का है और ये फिल्म आपको कैसे मिली?’रक्षक’ में मेरा किरदार एक आर्मी ऑफिसर का है, जिनका नाम लेफ्टिनेंट त्रिवेणी सिंह है। वो पठानकोट से है। साल 2004 में जम्मू में एक घटना हुई थी, जहां रेलवे स्टेशन पर एक आतंकी घटना हुई थी और वहां उन्होंने 300 लोगों की जान बचाई थी। मैं फिल्म के प्रड्यूसर समर कांत से मिला था, उन्होंने ही मुझे सबसे पहले इस फिल्म के बारे में बताया था। फिर मैंने त्रिवेणी सर के बारे में ऑनलाइन जानकारी जुटाई। उनके बारे में जानने के बाद मुझे लगा ये तो करना ही पड़ेगा। मेरे दादा जी भी आर्मी में थे, तो आर्मी से मेरा पहले से ही जुड़ाव रहा है।दिल्ली और पूरे देश में बहुत से लोग हैं जो ऐक्टिंग में कदम रखना चाहते हैं तो आप क्या कहेंगे कि उन्हें किन चीजों का ध्यान रखना चाहिए?(हंसते हुए) ध्यान नहीं रखना चाहिए, वो ही सफलता की सबसे बड़ी अहम चीज है। आपका दिल जो कहे वो ही करें। हालांकि हर कोई भाग्यशाली नहीं होता। हर किसी की आर्थिक स्थिति उतनी बेहतर नहीं होती, तो वो लोग नहीं कर पाते, लेकिन अगर आप सच में कुछ करना चाहते हैं तो पूरी मेहनत और लगन के साथ करो तो वो चीज कुछ ना कुछ आपको दे ही देती है। कम से कम कोशिश करना तो बनता ही है।