डॉक्टर सीमा जावेद, नई दिल्ली। धरती पर मंडरा रहे जलवायु परिवर्तन के संकट को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र का 28 वां जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन आगामी 30 नवंबर से 12 दिसंबर तक संयुक्त अरब अमीरात में होने जा रहा है। इसमें दुनिया के 192 देशों के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे। इसकी सफलता के लिए यह जरूरी है कि यह दुनिया को साल 2030 तक 43% उत्सर्जन में कटौती के तरफ ले जाए ताकि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5°C तक सीमित किया जा सके। साथ ही उसको इस दिशा में एक सुदृढ़ रोडमैप पर चलने के लिए प्रेरित करे ताकि हम एक क्लाइमेट रेसिलिएंट दुनिया बना सकें जो जलवायु परिवर्तन को आगे बढ़ने से रोक सके। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के 13 करोड़ लोगों पर जलवायु परिवर्तन से खतरा मंडरा रहा है।यह महासम्मेलन एक मजबूत मिटिगेशन यानी ऊर्जा के उपयोग में बदलाव की मांग करता है। दुनिया अपने ऊर्जा के इस्तेमाल को जीवाश्म ईंधन की जगह नवीकरणीय ऊर्जा, विंड, सोलर, बायो एनर्जी, माइक्रो हाइड्रो जैसे कार्बन उत्सर्जन रहित स्रोतों से पूरा करने लगे तो उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कमी लाते हुए Cop 28 की राह प्रशस्त होगी और इसका मकसद सफल होगा। यह महासम्मेलन ग्लोबल वार्मिंग को 1.5-2 डिग्री सेल्सियस के अंदर रोकने के लिए आज की ऊर्जा प्रणाली को तेजी से डीकार्बोनाइज़ करते हुए, भविष्य की ऊर्जा प्रणाली का निर्माण करक ऊर्जा परिवर्तन / एनर्जी ट्रांजीशन को फ़ास्ट-ट्रैक करने का एक ख़ास मौक़ा प्रस्तुत करता है।यूएई में होने वाले COP28 को सफल बना सकता है भारत, जी-20 शिखर सम्मेलन में है बड़ा मौकाजीवाश्म ईंधन का कम करना ही होगा इस्तेमालबीते सवा लाख सालों में इस साल सबसे अधिक गर्म जुलाई से जूझने के बाद तो सारी दुनिया पर यह बात साफ़ ज़ाहिर है की इस वर्ष, पहले से कहीं ज़्यादा, सफलता के लिए एकता आवश्यक है। ग्लोबल वार्मिंग को 1.5-2 डिग्री सेल्सियस के अंदर रोकने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जीवाश्म ईंधन की मांग और आपूर्ति को चरणबद्ध तरीके से कम करना अपरिहार्य और आवश्यक है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मजबूत नीतियों की आवश्यकता है। इस काम के लिये एक समग्र दृष्टिकोण चाहिए जो आपूर्ति और मांग दोनों पक्षों को एकीकृत तरीके से एक साथ लाए। दुनिया को व्यवस्थित, उचित और न्यायसंगत तरीके से ऊर्जा परिवर्तन में तत्काल तेजी लानी चाहिए जो ऊर्जा सुरक्षा का हिसाब दे और यह सुनिश्चित करे कि विकासशील देशों के पास एनर्जी को लागू करने के लिए वित्त और प्रौद्योगिकी उपलब्ध हो।पिछली आईपीसीसी की स्पेशल रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि इस काम के लिये साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 45% (2010 के स्तर से) कम करना ज़रूरी है। धरती की सतह पर बढ़ते तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से कम रखने के लिए यह जरूरी है कि सभी देशों की सरकारें, ऊर्जा प्रणाली के डी कार्बोनाइज़ेशन यानी उत्सर्जन शून्य होने पर राज़ी और वचनबद्ध हों। तब ही जाकर इस विनाशक स्थिति से निपटा जा सकता है। कार्बन ब्रीफ के आंकड़े कहते हैं कि आने वाले दशकों में कार्बन उत्सर्जन वर्तमान स्तर से 8 गुना नीचे लाने होंगे तभी धरती के तापमान वृद्धि को 2 डिग्री की सीमा में रखा जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि अगली युवा पीढ़ी के कार्बन बजट का अधिकांश हिस्सा बच्चों के मां-बाप और दादा-दादी खर्च कर चुके हैं।पहाड़ों से लेकर समुद्र की गहराई तक दिख रहा ग्लोबल वार्मिंग, भारत पर क्या हो रहा असर? विशेषज्ञ से समझेंभारत में बच्चों के लिए मात्र 18 टन कार्बन बजटइसके हिसाब से अमेरिका में जो साल 1946 में पैदा हुए उन्होंने अपने जीवन में कुल 1551 टन कार्बन उत्सर्जित किया जबकि 2017 में पैदा हो रहे बच्चों के लिये 197 टन कार्बन ही उपलब्ध है। भारत में अभी पैदा हो रहे बच्चों के लिये तो कार्बन बजट मात्र 18 टन ही है। इसका मतलब यह है कि आने वाली पीढ़ी के लिये तरक्की और सुविधाओं के तमाम रास्ते बन्द हो सकते हैं और उन्हें बड़े पैमाने पर साफ सुथरी ऊर्जा के लिए संसाधन तलाश करने होंगे, वरना जलवायु परिवर्तन के असर से चक्रवाती तूफान, बाढ़ ,सूखा और भायनक लू के साथ बढ़ते समुद्र जल स्तर और पिघलते ग्लेशियरों के खतरे का सामना करना पड़ेगा।आने वाली शताब्दी में ग्रीनहाउस गैस निकासी में हो रही वृद्धि से यदि ग्लोबल तापमान 2 डिग्री सेंटीग्रेड से उपर बढ़ गया, तो जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र के स्तर में वृद्धि, मानसून में बदलाव, मौसम का बदलता मिजाज़, समुद्री तूफान, चक्रवात और कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, कभी जलापूर्ति के अभाव के कारण पड़ने वाले अकाल से दक्षिण एशिया क्षेत्र में प्रवासियों की बाढ़ सी आ जाएगी। तीन दक्षिण एशियाई तटीय देशों- बंगलादेश, पाकिस्तान और भारत में इस समय लगभग 13 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्र में रह रहे हैं जिसे कम ऊंचाई वाला तटीय क्षेत्र कहा जाता है। अर्थात वह स्थान जो औसत समुद्र स्तर से 10 मीटर से भी कम ऊंचा होता है। ऐसे में अगर ग्लोबल वार्मिंग पर लगाम ना कसी तो लगभग 125 मिलियन लोग बेघर हो जाएंगे जिसमें 75 मिलियन लोग बंगलादेश और भारत से होंगे।लेखिका डॉक्टर सीमा जावेद वरिष्ठ स्तंभकार हैं और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखती रहती हैं।