केतकी देसाई, नई दिल्ली: ‘हमें नहीं पता कि आपका बच्चा लड़का है या लड़की।’ आमतौर पर यह बात नवजात के माता-पिता के दिल में डर पैदा कर देता है। फिर वो अपने इंटरसेक्स बच्चे को लड़का या लड़की बनाने के लिए सर्जरी करवाते हैं। हालांकि इसकी कोई जरूरत नहीं होती है। इंटरसेक्स व्यक्ति (LGBTQI में ‘I’) दुनिया की आम आबादी के 1.7% हैं। वे कई प्रकार के हो सकते हैं, कुछ ऐसे हैं जिनके अस्पष्ट या एक से ज्यादा जननांग हैं। ऐसे लोग वो नहीं होते जिसकी कल्पना आम लोग किया करते हैं। भारत में, वे या तो छोड़ दिए जाते हैं या सर्जरी करवाने के लिए मजबूर किए जाते हैं बिना यह सोचे कि इसका उनकी शारीरिक और मानसिक सेहत पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। हालांकि, कुछ राज्य अब कानून बना रहे हैं ताकि व्यक्ति की सहमति के बिना उसका लिंग निर्धारण करने वाली सर्जरी नहीं करवाई जा सके।हाल ही में, केरल हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि इंटरसेक्स बच्चों पर लिंग निर्धारण करने वाली सर्जरी की अनुमति सिर्फ उस समिति की राय पर दी जाएगी जिसमें बाल चिकित्सक, बाल शल्य चिकित्सक और बाल मनोवैज्ञानिक/मनोचिकित्सक शामिल हों। इस तरह, ऐसी सर्जरी केवल तब की जाएगी जब वे बच्चे की जान बचा सकें। इस मुद्दे को गंभीरता से लेने वाला देश का पहला राज्य तमिलनाडु था, जिसने 2019 में लिंग निर्धारण करने वाली सर्जरी (जीवन बचाने वाली परिस्थितियों को छोड़कर) पर प्रतिबंध लगा दिया। तमिलनाडु सरकार ने सृष्टि मदुरै और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसे सक्रिय संस्थानों की सिफारिशों को माना जिसमें बच्चे के जीवन को कोई खतरा नहीं है, फिर भी सर्जरी की जाती है।अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को भी माता-पिता की पैतृक संपत्ति में हक, सुप्रीम कोर्ट ने दिया बड़ा फैसलादिल्ली में भी इसी प्रकार का दखल देने की कोशिश की गई है। डॉ. सतेंद्र सिंह और डॉ. अक्सा शेख ने दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग में याचिका दायर की, जिसने दिल्ली मेडिकल परिषद का फीडबैक लिया। डॉ. सिंह कहते हैं, ‘स्वास्थ्य विभाग को इस पर कार्रवाई करने के लिए कहा गया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। सृष्टि मदुरै ने भी दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की, लेकिन उन्होंने महीनों से जवाब नहीं दिया है।’हैदराबाद के एक वकील नीश जब 80 के दशक में पैदा हुए थे तब इंटरसेक्स शब्द भारत में प्रचलित नहीं था। वो पैदा हुए तो उनका जननांग स्पष्ट नहीं था, लेकिन उन्हें पुरुष मान लिया गया क्योंकि उनका जननांग महिला से ज्यादा पुरुष से मेल खाते थे। इस कारण वो सिर्फ बैठकर पेशाब करते थे और सर्जरी करवाने के लिए मजबूर नहीं किए गए थे। हालांकि, पेशे से डॉक्टर चाचा ने नीश के माता-पिता को उनकी लिंग निर्धारण करने वाली सर्जरी करवाने के लिए मना लिया। अगले 18 महीनों में उनकी तीन सर्जरी हुई। इस कारण आज 30 साल बाद उन्हें दर्द होता है। नीश कहते हैं, ‘लगातार दर्द रहता है। साथ ही, जननांग पर सर्जरी का दाग साफ दिखता है। इससे आपको संबंध बनाने में संकोच होता है क्योंकि उसका आनंद लेने के बजाय, आप सोच रहे होते हैं कि उन्हें कैसे बताएं।’Delhi Aiims: देश में कॉस्मेटिक एक्सपर्ट की कमी होगी दूर, Aiims में दुबई के Expert ने दी ट्रेनिंगदुहा कहती हैं कि इंटरसेक्स लोगों को बताया जाता है कि ये सर्जरी सब कुछ ठीक कर देगी। लेकिन अधिकतर सर्जरी बच्चे को ‘नॉर्मल’ बनाने के लिए की जाती है। यह तो सबको पता है कि अगर बच्चे का मनमर्जी से लिंग तय करना पड़े तो ज्यादातर भारतीय मां-बाप कौन सा लिंग चुनेंगे। हालांकि, सर्जरी के लिहाज से लिंग के मुकाबले योनी बनाना ज्यादा आसान है। दुहा इंटरसेक्स मानव अधिकार भारत की सह-संस्थापक और इंटरसेक्स एशिया में रिसर्च फेलो हैं।नोएडा स्थित मदरहुड हॉस्पिटल के शिशु विशेषज्ञ डॉ. अमित गुप्ता कहते हैं कि परिवारों को बच्चे के लिंग के बारे में बताना बड़ा संवेदनशील विषय है। उन्होंने कहा, ‘मुझे हाल ही में ऐसा एक मामला मिला जहां एक पिता जमीन पर गिर पड़ा। हम एक साथ कई काम करते हैं, मसलन सलाह देना, समझाना कि इंटरसेक्स का क्या मतलब है, और यह केवल एक अलग प्रकार का शरीर है। हम माता-पिता को अपने बच्चे को स्वीकार करने और तब तक कोई फैसला नहीं लेने को मनाते हैं जब तक बच्चा बड़ा होकर खुद अपनी जिंदगी निर्धारित करने के काबिल न हो जाए। कुछ लोग समझते हैं, लेकिन दूसरों का हवाला देकर कहते हैं कि उसने तो सर्जरी करवा ली।’यह सच भी है कि ज्यादातर मां-बाप ऐसे अस्पष्ट जननांग वाले बच्चों की सर्जरी करवा देते हैं या फिर उसे त्याग देते हैं। ट्रांस एक्टिविस्ट ग्रेस बानू कहती हैं कि यह आम है, खासकर उत्तर भारत में, कि इंटरसेक्स बच्चों को ट्रांस लोगों को घरानों में पालने के लिए दिया जाता है। वो कहती हैं कि ऐसी परिस्थिति में शिशु हत्या के मामले भी सामने आते हैं।बच्चे के पालने के लिए दोनों पेरेंट्स रिस्पॉन्सिबल, केवल पिता नहीं, उत्तराखंड हाई कोर्ट का आया बड़ा फैसलाबहुत सारे बच्चों को बड़ा होने पर भी पता नहीं होता कि उनकी सर्जरी हुई है। LGBTQIA+ लोगों के साथ काम करने वाले एनजीओ साथी के एल. रामकृष्णन कहते हैं, ‘लोगों की बातें सुनकर पता चलता है कि जब उन्हें पता चला कि जब वो नाबालिग थे, तभी उनकी सर्जरी करवाई गई थी तो वो घाबरा जाते हैं।’ यही वजह है कि एक्टिविस्ट राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने की मांग करते हैं। डॉ. शेख कहती हैं, ‘इसे मानवाधिकार के नजरिए से देखना होगा। हमें कानून और गाइडलाइंस की जरूरत है।’ लेकिन एक ऐसे देश में जहां अदालत और स्वास्थ्य विभाग, दोनों सेक्स और जेंडर में अंतर नहीं कर पाते और कई मां-बाप को कहा जाता है कि उनका बच्चा ट्रांसजेंडर है, वहां सबसे पहली जरूरत जागरूकता की है।सृष्टि मदुरै संस्था के गोपी शंकर मदुरै कहते हैं, ‘सरकार इंटरसेक्स शिशुओं का असल पहचान नहीं जान सकती है, अगर उन्हें लिंग और लैंगिक पहचान के बीच का फर्क मालूम नहीं है। साथ ही, डॉक्टरों को भी सेक्स डेवलपमेंट में अंतर के बारे में जानकारी ही नहीं होती है।’ इनकी मांग है कि भारतीय आर्युविज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) एक उचित अध्ययन करे जिसमें आबादी के भीतर विविध लिंग विशेषताओं की मौजूदगी को पहचाना जाए और जन्म और मृत्यु के पंजीकरण में उन्हें शामिल किया जाए। ऐसा करते वक्त लोगों को स्वायत्ता हो कि वो अपनी मर्जी से अपना लिंग निर्धारण कर सकें। डॉक्टर सिंह कहते हैं कि समाज के नजरिए से जो उचित है, उसके अनुसार इंटरसेक्स व्यक्तियों के शरीर को बदलने की सोच पर लगाम लगाना होगा। अगर किसी को लगता है कि उसका शरीर जैसा भी है, कोई समस्या नहीं है जिसे ठीक किया जाए तो फिर उसकी सोच का सम्मान किया जाना चाहिए।