नई दिल्ली: वो मंगलवार का दिन था। सुबह कैंटीन में मैंने चाय भी नहीं पी थी। रात उलझन में कटी थी। एक फैसले ने उलझा रखा था। क्या करूं? करियर का क्या होगा। 20 साल की उम्र में M.Sc. छूटी तो आगे क्या करूंगा? उस समय मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से फिजिक्स में M.Sc. कर रहा था। पहला साल था। कई तरह के भाव आ रहे थे। मेरे पास नोकिया का वो पुराना वाला फोन था पतला वाला। घर फोन लगा दिया, तब वहां बेसिक फोन था। पिताजी थे नहीं, बहन ने फोन उठाया और मैं रो पड़ा। जो लोग AMU में घूमे होंगे वे सर जियाउद्दीन हॉल के पीछे वाले ग्राउंड के बारे में जानते होंगे। उसके पास खड़े होकर बात करते समय मैं आंसुओं में भीगता जा रहा था। बहन ढांढस बंधा रही थी, ‘भैया, क्या सिर्फ एमएससी से ही करियर बनता है, दुनिया में कितने ऑप्शन हैं, अगर मन नहीं लग रहा या कोई भी परेशानी है तो वहां पढ़ने का कोई फायदा नहीं।’ मुझसे दो साल छोटी है लेकिन उस दिन उसने बड़ा ज्ञान दिया। काश, IIT-JEE की तैयारी करने आए 17 साल के मनीष प्रजापत को भी मेरी बहन जैसा कोई सलाहकार मिल गया होता। अफसोस, उसने हॉस्टल में पंखे से लटककर फांसी लगा ली। ऊपर जो वाकया मैंने लिखा उसकी वजह यह है कि कभी न कभी हर बच्चे के जीवन में ऐसा मोड़ आता है जब वह भीतर से टूट जाता है या कई तरह की भावनाएं मन में आने लगती है। वह जल्दी हिम्मत हारने लगता है।कोटा जाने वाले बच्चों का दर्द समझिएमनीष इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए आजमगढ़ से कोटा गया था। जिस दिन उसने यह खौफनाक कदम उठाया, कुछ देर पहले तक उसके पिता वहीं कोटा में साथ थे। जैसे ही उन्होंने ट्रेन पकड़ी, मनीष ने दुनिया को अलविदा कह दिया। यूपी-बिहार के बहुत से बच्चे ‘कोटा फैक्ट्री’ में अच्छे भविष्य का सपना लेकर जाते हैं। कैसे भी करके मां-बाप पैसा देते हैं। बच्चों का भी सपना होता है फिर अचानक कोटा जाकर ऐसा क्या हो जाता है कि वे पंखे से झूल जाते हैं? हालत का अंदाजा ऐसे लगाइए कि इस साल प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों की सुसाइड का यह 19वां मामला है। इसी महीने की शुरुआत में यूपी के मनजोत सिंह ने कोटा में सुसाइड कर लिया था।एक बच्चे का सुसाइड नोट।सॉरी… हैपी बर्थडे पापामनजोत ने दीवार पर तीन नोट चस्पा किए थे, ‘Sorry, मैंने जो भी किया है अपनी मर्जी से किया है। प्लीज मेरे दोस्तों और पैरेंट्स को परेशान ना करें।’ इसके बाद अगले नोट में Happy Birthday Papa लिखते हुए उसने छोटा सा दिल बनाया था। ओह, तस्वीर देखकर आपकी आंखों में आंसू आ जाएंगे। हमारी शिक्षा व्यवस्था, सोच और समाज के तरीके में ऐसा क्या गड़बड़ हो गया है कि होनहार जान देने लगे हैं। 12वीं के बाद एक JEE या डॉक्टर ही नहीं, बहुतेरे विकल्प हैं। कोई यह बात क्यों नहीं समझता।कोटा में बच्चों के सिर पर नाचता काल! कोचिंग से मौत तक का सफर क्यों तय कर रहे हैं मेडिकल-इंजीनियरिंग के छात्रअपनी उम्मीदों का बस्ता भरकर क्यों भेजते हैं कोटा?मैंने कोटा में रहने वाली अपनी दोस्त कीर्ति नामा से बात की। उन्होंने राजस्थान बोर्ड से पढ़ाई की है। 85 पर्सेंट हासिल करने के बाद उन्होंने भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की थी। वह बोलते-बोलते असली वजह बता गईं कि आखिर बच्चे वहां सुसाइड क्यों कर रहे हैं। आप अगर अभिभावक हैं या खुद पढ़ाई के लिए कोटा या किसी दूसरे शहर जाना चाहते हैं। या घर पर ही पढ़ रहे हैं तो आपको इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।कीर्ति बताती हैं, ‘देखो, बच्चे खुद को अच्छा मानकर कोटा में आते हैं लेकिन कभी अंग्रेजी-हिंदी मीडियम, कभी फ्रैंकनेस, कभी एक तरह की फुर्ती के अभाव में कुछ बच्चे खुद को कमजोर समझने लगते हैं। समस्या यह भी है कि कोटा में एक, दो या 10-20 नहीं काफी ज्यादा संस्थान हैं। छात्रों का मेला लगा हुआ है यहां। कक्षाएं खचाखच भरी रहती हैं। ऐसे में कम समझ पाने छात्र संकोच में रह जाते हैं और पूछते नहीं हैं। टीचर भी उन तक नहीं पहुंचते हैं। इससे बच्चों की परेशानी बढ़ती है। जब कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं होते तो आगे चलकर नंबर कम आते हैं और हताशा भर जाती है।’Rajasthan News: आजमगढ़ से आया था वो… सपने कुछ और थे, घरवालों की उम्मीदें कुछ और… कोटा में पंखे से झूल गयाकीर्ति कहती हैं कि हर बच्चे का बैकग्राउंड एक जैसा नहीं होता है। कुछ के मां-बाप बड़ी मुश्किल से पैसों का जुगाड़ कर उन्हें कोटा भेजते हैं। यहां उनके रहन-सहन में समझ में आ जाता है लेकिन यहां आकर बच्चे उम्मीदों के बोझ में फंसते चले जाते हैं। उन्हें लगता है कि वह तो उन उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं जो घरवाले सोचकर कोटा भेजे थे। यही वजह है सुसाइड की।वास्तव में, कम नंबर आने या पढ़ाई में मुश्किल आने पर बच्चों का आत्मविश्वास डगमगा जाता है। ऐसे समय में घरवालों, दोस्तों, कोचिंगवालों का यह फर्ज है कि बच्चों को समझाएं कि यह आखिरी परीक्षा नहीं थी। जीवन में जिस भी मोड़ पर लगे कि आगे का रास्ता हमारे लिए ठीक नहीं है, हमें रास्ता बदल देना चाहिए। जान देना कोई उपाय थोड़ी है।पढ़ो-लिखो, तेंडुलकर नहीं बन जाओगे…वैसे भी, अब तक मां-बाप के सोचने का नजरिया भी नहीं बदला है। बच्चों को उनकी पसंद के हिसाब से करियर बनाने की छूट पूरी तरह नहीं मिली है। अब भी गाइडेंस के नाम पर अपनी उम्मीदों का बस्ता उनकी पीठ पर बांधा जाता है। मां-बाप को सोचना चाहिए कि क्या करियर सिर्फ डॉक्टर और इंजीनियर बनने में हैं। क्या आईपीएल खेलकर युवा क्रिकेटर अच्छा जीवन नहीं जी रहा है। संगीत, फिल्म, क्रिकेट, कला, बिजनस ऐसे न जाने कितने फील्ड्स हैं जिसमें जीवन संवारा जा सकता है। जरूरत है तो इस बात को समझने की। बच्चा बैट लेकर खेलने जाए तो प्लीज उससे मत कहिए, ‘पढ़ो लिखो, तेंडुलकर नहीं बन जाओगे।’ अब जमाना बदल चुका है। कम उम्र में कोटा भेजने का कोई मतलब नहीं है। साथ ही मां-बाप समझें कि उनका बेटा या बेटी की पसंद क्या है, वे क्या पढ़ना चाहते हैं। उन पर अपनी इच्छा थोपने से अच्छा है कि उन्हें इतना सोचने का अवसर दीजिए कि वे खुद तय कर सकें कि उनकी पसंद क्या है। बच्चों पर प्रेशर मत दीजिए, ये वे परिंदे हैं जिन्हें उड़ने के लिए खुला आसमान चाहिए। हमें बच्चों की इतनी मदद तो करनी होगी।किसी शायर ने क्या खूब लिखा है-निकाल लाया हूं एक पिंजरे से इक परिंदाअब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है।निदा फ़ाज़ली ने ये लाइनें (नीचे की) जब लिखी होंगी तो उनके मन में यही भाव रहा होगा कि बच्चों को अपनी कल्पना, अपनी सोच, अपनी पसंद से आगे बढ़ने दो। आप समझ रहे हैं न!बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दोचार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।महत्वपूर्ण जानकारी-मानसिक समस्याओं का इलाज दवा और थेरेपी से संभव है। इसके लिए आपको मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए, आप इन हेल्पलाइन से भी संपर्क कर सकते हैं-सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय की हेल्पलाइन- 1800-599-0019 (13 भाषाओं में उपलब्ध)इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यमून बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज-9868396824, 9868396841, 011-22574820हितगुज हेल्पलाइन, मुंबई- 022- 24131212नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस-080 – 26995000