बिहार में लगातार उठापटक जारी है। नीतीश कुमार के बारे में कहा जा रहा है कि वह मुख्यमंत्री बनने के बावजूद बहुत सहज नहीं हैं। दो बातें उन्हें लगातार परेशान किए हुए हैं। एक तो यह कि चुनाव में उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर रही और वह बीजेपी के रहमोकरम पर सीएम बन पाए हैं। दूसरी यह कि वह अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। उन्हें पता है कि राजनीति में संख्याबल ही महत्वपूर्ण होता है। इसलिए अपने से कम विधायक वाली पार्टी के नेता को बीजेपी कब तक बतौर मुख्यमंत्री स्वीकार करती रहेगी? अपने साथ कोई ‘अनहोनी’ हो, उससे पहले ही वह अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत कर लेना चाहते हैं। शुरुआत उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में लेकर की थी। पिछले दिनों पासवान की पार्टी में जो टूट-फूट हुई, उसमें भी नीतीश की ही मुख्य भूमिका मानी जा रही है। इसलिए राजनीतिक गलियारों में अब यही सवाल पूछा जा रहा है कि नीतीश की अगली ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहां होगी? चर्चा तो यह है कि नीतीश के निशाने पर ओवैसी की पार्टी के विधायक हैं। विधानसभा में उनकी संख्या पांच है। सरकार बनने के बाद एक बार इन विधायकों की नीतीश से मुलाकात भी हो चुकी है। विधायकों को मालूम है कि ओवैसी की पार्टी से वह चुनाव तो जीत गए, लेकिन राज्य में वह कोई मुख्य पार्टी तो है नहीं, इसलिए इन विधायकों को अपना कोई भविष्य नहीं दिखता। तर्क वही हो सकता है कि जो एलजीपी के सांसदों ने दिया- ‘क्षेत्र के लोगों की विकास को लेकर अपेक्षाएं होती हैं। राज्य में नीतीश कुमार की सरकार है तो उनके साथ मिलकर चलना होगा।’ बिहार के पिछले चुनाव में ओवैसी की पार्टी से जो विधायक जीते हैं, उनमें से ज्यादातर दूसरी पार्टियों से आए हुए हैं, उनका संपर्क किसी न किसी रूप में नीतीश कुमार के साथ पहले भी रहा है।नीतीश को पता है कि राजनीति में संख्याबल ही महत्वपूर्ण होता है। इसलिए अपने से कम विधायक वाली पार्टी के नेता को बीजेपी कब तक बतौर मुख्यमंत्री स्वीकार करती रहेगी? अपने साथ कोई ‘अनहोनी’ हो, उससे पहले ही वह अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत कर लेना चाहते हैं।बिहार में लगातार उठापटक जारी है। नीतीश कुमार के बारे में कहा जा रहा है कि वह मुख्यमंत्री बनने के बावजूद बहुत सहज नहीं हैं। दो बातें उन्हें लगातार परेशान किए हुए हैं। एक तो यह कि चुनाव में उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर रही और वह बीजेपी के रहमोकरम पर सीएम बन पाए हैं। दूसरी यह कि वह अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। उन्हें पता है कि राजनीति में संख्याबल ही महत्वपूर्ण होता है। इसलिए अपने से कम विधायक वाली पार्टी के नेता को बीजेपी कब तक बतौर मुख्यमंत्री स्वीकार करती रहेगी? अपने साथ कोई ‘अनहोनी’ हो, उससे पहले ही वह अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत कर लेना चाहते हैं। शुरुआत उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में लेकर की थी। पिछले दिनों पासवान की पार्टी में जो टूट-फूट हुई, उसमें भी नीतीश की ही मुख्य भूमिका मानी जा रही है। इसलिए राजनीतिक गलियारों में अब यही सवाल पूछा जा रहा है कि नीतीश की अगली ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहां होगी? चर्चा तो यह है कि नीतीश के निशाने पर ओवैसी की पार्टी के विधायक हैं। विधानसभा में उनकी संख्या पांच है। सरकार बनने के बाद एक बार इन विधायकों की नीतीश से मुलाकात भी हो चुकी है। विधायकों को मालूम है कि ओवैसी की पार्टी से वह चुनाव तो जीत गए, लेकिन राज्य में वह कोई मुख्य पार्टी तो है नहीं, इसलिए इन विधायकों को अपना कोई भविष्य नहीं दिखता। तर्क वही हो सकता है कि जो एलजीपी के सांसदों ने दिया- ‘क्षेत्र के लोगों की विकास को लेकर अपेक्षाएं होती हैं। राज्य में नीतीश कुमार की सरकार है तो उनके साथ मिलकर चलना होगा।’ बिहार के पिछले चुनाव में ओवैसी की पार्टी से जो विधायक जीते हैं, उनमें से ज्यादातर दूसरी पार्टियों से आए हुए हैं, उनका संपर्क किसी न किसी रूप में नीतीश कुमार के साथ पहले भी रहा है।’दिग्गी राजा’ का नया दांवमध्य प्रदेश में आपसी कलह के चलते कांग्रेस को अपनी सरकार तक गंवानी पड़ गई, लेकिन इसके बाद भी उसने सबक नहीं सीखा। जब तब वहां किसी न किसी मुद्दे पर गुटबाजी जारी ही रहती है। इस वक्त राज्य में दिग्विजय सिंह अपने बेटे को प्रदेश का कार्यकारी अध्यक्ष बनवाने के लिए दांव चलते दिख रहे हैं। खबर है कि वहां कांग्रेस पदाधिकारियों की नई लिस्ट आने वाली है। पुरानी कार्यकारिणी में तीन कार्यकारी अध्यक्ष के पद थे, इन पदों का सृजन ही एडजस्टमेंट के इरादे से किया गया था और जो कभी भी कमलनाथ को रास नहीं आया। वह इन पदों को खत्म करना चाहते हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह न केवल इस बात के लिए जोर लगाए हुए हैं कि कार्यकारी अध्यक्ष के पद बने रहें बल्कि यह भी चाहते हैं कि एक कार्यकारी अध्यक्ष का पद उनके बेटे को मिले। अब चूंकि कमलनाथ अपने बेटे को सांसद बनवा चुके हैं, तब दिग्वजिय सिंह ने उस पर कोई एतराज नहीं जताया था। इसलिए अब कमलनाथ के लिए दिग्वजिय सिंह के बेटे को ना करना मुश्किल हो रहा है। कमलनाथ चाहते हैं कि इसके लिए दिग्विजय को केंद्रीय नेतृत्व ही मना कर दे और उन्हें कुछ न कहना पड़े। इसलिए वह दिल्ली में तर्क दे रहे हैं कि कार्यकारी अध्यक्ष पद का कांसेप्ट बहुत कामयाब नहीं रहा। पिछली बार जिन तीन लोगों को यह पद दिया गया था, उनमें से दो चुनाव भी नहीं जीत सके थे। देखने वाली बात होगी कि दिल्ली में आलाकमान के सामने किसके तर्क ज्यादा वजनदार साबित होते हैं। कमलनाथ यह तो जानते ही हैं कि दिग्गी राजा के बेटे को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया तो उसके बाद उनकी नजर प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर होगी।यूपी में ‘खेल’ अब शुरू होगा?यूपी में शर्मा जी भी पहेली बने हुए हैं। एक तो वह प्रधानमंत्री के करीबी हैं। दूसरे उन्हें वीआरएस के जरिए जब यूपी की पॉलिटिक्स में भेजा गया था तो एक सामान्य सी धारणा थी कि वह महज एमएलसी बनने के लिए नहीं आए हैं। अगर इसी तरह का पद उन्हें देना होता तो दिल्ली में ही उन्हें राज्यसभा में ‘एडजस्ट’ कर दिया गया होता, उन्हें कुछ ‘बड़ा’ करने के लिए यूपी भेजा गया है। इसके बाद पिछले छह महीने से उनके डिप्टी सीएम बनने से लेकर अलग पूर्वांचल राज्य बनाकर उन्हें उसका सीएम बनाए जाने तक की अटकलें लगती रहीं, लेकिन आखिर में उनके हाथ आया प्रदेश उपाध्यक्ष का पद। राज्य इकाई में पहले से 16 उपाध्यक्ष थे। शर्मा जी 17वें हो गए हैं। प्रदेश उपाध्यक्ष का पद मिलने से पहले तक उनके इर्द-गिर्द जिस तरह की भीड़ जुटती थी और आगे बढ़ने के ख्वाहिशमंद बीजेपी नेताओं में उनके करीब आने की होड़ थी, उसमें कमी आई है। अब यह कहा जा रहा है कि यह योगी जी की जीत है। उनको विश्वास में लिए बगैर शर्मा जी को यूपी की पॉलिटिक्स में लाया गया था, ऐसे में उनका यह ‘हश्र’ होना ही था। पार्टी में एक बड़ा वर्ग अभी भी यह बात मानने को तैयार नहीं है। वह नहीं मानता कि यह योगी जी की ‘जीत’ है या शर्मा जी ‘किनारे’ लगा दिए गए। कहा जा रहा है कि ‘खेल’ अभी शुरू ही नहीं हुआ था, वह तो अब शुरू होगा। इस भरोसे की बुनियाद वही थिअरी बनी हुई है कि ‘वह सिर्फ एमएलसी बनने के लिए तो यूपी आए नहीं हैं।’ कई तरह की चर्चाएं राजनीतिक गलियारों में हैं। कहा जा रहा है कि वह संगठन के जरिए सरकार की तरफ कदम बढ़ाएंगे। पार्टी के अंदर ही कई ऐसे नेताओं के साथ उनकी गोलबंदी की चर्चा भी शुरू हो गई है, जो कुछ समय से खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते आए हैं।भाई-बहन की राजनीतिचुनाव के मौके पर अक्सर गठबंधन को लेकर कोई न कोई नया प्रयोग होता ही रहता है, लेकिन अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग पार्टी का प्रयोग पहली बार होने जा रहा है। आंध्र प्रदेश के कांग्रेस के कद्दावर नेता और राज्य के दो बार मुख्यमंत्री रहे वाईएसआर रेड्डी की आकस्मिक मौत के बाद जब उनके बेटे जगन मोहन रेड्डी ने उनकी जगह लेनी चाहिए तो कांग्रेस नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं हुआ। जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस से अलग हो गए। उन्होंने वाईएसआर कांग्रेस के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली और 2019 के चुनाव में बड़े बहुमत के साथ राज्य में सरकार बनाने में कामयाब रहे। उनकी बहन की भी राजनीति में दिलचस्पी जगी तो उन्हें पड़ोसी राज्य तेलंगाना में अपने लिए स्पेस दिखा। पहले तो उन्होंने तेलंगाना में भाई की पार्टी को विस्तार देने की बात सोची, फिर उन्होंने राज्य के लिए नई पार्टी ‘लॉन्च’ कर दी। इसे नाम दिया गया है वाईएसआर तेलंगाना पार्टी। आठ जुलाई को इसकी औपचारिक शुरुआत होगी। आठ जुलाई की तारीख इसलिए चुनी गई है कि इस दिन उनके पिता वाईएसआर रेड्डी की जयंती है। तेलंगाना में भी इस पार्टी के प्रभावी होने की उम्मीद इसलिए लगाई जा रही है कि 2014 से पहले तक यह आंध्र प्रदेश का हिस्सा था। अविभाजित आंध्र के वाईएसआर रेड्डी मुख्यमंत्री थे। तेलंगाना में आज भी उनका प्रभाव है।