प्रेमचंद मार्क्सवादी होते यह सोचना बेवकूफी है, असगर वजाहत का इंटरव्यू पढ़िए

नई दिल्ली। हिंदी के मशहूर साहित्यकार असगर वजाहत किसी परिचय के मोहताज नहीं। हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान, दोनों मुल्कों में उन्हें बराबर सम्मान प्राप्त है। तुलसीदास पर उनके लिखे नाटक महाबली पर पिछले साल उन्हें व्यास सम्मान से सम्मानित किया गया था। उनके नाटक गोडसे@गांधी डॉटकॉम पर जो फिल्म बनी, वह भी चर्चा में रही। हिंदी साहित्य की हालिया बहसों और उनकी फिल्म पर चल रहे विवादों पर असगर वजाहत से बात की नाइश हसन ने। पेश हैं अहम अंश:- आजादी के एक साल पहले पैदा हुए थे आप। अब तक क्या बदला, क्या बेहतर हुआ, क्या बेरंग हुआ?नेहरू के जमाने तक उम्मीद थी कि कुछ बेहतर होगा। लेकिन धीरे-धीरे मोहभंग होने लगा। खासकर नई जेनरेशन डिसइलूजन होने लगी, क्योंकि नेहरू के बाद इस मुल्क में जो हो रहा था, वह वैसा नहीं था जैसा नेहरू चाहते थे। मुल्क बैक गियर पर जाने लगा था, जैसा राही मासूम रजा ने लिखा है कि हमने देखा था जो, वो ख्वाब ही और था। हमने जो हिंदुस्तान का ख्वाब देखा था, वह नेहरू का ख्वाब था। लेकिन नेहरू के बाद से ही वह डीरेल होना शुरू हो गया।- वह ख्वाब पूरा डीरेल हो चुका है या कुछ बचा है?जो लोग हैं यहां के, उम्मीद उनसे है क्योंकि हिंदुस्तान को हमेशा कठिन मौकों पर यहां के लोगों ने बचाया है। लोग मुल्क को कल्याण और प्रगति के रास्ते पर लाएंगे। एक अच्छा मुल्क बनेगा जहां धर्म-जाति के नाम पर झगड़े-झंझट नहीं होंगे, इंसानियत होगी, दोस्ती होगी। नेताओं के लिए तो यह कर पाना शायद मुश्किल है।- प्रेमचंद की कहानियों में जातिवाद को लेकर पिछले दिनों काफी बहस हुई। आपका क्या कहना है इस पर?अफसोस की बात है कि लोग नहीं समझते कि प्रेमचंद का जमाना क्या था, और अब कौन सा जमाना है। प्रेमचंद के जमाने में दलित-आदिवासी हाशिए से भी बाहर थे। प्रेमचंद उन्हें केंद्र में लाए अपने लिटरेचर में। यह आशा करना कि आज जो हमारी मान्यताएं हैं, वे उनकी भी होतीं, प्रेमचंद मार्क्सवादी होते, आंबेडकरवादी होते, क्रांतिकारी होते तो ये सब बेवकूफी की बातें हैं।- प्रेमचंद से पहले तुलसीदास पर भी विवाद हुआ। आप का क्या मानना है?जहां अच्छी बात है उसे लीजिए, विवाद छोड़ दीजिए। उसके ऊपर ही चर्चा करेंगे तो अच्छी चीजों पर चर्चा नहीं हो पाएगी। भगवान राम के अंदर जो पॉजिटिविटी तुलसीदास ने डाली है, आप उसे ले लीजिए। आप तुलसीदास की सिर्फ उन बातों पर बहस करते हैं, जिनसे आप सहमत नहीं हैं। लेकिन सिर्फ उन्हीं पर केंद्रित हो जाने का मतलब हम अपने आप को डिफीट कर रहे हैं। पॉजिटिविटी खो रहे हैं। इससे हमें कुछ मिलने वाला नहीं है।- आप के नाटक गोडसे@गांधी डॉट कॉम पर जो फिल्म ‘गांधी-गोडसे एक युद्ध’ बनी, क्या वह ठीक वही है जो आपने अपने नाटक में लिखा?बिलकुल वही है, बल्कि उससे भी अच्छी है। जो लोग उसे नहीं समझ पा रहे हैं या जिन्होंने सरसरी तौर पर देखा है, वे गहराई में जा ही नहीं पाए। दूसरे, ऐसे भी लोग हैं जिन्हें विवाद पैदा करने में मजा आता है। जिन्होंने समझा था, उनके रिव्यू देखिए। जावेद नकवी ने डॉन में रिव्यू लिखा। जिन लोगों ने ड्रामा नहीं समझा है या जो चाहते थे कि किसी को बदनाम करके उन्हें बड़ी शोहरत मिलेगी, उन्होंने बेबुनियाद तरीके से इसे उछाला है।मुलाकात का वो किस्सा जब सामने बैठे थे महात्मा गांधी और राजीव ने पैरों पर चढ़ा दिए थे फूल- फिल्म के आखिर में गांधी और गोडसे को पैरलल खड़ा करना क्या थोड़ा अजीब नहीं था?पूरी फिल्म पैरा हिस्ट्री यानी आभासी इतिहास पर है। आप उन्हें आभासी नजर से देखिए। आदमी हालात से बनता है और हालात में बदलता भी है। गोडसे अपने हालात से ही तो कातिल बना था। इसलिए फिल्म में जब वह गांधी के साथ जेल में रहा, उनके असर में आया तो उसके अंदर पूरा बदलाव दिखाई दे रहा है। वह पुराना गोडसे नहीं रह गया। गोडसे के अंदर बदलाव से यह संदेश नहीं जाता कि गोडसे-गांधी बराबर हैं बल्कि यह मेसेज जाता है कि अगर किसी के हालात बेहतर किए जाएं, किसी से बातचीत की जाए तो उसके बदलने की संभावना ज्यादा होती है।- बहुत लोगों ने तो इसे समझा कि गोडसे की पोजिशन को गांधी के बराबर करने और गांधी की भूमिका को डाइल्यूट करने का यह कोई राजनीतिक अजेंडा है..गांधी की पोजिशन तो बिलकुल डाइल्यूट नहीं होती है। गांधी भी इंसान थे, देवता तो थे नहीं। गांधी ने पूरी जिंदगी में अपने बहुत से विचारों को बदला है। तो अगर फिल्म में भी वह बदल रहे हैं, एक आभासी इतिहास में, तो कौन सी बड़ी बात है? आपने फिल्म में देखा होगा कि मुसलमानों या द्विराष्ट्र थियरी के बारे में गांधी का क्या कहना है। अखंड भारत के बारे में जो गांधी ने कहा है वह आपने समझा है, तो राजनीतिक अजेंडा कहां से आ गया? आप लोग ठीक से देखते ही नहीं, बस फ्रेम करना आता है। जब गोडसे कहता है कि यह सब झगड़ा मुसलमानों की वजह से है, तब गांधी कहते हैं कि मुसलमान तो यहां सातवीं सदी में आए थे, उससे पहले क्या भारत में बड़ी शांति थी? कहां से यह किसी राजनीति के फेवर में है? बल्कि सत्ता से जुड़ी पार्टियां तो बहुत नाराज हैं इस फिल्म से। इसलिए किसी OTT पर इसका आना बहुत मुश्किल है।Congress News: कांग्रेस की CWC क्या होती है, सबसे पावरफुल टीम में गांधी परिवार का रोल भी जानिए- आप पांच वर्ष तक हंगरी के बुडापेस्ट में अध्यापक रहे। रूस-यूक्रेन युद्ध के हालात से वाकिफ हैं, क्या लगता है इस युद्ध को लेकर?यह विश्व पावर का खेल है, दोनों मुल्कों का इम्पीरियलिज्म है। उसी का यह नतीजा है। निश्चित रूप से इसका हल यह होगा कि जब एक पक्ष कमजोर पड़ जाएगा तो किसी न किसी समझौते की सूरत निकलेगी। और तो कोई हल है नहीं।’मैं यंग नहीं हूं, फिर भी आपकी…महिला की बात पर शरमा गए राहुल गांधी