नई दिल्ली: 18 महीने पहले शुरू हुए यूक्रेन युद्ध ने बहुत कुछ बदला है। जंग अब भी थमी नहीं है। महंगाई और मंदी की शक्ल में इसके असर भी दिख रहे हैं। इस वॉर ने वर्ल्ड ऑर्डर बदल दिया है। अमेरिका की सुपर पावर फीकी पड़ी है और दुनिया फिर कोल्ड वॉर की खेमेबाजी में बंटती दिख रही है। जंग सिर्फ जमीन पर नहीं लड़ी जा रही, इंटरनैशनल मंच भी इसका अखाड़ा बन चुके हैं। जी20 समिट भी इससे अछूती नहीं रही है। यूक्रेन जंग ऐसा मुद्दा रहा है जो एक साल से भारत की डिप्लोमेसी के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बनकर सामने आया है।समिट में परेशानी बढ़ाएगा यूक्रेन का मुद्दापिछले साल नवंबर में बाली समिट के दौरान ही यह बात साफ हो गई थी कि नई दिल्ली समिट में भी यूक्रेन का मुद्दा परेशानी बढ़ाएगा। इस मुद्दे पर आम सहमति को लेकर ऐसा दिखा भी। बीते दिनों भारत के G20 शेरपा अमिताभ कांत ने हंपी में इसको लेकर देश का रुख साफ किया था। उन्होंने कहा कि यूक्रेन वॉर का मसला भारत की प्राथमिकता में नहीं है। हमारी प्राथमिकता विकास के मुद्दे हैं। यही वजह है कि हम इस पर अंत में चर्चा करेंगे। दरअसल इस मसले पर भारत बहुत संभल-संभलकर चल रहा है। इसीलिए मंत्री स्तर के साझा बयान पर ज्यादा जोर नहीं दिया गया। भारत ऐसे हालात से बचना चाहता है, जहां रूस-यूक्रेन वॉर का मसला भारत की G20 अध्यक्षता पर हावी हो जाए। हालांकि भारतीय डिप्लोमेट्स यह बात जानते हैं कि आम सहमति कितनी जरूरी है। अगर G20 देश यूक्रेन वॉर पर आम सहमति नहीं बना पाए तो शायद 2008 के बाद यह पहली बार होगा कि समिट के आखिर में साझा बयान जारी नहीं होगा।एक्सपर्ट की रायभारत की डिप्लोमैटिक कोशिशें अपनी जगह हैं, लेकिन यह भी सच है कि समिट में युद्ध का मुद्दा अहम रहेगा। इसकी दो वजहें हैं। युद्ध के बाद दुनिया के डिप्लोमैटिक लैंडस्केप में बड़ा बदलाव आया है। अगर ऐसा नहीं होता तो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन रूस की तमाम कोशिशों के बावजूद BRICS बैठक में ऑनलाइन शामिल होने को मजबूर नहीं होते। यह भी साफ है कि पूतिन G20 बैठक के लिए दिल्ली नहीं आ रहे हैं। दूसरी बात यह कि पश्चिमी देश किसी भी हालत में इस मुद्दे पर रूस को घेरने का मौका नहीं छोड़ेंगे। अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने तो इस पर अपना रुख भी साफ कर दिया है। बीते दिनों अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने कहा था, ‘यूक्रेन वॉर का मुद्दा हमारी सभी बातचीत में टॉप प्रयॉरिटी पर आता है और इसमें शक नहीं कि G20 में भी ऐसा ही देखने को मिलेगा।’ वैसे एक्सपर्ट यह भी कहते हैं कि काफी कुछ आखिरी वक्त में तय होता है। उस वक्त कैसे हालात बनते हैं, इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा।वॉर पर आम सहमति को लेकर रास्ता साफ नहींयह सही है कि वॉर पर आम सहमति से जुड़े संदेश को लेकर साफ रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। इसे लेकर भारतीय डिप्लोमेसी भी असमंजस में है। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि डिप्लोमेसी के फ्रेमवर्क में कई तरह के विकल्पों पर विचार किया जा रहा है। इसे लेकर एक उदाहरण कुछ ऐसे दिया जा सकता है कि इसी साल मई में G7 समिट में यूक्रेन पर अटैक के लिए रूस की कड़ी निंदा की गई थी। हालांकि इसे लेकर क्वॉड समिट के बयान में भाषा नरम थी। इसके पीछे वजह क्वॉड में भारत की बतौर मेंबर मौजूदगी रही। वैसे भारतीय रणनीतिकारों के पास आखिरी मौका बचा है। मानेसर में आखिरी शेरपा समिट होने वाली है और इस दौरान आम सहमति के लिए वे अपनी ओर से पूरी कोशिश करते दिखेंगे ।आखिर क्यों अहम है समिट के बाद साझा बयान?पूर्व राजनयिक और विदेश मामलों के एक्सपर्ट राजीव डोगरा ने इसपर प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा कि G20 समिट के मद्देनजर यूक्रेन मसले पर उठे मतभेद भारतीय डिप्लोमेसी के लिए चुनौती तो हैं ही, इन मतभेदों में बहुध्रुवीय होती दुनिया के संकेत भी छुपे हैं। ऐसे हालात में अगर साझा बयान नहीं आया तो कुछ सवाल तो उठने जाहिर हैं। साझा बयान किसी भी समिट के लिए बेहद अहम दस्तावेज होता है। देश इसके जरिये दिखाते हैं कि वे कई मुद्दों पर एक जैसी सोच रखते हैं। इस लिहाज से चाहे कोई भी इंटरनैशनल कॉन्फ्रेंस हो या फिर समिट, उसके साझा बयान का आना बेहद जरूरी होता है। इसके न आने पर शक-शुबहा जैसी आशंकाओं को बल मिलता है।हालांकि मेरा मानना है कि हमें यूक्रेन के मसले पर बहुत ज्यादा फोकस करने से बचना चाहिए, क्योंकि ऐसे मसलों का हल समिट के कॉन्फ्रेंस हॉल में कम ही निकलता है। ऐसे में डिप्लोमेसी की दुनिया में जो परंपरा रही है, उसके मुताबिक भारतीय डिप्लोमेसी को बाकी का डॉक्युमेंट ड्राफ्ट तैयार कर उस पर आम सहमति की दिशा में काम करना चाहिए। जहां तक विवाद से जुड़े पैराग्राफ का संबंध है, तो वो डॉक्यूमेंट के साथ Annexure यानी जोड़े गए हिस्से की तरह मौजूद हो सकता है। इसे लेकर दोनों पक्षों के जो भी विपरीत विचार हैं, वह इसमें दर्ज किए जा सकते हैं।