सुखो खालसा स्कूलभीष्म साहनी ने अपनी अमर रचना ‘तमस’ में देश के बंटवारे के बाद फैली नफरत की दिल दहलाने वाली कहानी सुनाई। इसका आधार था कस्बा ‘सुखो’ जिसमें तब जमकर कत्लेआम हुआ था। सुखो रावलपिंडी के करीब एक छोटा-सा कस्बा है। सुखो से बड़ी तादाद में रेफ्यूजी दिल्ली आए तो उन्होंने वेस्ट दिल्ली के जनकपुरी में ‘सुखो खालसा हायर सेकेंडरी स्कूल’ खोला। सुखो में यूं तो बंटवारे से पहले सभी धर्मों के लोग रहते थे पर सिखों की तादाद ज्यादा थी। वे संपन्न थे और बिजनेस करते थे। लेकिन बंटवारे की वजह से वे सड़कों पर आ गए। फिर भी पराये शहर दिल्ली में आकर अपने सुखो को भूलने के लिए तैयार नहीं थे। सुखो उनके दिलों में बसता था। कुछ स्थापित होने के बाद सुखो वालों ने जनकपुरी में 1954 में एक स्कूल बनवा दिया। इसमें सुखो का नाम भी जोड़ दिया। पंजाबी के सशक्त कवि और खालसा कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ. हरमीत सिंह कहते हैं कि सुखो वालों ने भूखे-पेट रहकर ‘सुखो खालसा स्कूल’ स्थापित किया था।क्वेटा डीएवी स्कूलक्वेटा यानी पाकिस्तान के बलूचिस्तान सूबे की राजधानी। वहीं, साउथ दिल्ली के ईस्ट निजामुद्दीन में मिलेगा ‘क्वेटा डीएवी स्कूल’। ईस्ट और वेस्ट निजामुद्दीन, भोगल, जंगपुरा वगैरह में 1950 के दशक में बीसियों परिवार क्वेटा और बलूचिस्तान के दूसरे शहरों से आकर बसे थे। ज्यादातर आर्य समाजी थे। ये नए शहर में जमने लगे तो 1956 में इन्होंने यहां अपना स्कूल स्थापित किया। नाम रखा क्वेटा डीएवी स्कूल। क्वेटा में इसी नाम से एक स्कूल पहले से चल रहा था। क्वेटा के साथ-साथ बलूचिस्तान के कुछ दूसरे शहरों जैसे ग्वादर, चमन, किला अब्दुल्ला से आए परिवारों के बच्चे भी ‘अपने’ इसी स्कूल में पढ़ते थे। बलूचिस्तान से यहां आकर बसे परिवारों की माली हालत में गुणात्मक सुधार हो चुका है। निजामुद्दीन के समाजसेवी शेख जिलानी भी इसी स्कूल में पढ़े हैं। वह कहते हैं कि यहां कभी किसी बच्चे के साथ धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं होता।गुरुद्वारा रेफ्यूजी सिंह सभाकरोलबाग से सटे देशबंधु गुप्ता रोड पर गुरुद्वारा रेफ्यूजी सिंह सभा है। जैसा कि इसके नाम से ही साफ है कि इसका निर्माण भी शरणार्थियों ने ही करवाया। गुरुद्वारा रेफ्यूजी सिंह सभा में बैंकर कुलबीर सिंह हमें अंदर लेकर जाते हैं। वहां उनका पूरा बचपन और जवानी गुज़री है। वह इसके पीछे बने एक घर में रहते थे। वह बताते हैं कि गुजरांवाला, लाहौर, मियांवाली वगैरह के सिखों व हिंदुओं ने इसे बनवाया था। ये सभी करोल बाग, अजमल खां रोड, आनंद पर्वत वगैरह में रहते थे। जब इस गुरुद्वारे का नाम रखने का सवाल आया तो इसके संस्थापकों जैसे हजूर सिंह, हरनाम सिंह चावला, ज्ञानी आसा सिंह वगैरह की राय थी कि इसके नाम में रेफ्यूजी शब्द आए। जिससे आने वाली पीढ़ियों को इसकी पृष्ठभूमि की जानकारी मिलती रहे। दिल्ली में सैकड़ों गुरुद्वारे मिलेंगे, पर नाम के स्तर पर देशबंधु रोड का यही गुरुद्वारा खास है। साल 1950 में जब यह बना तब देशबंधु रोड को ओरिजनल रोड कहा जाता था।रावलपिंडी और मियांवाली भीमलकागंज मेन रोड पर एक स्कूल के बाहर लगे बोर्ड को देखकर हैरानी होती है। स्कूल का नाम है रावलपिंडी सनातन धर्म स्कूल। दिल्ली से करीब 800 किलोमीटर दूर पाकिस्तान का शहर है रावलपिंडी। वहां से आए शरणार्थियों ने इसे 1956 में स्थापित किया था। मतलब यह कि जो फटेहाल थे, वे यहां स्कूल-कॉलेज खोल रहे थे। वे समझते थे कि शिक्षा से बढ़कर जीवन में कुछ भी नहीं है। रावलपिंडी से दिल्ली यूनिवर्सिटी के आत्माराम सनातन धर्म कॉलेज (एआरएसडी) का रिश्ता वाकई बहुत आत्मीय या भावुक करने वाला है। एआरएसडी कॉलेज की नींव में रावलपिंडी की मिट्टी मिलाई गई थी। ये बातें 1960 के दशक के शुरुआत की हैं। इसे यहां पर रावलपिंडी की सनातन धर्म सभा से जुड़े लोगों ने बनाया था। सनातन धर्म सभा रावलपिंडी में 1882 में स्थापित हो गई थी जो वहां डिग्री कॉलेज, हाई स्कूल, दो मिडिल स्कूल और चार प्राइमरी स्कूल चला रही थी। बंटवारे के बाद सनातन धर्म सभा 1952 में दिल्ली में रजिस्टर की गई थी। जाहिर है, देश बंटा तो रावलपिंडी की सनातन धर्म सभा खत्म हो गई। उससे जुड़े ज्यादातर लोग दिल्ली आ गए। उनके घर, कॉलेज और सब कुछ उस शहर में रह गया जिससे उनका सैकड़ों बरसों का नाता था। वे दिल्ली आकर कुछ संभले तो उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज फिर से शुरू किया। यह पहले आनंद पर्वत की एक किराए की बिल्डिंग से चला। फिर 1963-64 में धौला कुआं में शिफ्ट हुआ था। तब धौला कुआं लगभग जंगल था। वहां तब, बड़े आकार का गोल-सा चौराहा था, जिसमें बीच की घास पर जाकर बैठा जा सकता था। रेलवे बोर्ड के आला अफसर रहे और एआरएसडी कॉलेज के पूर्व छात्र डॉ. रविन्द्र कुमार कहते हैं कि उनके कॉलेज की मैनेजमेंट में अब भी रावलपिंडी वालों का असर रहता है। इसके अलावा दिल्ली में पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब के मियांवाली, बेहड़ा, मुल्तान नगर, लाहौर वगैरह नामों पर कॉलोनियां और शोरूम हैं। हाल ही में करप्शन के आरोप सिद्ध होने पर जेल भेज दिए गए पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान मियांवाली से ही चुनाव लड़ते थे।बौद्ध शरणार्थी भी यहीं बसेआमतौर पर माना जाता रहा है कि बंटवारे के बाद सिर्फ पंजाबी शरणार्थी ही यहां अपनी जिंदगी को फिर से पटरी पर बिठाने के लिए आए थे। यह जानकारी सही नहीं है। तब या उसके कुछ साल बाद पूर्वी बंगाल ( मौजूदा बांग्लादेश) के चटगांव से सैकड़ों बौद्ध शरणार्थी दिल्ली आए। ये अपना सरनेम बरूआ लिखते हैं। कुछेक सरनेम तालुकदार और चौधरी भी हैं। ये नोएडा में भी हैं। ज्यादातर 1947 के बाद ही दिल्ली आए। जो पहले यहां पर थे वे सरकारी विभागों में नौकरी करते थे। ये लगभग सभी बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं। चटगांव से आए लोगों ने जब संत नगर में बुद्ध विहार का निर्माण शुरू किया तो यह सारा इलाका बियाबान था। लाजपत नगर और कालकाजी बसने शुरू ही हुए थे।लखनऊ में भी सिंध-पंजाबनफासत के शहर लखनऊ का आलमबाग। हमेशा गुलजार रहने वाले आलमबाग में आप ‘सिंध साड़ी हाउस’ के बोर्ड को देखकर समझ जाते हैं कि इसका रिश्ता सिंध प्रांत से होगा। लखनऊ में कई दुकानों के बाहर सिंध शब्द पढ़ने को मिलेगा। यानी सिंध जिंदा है उन लोगों की सांसों में जो वहां से आए थे। बंटवारे की वजह से अपने घरों से उजड़े तो लखनऊ ने इन्हें सम्मान सहित अपनाया। लखनऊ से जुड़े हर पढ़ने-लिखनेवाले के दिल में हजरतगंज के राम आडवाणी बुक शॉप वाले राम आडवाणी के लिए आदर का भाव है। वह बेशक लखनऊ के सबसे मशहूर सिंधी थे। उन्होंने करीब 7 दशकों तक अपनी किताबों की दुकान लखनऊ में चलाई। 2017 में 95 साल की उम्र में उनके निधन के बाद दुकान के शटर भी गिर गए, लेकिन राम आडवाणी के प्रति लखनऊ कृतज्ञता का भाव रखता है।लखनऊ के बाजारों में 50 फीसदी शोरूम पंजाबी और सिंधियों केवरिष्ठ कवि सुशील शुक्ल कहते हैं कि लखनऊ और कानपुर में 1947 के बाद लाखों शरणार्थी आए थे। जल्दी ही वे दोनों शहरों की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। सरकार ने इनके लिए चंदन नगर, आदर्श नगर, आलमबाग और लाजपत नगर में कॉलोनियां विकसित कीं। उन्होंने आलमबाग को मिनी पंजाब ही बना दिया। एक दौर में आलमबाग को लखनऊ का लाहौर भी कहा जाने लगा था। शरणार्थियों को लखनऊ में कई तरह के नए अनुभव हुए। उदाहरण के तौर पर पंजाब और सिंध से आई महिलाएं तो पर्दा करती नहीं थी। पर लखनऊ वाली महिलाएं बुर्का या साड़ी के पल्लू से सिर ढका करती थीं। हालांकि वक्त गुजरा तो दोनों ने एक-दूसरे से कुछ लिया-दिया। लखनऊ में भी शरणार्थियों ने नौकरी की तुलना में बिजनेस को प्राथमिकता दी। कहा जाता है कि आज लखनऊ के बाजारों में 50 फीसदी शोरूम पंजाबी और सिंधियों के हैं। पंजाबियों का मोहन मार्केट अमीनाबाद, सदर बाजार, गुरु नानक मार्केट, चारबाग और आलमबाग में खासा असर है। लखनऊ में फिल्मों के दीवाने हजरतगंज के मेफेयर पिक्चर हॉल को नहीं भूल सकते। इसे सिंधी ठडानी परिवार ने शुरू किया था। यहां आमतौर पर अंग्रेजी फिल्में रिलीज़ होती थीं। लखनऊ वालों ने ‘पाकीजा’ भी यहीं देखी थी। दिल्ली के उलट यहां आमतौर पर पंजाबी और सिंधी परिवारों ने अब हिंदी को ही अपना लिया है। यूपी की रणजी ट्रॉफी टीम से बरसों तक खेले अशोक बांबी का परिवार स्यालकोट से लखनऊ में आकर बसा था। वह कहते हैं कि अब हमारी नौजवान नस्ल तो हिंदी ही बोलती है। वैसे भी जुबान तो धरती की होती है न कि जाति या धर्म की। शरणार्थियों ने लखनऊ में आकर कई मंदिरों और गुरुद्वारों के निर्माण में खासा योगदान दिया। सिंधियों का हरि ओम मंदिर लाल बाग में है।मुंबई में पेशावर की निशानियांमुंबई के सांता क्रूज एरिया का गुरुद्वारा धनपोठवार। यहां सुबह-शाम संगत सबद कीर्तन सुनने के लिए आती जाती है। बेशक, यह मुंबई में भारत के विभाजन का बड़ा प्रतीक है। दरअसल सरहद पार से मायानगरी में बसे सिख शरणार्थियों ने अपने शहर के नाम पर इस गुरुद्वारे का नाम रखा था। धन पोठवार रावलपिंडी के करीब बसा एक शहर है। देश बंटा तो पेशावर के बहुत सारे हिंदू-सिख फ्रंटियर मेल पकड़कर मुंबई आ गए। इनके पास कुछ भी नहीं था। जरा सोचिए कि पेशावर की ठंडी जलवायु से ये उमस भरी मुंबई में एक उम्मीद के साथ आए थे। मुंबई ने इन्हें आगे बढ़ने के तमाम मौके दिए। इन्हें शुरू में मौजूदा गुरु तेग बहादुर नगर के पास सिओन-कोलीवाड़ा में बसाया गया। ये छोटे- छोटे झुग्गीनुमा घरों में रहने लगे। शरणार्थियों के आने से पहले कोलीवाड़ा की पहचान मछुआरों की बस्ती के रूप में थी। शुरुआती दिनों में शरणार्थी ट्रेनों में घरेलू सामान बेचने से लेकर टैक्सी ड्राइवर वगैरह का काम करने लगे थे।मुंबई और कराची का रहा है गहरा संबंधअगर बात मुंबई के शरणार्थियों की होगी तो सिंधियों को कैसे इग्नोर कर सकते हैं। मुंबई में सिंधी बंटवारे के तुरंत बाद नहीं आए थे। वजह यह थी कि सिंध दिसंबर 1947 तक शांत रहा था। पर 6 जनवरी, 1947 को कराची में हुए कत्लेआम के बाद सिंध से हिंदू मुंबई आने लगे। एक सिंधी परिवार से आने वाली लेखिका साज अग्रवाल कहती हैं कि मुंबई में करीब 10 लाख सिंधी कराची, हैदराबाद, लरकाना वगैरह से आकर बसे थे। दोनों शहरों का गहरा संबंध था। कराची और मुंबई के लोगों का बिजनेस के सिलसिले में एक-दूसरे शहरों में आना-जाना था। विभाजन के बाद कराची के हिंदुओं के पास समुद्री रास्ते से मुंबई आने का बेहतर विकल्प मौजूद था। दोनों शहरों के बीच समुद्र मार्ग से 589 नॉटिकल मील की ही दूरी है। मुंबई में इन्होंने रीयल एस्टेट, फिल्मों और शिक्षा के क्षेत्र में शानदार उपलब्धियां दर्ज करवाई। हीरानंदानी मुंबई के सबसे बड़े बिल्डरों में से एक बने। जी.पी. सिप्पी और उनके बेटे रमेश सिप्पी ने बॉलिवुड में झंडे गाड़े। जी.पी. सिप्पी ने ‘शोले’ फिल्म बनाई थी और उनके बेटे रमेश इसके डायरेक्टर थे। जी.पी. सिप्पी कराची से मुंबई पहुंचे थे अपने परिवार को लेकर। चर्चगेट पर मशहूर के. सी. कॉलेज भी एक सिंधी परिवार ने खोला। इसका पूरा नाम किशनचंद चेलाराम कॉलेज है। इसे मुंबई के बेस्ट कॉलेजों में माना जाता है। दरअसल, मुंबई समेत पूरे महाराष्ट्र में शरणार्थियों के लिए 31 कॉलोनियां विकसित की गई थीं। अगर बात मुंबई की करें तो अब भी सिओन कोलीवाड़ा, कुर्ला, चेंबूर, ठक्कर बापा कॉलोनी और मुलुंड कॉलोनी में हजारों शरणार्थी परिवार रहते हैं। बॉलिवुड को पंजाबी शरणार्थियों ने खासा समृद्ध किया। बी.आर. चोपड़ा, प्राण, आनंद बख्शी, रामानंद सागर, गुलज़ार वगैरह सब शरणार्थी ही थे। इनका रिश्ता पंजाब से था। ये मुंबई में पहुंचे और इन्होंने शानदार काम करके अपनी इबारत लिखी।