नई दिल्ली: आओ झुक कर सलाम करें उन्हें जिनके हिस्से में ये मुकाम आता है,खुशनसीब हैं वो लोग जिनका खून इस देश के काम आता है। भारत 15 अगस्त को आजादी की 76वीं सालगिरह मनाएगा। यह दिन देखने के लिए न जाने कितने भारतीयों ने इस पवित्र भूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। अंग्रेजों के खिलाफ 1857 से शुरू हुई क्रांति ने भारतीयों के अंदर वो अलख जगाई जिसका परिणाम रहा कि हमारे देश ने 15 अगस्त 1947 को आजादी का पहला स्वाद चखा। देश की आजादी में शामिल कई महान क्रांतिकारियों का जिक्र आपको किताबों, वीडियो या टीवी में किया होगा लेकिन, कुछ ऐसे भी रहे जिनका खून तो इस आजादी में शामिल रहा मगर शायद उनको इतिहास के पन्नों में वो जगह नहीं दी गई जिसके वो हकदार थे। अनसुने नायक सीरीज के चौथे एपिसोड में आज बात होगी एक ऐसे ही नायक की जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने में जरा भी गुरेज नहीं किया। इस स्वतंत्रता सेनानी को सेनापति बापट भी कहा जाता था। नाम था पांडुरंग महादेव बापट। 1921 में हुए मूलशी सत्याग्रह में इनके नेतृत्व की आज भी चर्चा होती है।बापट का जन्म और शिक्षापांडुरंग महादेव बापट या कहें सेनापति बापट का जन्म 12 नवंबर 1880 में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के परनेर शहर में हुआ था। चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे बापट एक मध्यमवर्ग से ताल्लुक रखते थे। सेनापति बापट जब बड़े हुए तो स्कूली शिक्षा के बाद उनका दाखिला पुणे के ही डक्कन कॉलेज में हुआ। वहां पहुंचते ही बापट के जीवन में बड़ा बदलाव आया। यहां उनकी मुलाकात चापेकर क्लब के सदस्य दामोदर बलवंत भिड़े और ब्रिटिश प्रोफेसर से मुलाकात हुई। कहा जाता है कि पुणे में उस वक्त तेजी से प्लेग फैला। साथ ही साथ ब्रितानी हुकूमत का अत्याचार, ब्रिटिश अधिकारी चार्ल्स रैंड की हत्या और शिव जयंती और गणेश चतुर्थी जैसे त्योहारों के राजानीतिकरण के बाद महादेव बापटका मन बदल गया। उनके अंदर राष्ट्रीयता का संचार होने लगा।सेनापति बापट की प्रतिमाजब बापट की छिन गई थी छात्रवृत्तिसाल 1904, कॉलेज से निकलने के बाद बापट छात्रवृत्ति पाकर एडिनबर्ग के हेरिऑट कॉलेज में पढ़ने इंग्लैंड चले गए। बापट जब वहां पहुंचे तो उनकी मुलाकात ब्रिटिश समाजवादियों और कई रूसी क्रांतिाकारियों से भी मिले। उन्होंने बापट को बोलशेविज्म से परिचित कराया। अचानक एक ऐसा दिन आया जब पांडुरंग महादेव बापट को अपनी छात्रवृत्ति गंवानी पड़ी। दरअसल, लंदन के इंडिया हाउस में ब्रिटिश शासन के खिलाफ दिए उत्तेजक भाषण दिया था। जो अंग्रेजों को पसंद नहीं आई। इसी वजह के चलते सेनापति बापट को 1907 को अपनी स्कॉलरशिप रोक दी गई।सामने घायल पति, अंग्रेज बरसा रहे थे गोलियां, फिर भी नहीं झुकने दिया तिरंगा, बहादुर तारा रानी श्रीवास्तव की कहानीलंदन से भारत लौटे और सावरकर से मुलाकातसेनापति बापट इसके बाद भारत लौट आए। देश वापस आते ही उनकी मुलाकात वीडी सावरकर से हुई। सावरकर ने बापट से मुलाकात के बाद पेरिस जाने का सुझाव दिया। सावरकर ने कहा कि आप रूसी सहयोगियों के साथ पेरिस जाएं। वहां उन्होंने बम बनाने की तकनीक सीखी। बम बनाने की कला सीखने के बाद सेनापति बापट वापस 1908 में भारत आए। बापट अपने साथ बम मैन्युल लेकर आए थे। इसके 4 साल बाद 1912 में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हालांकि पुलिस के बाद पर्याप्त सबूत नहीं था इस वजह से उन्हें 1915 में रिहा कर दिया गया। इसके बाद बापट परनेर शहर में ही रहने लगे।वीडी सावरकर के साथ पांडुरंग महादेव बापटऐसे शुरू हुआ मू्लशी सत्याग्रहसाल 1920 आते-आते पांडुरंग महादेव बापट महात्मा गांधी के स्वराज को अपना लिया था। बापट गांधी जी की सोच से काफी हद तक प्रभावित थे। इसके बाद बांध विरोधी आंदोलन मूलशी सत्याग्राह का नेतृत्व किया। किसानों के हक को लेकर चलाए जा रहे इस सत्याग्रह के बाद से ही इन्हें सेनापति की उपाधि दी गई थी। मूलशी सत्याग्रह का जिक्र रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब Ecology and Equity: The Use and Abuse of Nature in Contemporary India में किया है। उन्होंने लिखा कि टाटा कंपनी किसानों की जमीन में घुसकर वहां खुदाई शुरू कर दी। मूलशी जो पुणे के काफी नजदीक था, उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र भी माना जाता था। उस समय एक बांध का निर्माण होना था जिसके लिए किसानों की जमीन कुर्बान होनी थीं। बांध निर्माण को रोकने के लिए पांडुरंग महादेव बापट ने मोर्चा संभाला। अपने साथियों के साथ वह 1 साल तक इस बांध के निर्माण को रोकने में सफल रहे। इस 1 साल के बीच तत्कालीन बंबई सरकार ने एक आदेश जारी किया कि टाटा कंपनी किसानों को मुआवजा देकर बांध के लिए जमीन खरीद सकती है। इसके बाद विरोध दो हिस्सों में बंट गया। ब्राह्मण परिवार जो जमींदार थे वो अपनी जमीन देने को तैयार हो गए। इसके बदले उन्हें मुआवजा मिल गया। लेकिन बापट इस बात को लेकर कतई राजी नहीं थे।आंखों में दिखती थी आजादी की चिंगारी, खौफ खाती थी अंग्रेजी हुकूमत, स्वतंत्रता आंदोलन के वीर सपूत पीर अली खान की कहानी15 अगस्त को फहराया तिरंगाबापट का बांध विरोध चल नहीं पाया हालांकि उनके इस कदम की काफी चर्चा रही। बांध परियोजना पूरी हो गई। बापट को विरोध की सजा मिली और उन्हें 7 वर्ष जेल में काटने पड़े। 1931 में वे रिहा हुए। 3 साल बाद सेनापति बापट को दोबारा जेल हुई। उनकी गलती यह थी कि उन्होंने मुंबई में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की सभा में शामिल होने के चलते जेस जाना पड़ा। जब देश आजाद हुआ तब उन्हें 15 अगस्त के दिन पुणे में पहली बार तिरंगा फहराने का सैभाग्य प्राप्त हुआ। बापट के सम्मान में 1977 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था। 87 वर्ष की आयु में पांडुरंग महादेव बापट ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।