लेखकः राहुल पाण्डेयइसी साल फरवरी के अंत में फैजाबाद से छोटे भाई ने फोन किया कि मैं फटाफट घर आऊं क्योंकि घर के सामने ही तीन सौ स्क्वेयर फीट का एक घर बिकाऊ है। अभी दाम 7 लाख है, तुरंत न खरीदा तो और लोग भी तैयार हैं। मैं फैजाबाद पहुंचा। दस बजे जब रजिस्ट्री खुली तो पता चला कि रात में ही किसी ने मकान का दाम 9 लाख लगाते हुए बयाना दे दिया है। 2019 में राम मंदिर पर फैसला आने से लेकर अब तक शहर और आसपास की जमीनों के दाम में लगभग पांच से छह गुने की बढ़ोतरी हो चुकी है।
फैजाबाद में मेरा घर अयोध्या की सीमा पर है। यह घर हमने 1985 के आसपास लिया था, मगर इसमें मेरे परिवार ने रहना शुरू किया बमुश्किल पांच-छह साल पहले। इसकी वजह यह थी कि नब्बे के दशक के अंत तक फैजाबाद में इस ओर कोई रहना नहीं चाहता था। तब अयोध्या बेहद पिछड़ी जगह थी, जहां मंदिरों पर कब्जे को लेकर आए दिन क्राइम होते थे। वहीं फैजाबाद एक मॉडर्न शहर का नुमाइंदा था, और शहर का सारा एक्सटेंशन इलाहाबाद-सुल्तानपुर रोड की ओर ही हो रहा था।
अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का मॉडल
इलाहाबाद- सुल्तानपुर रोड पर जब हमें सस्ती जमीन नहीं मिली, तो हम अयोध्या की सीमा की ओर आए। उस वक्त हमने तकरीबन पौने दो लाख रुपये में सरकारी योजना के तहत बना मकान खरीदा। हमें अयोध्या की तरफ आता देख बड़ी मौसी की भी हिम्मत बंधी और नब्बे के दशक की शुरुआत में उन्होंने अयोध्या में मकान बनवाने के लिए करीब साढ़े तीन लाख रुपये में जमीन खरीदी। दोनों के ही मकानों का रकबा तकरीबन हजार-बारह सौ स्क्वेयर फीट है। उनको कुछ ज्यादा पैसे इसलिए देने पड़े, क्योंकि वहां से अयोध्या रेलवे स्टेशन की पैदल दूरी महज पांच मिनट है। 2016-17 में जब मेरे भाई ने रेस्तरां शुरू किया, तो उसने फैजाबाद की सिविल लाइंस चुनी, न कि अयोध्या का नया घाट या श्रृंगार हाट। इसकी वजह यह कि अयोध्या अभी तक सिर्फ आसपास के जिले के किसानों का ही तीर्थ रही है। उनकी बाइंग कपैसिटी इतनी ज्यादा कभी नहीं रही कि अयोध्या में बड़े कारोबार का कोई रिस्क ले।
2019 में राम मंदिर पर फैसले के बाद यहां प्रॉपर्टी बूम आया। दिल्ली में मेरे संगी-साथी कहें कि मुझे नौकरी छोड़कर वहां प्रॉपर्टी डीलिंग जैसा कोई काम करना चाहिए। उनकी बातों पर मैं हंसकर कहता कि वहां प्रॉपर्टी डीलिंग के अलावा और कोई काम धंधा नहीं है जिससे पूरे जीवन के बारे में स्थायी फैसला लिया जा सके। फिर राम को लेकर सनातन धर्म में ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं है। अयोध्या में धर्मशाला चलाने वाले मेरे मित्र बताते हैं कि सनातन धर्म में अयोध्या की एक ही अनिवार्यता है, वह यह कि जब इलाहाबाद में कुंभ लगे, तो कुंभ स्नान के बाद एक बार सरयू स्नान भी करना होता है।
शहर के कई प्रॉपर्टी डीलरों से इस बारे में बात की तो पता चला कि 2019 में फैसला आने से पहले अयोध्या के आसपास पांच किलोमीटर तक की रेंज में जमीन का दाम औसतन 500 तो शहर के अंदर 900 रुपये स्क्वेयर फीट था। फैसले के बाद उसी रेंज में यह दाम तकरीबन 2000 रुपये तो शहर के अंदर 2500 से 3000 रुपये पहुंचा। 2020 में भी तकरीबन यही रेट बने रहे। बीते साल जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में मंदिर की नींव रखने आए थे, तब शहर में जिस चीज का हल्ला था, वह थी दर्शन नगर में करोड़ों में बिकी चार बिस्वे की जमीन। इससे पहले यहां का एक बिस्वा दस लाख में भी नहीं पूछा जाता था।
जब अयोध्या-फैजाबाद में जमीनें नहीं बचीं, तो लोगों ने सरयू के उस पार के गांवों में जमीन खरीदनी शुरू कर दीं। शहर का तो हाल यह है कि चाय या पान की दुकानों पर भी पिछले दो साल से बहस का यही हॉट टॉपिक है कि शहर में किस कोने में जमीन बची है और किस दाम में मिल रही है। लेकिन इसकी भी एक हद है क्योंकि धान-गेहूं की तरह जमीन खेतों में उगाई नहीं जा सकती। शहर तो फैलता जा रहा है, मगर काम-धंधे की कोई गंभीर कवायद अब तक शुरू नहीं हुई है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं