नई दिल्ली: अब से कुछ दिन बाद दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में ब्रिक्स समिट होने वाली है। इस बार समिट को लेकर डिप्लोमेसी की दुनिया में खासी गहमागहमी है। यूक्रेन के बाद दुनिया का वर्ल्ड ऑर्डर तेजी के साथ बदल रहा है। इस नए बदलाव के बीच ब्रिक्स सरीखे प्लैटफॉर्म का बढ़ता कद कुछ वक्त से शिद्दत से महसूस किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार मानते हैं कि आने वाले समय में ब्रिक्स एक अहम डिप्लोमैटिक और इकनॉमिक ब्लॉक बनने वाला है। इस बात में सच्चाई भी लगती है क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता फिलहाल पांच देशों के इस समूह को जॉइन करने के लिए दुनिया के 40 से ज्यादा देश रुचि न दिखाते। उनमें से 22 देशों ने सदस्यता के लिए अप्लाई भी कर दिया है। अर्जेंटीना, सऊदी अरब, UAE और ईरान उन देशों में से हैं, जो ग्रुप में एंट्री चाहते हैं।विस्तार को लेकर गंभीर मंथनये ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब ब्रिक्स को पश्चिम देशों के चश्मे से एक ऐसे समूह की तरह देखा जाता था, जो G20 के बरक्स वर्ल्ड ऑर्डर के गैप को सांकेतिक रूप से भरने के लिए सामने आया था। हाल के वर्षों में दुनिया के जियो-पॉलिटिकल हालात तेजी से बदले हैं। ग्लोबल साउथ के देशों की धमक अंतरराष्ट्रीय पॉलिटिक्स में तेजी से बढ़ी है। ऐसे में ब्रिक्स का विस्तार एक ऐसा मसला है, जो इस बार समिट के अजेंडे की लिस्ट में शायद पहले नंबर पर हो।इस मसले पर भारत का एकदम साफ रुख है। भारत ने कई बार कहा है कि समूह के विस्तार को लेकर उसे ऐतराज नहीं है। हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में MEA के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने बताया भी था कि नए सदस्यों की एंट्री को लेकर क्राइटेरिया जैसे मसलों पर सदस्य देशों के बीच मंथन चल रहा है और भारत इस विस्तार को सकारात्मक तरीके से देखता है। हालांकि सच ये भी है कि इसे लेकर भारत की कुछ अपनी चिंताएं हैं। यूक्रेन युद्ध के बाद बदले हालात में रूस और चीन अब एकसमान हैसियत रखने वाले देश नहीं हैं।पश्चिम विरोधी प्लैटफॉर्म न बन जाएपश्चिम में अलग थलग पड़ने के बाद रूस का दबदबा चीन के सामने फीका पड़ा है। ऐसे में ब्रिक्स के एक ध्रुवीय या चीनी प्रभुत्व के तले होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, दुनिया की डिप्लोमैसी में भारत अगर एक अहम मुकाम पर है तो इसके पीछे वजह एक गुटनिरपेक्षता वाली डिप्लोमैटिक दूरी भी है। ऐसे में भारत नहीं चाहेगा कि इस मंच का इस्तेमाल पश्चिम विरोधी प्लैटफॉर्म की तरह किया जाए।साफ है कि नए सदस्यों की एंट्री ऐसा मसला है जिसे लेकर सदस्य देशों के बीच खासा विमर्श देखने को मिल सकता है। इस बात को रूस भी महसूस करता है। शुक्रवार को ही भारत में रूसी डिप्लोमैट रोमन बाबुश्किन ने कहा भी कि कि मौजूदा जियो पॉलिटिकल हालात में ब्रिक्स किसी के भी विरोध में नहीं खड़ा है।साझा करंसी कैसे आएंगे साथ?‘डी-डॉलरीकरण’ का भी मुद्दा है। ग्रुप के भीतर आपस में ब्रिक्स करंसी के जरिए कारोबार की भी चर्चा चल रही है। माना जा रहा है कि इस मसले पर भारत अपने स्टैंड पर अकेला है। जुलाई में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने साफ कह दिया था कि ब्रिक्स की नई करंसी को लेकर कोई योजना नहीं है और भारत का फोकस रुपये को मजबूत करने पर है। हालांकि, जिस वक्त जयशंकर ये कह रहे थे, उसी दौरान केन्या में रूसी दूतावास के एक बयान ने करंसी को लेकर ग्रुप की गंभीरता की भी झलक दे दी।एंबेसी के आधिकारिक बयान में कहा गया कि ब्रिक्स देश जो करंसी शुरू करने वाले हैं वह ‘गोल्ड बैक्ड’ होगी। फिलहाल इस मसले पर ब्रिक्स देश किस नतीजे पर पहुंचते हैं, इसे लेकर इंतजार करना होगा। ये देखने वाली बात होगी कि क्या इस समिट में नई करंसी शुरू करने का ऐलान होता है और अगर ऐसा होता है तो ये करंसी किस फॉर्मेट में होगी। उसके बाद सदस्य देशों की अपनी करंसी की भूमिका कैसी होगी? अगर ब्रिक्स देश इसे लेकर किसी नतीजे पर पहुंच जाते हैं, तो ये कदम ना सिर्फ वर्ल्ड जियो पॉलिटिकल ऑर्डर बल्कि इकनॉमिक ऑर्डर को बदलने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।