आदित्य रामनाथन
अमेरिका में चीन के स्पाई बलून को लेकर दोनों देशों के रिश्तों में खटास और बढ़ गई है। 4 फरवरी को अमेरिका ने अपने लड़ाकू विमान F-22 से चीन के जासूसी गुब्बारे को मार गिराया। चीन के जासूसी गुब्बारे यानी चीनी एयरशिप की जानकारी 3 फरवरी को सामने आई थी। चीन ने कहा कि यह गुब्बारा मौसम से जुड़ी जानकारी जुटाने के लिए छोड़ा गया था। चीन के इस गुब्बारे में कुछ अनयूजुअल चीजें थीं। गुब्बारे की दिशा और इसे रफ्तार देने के लिए इसमें एक मोटर और प्रोपेलर लगा था, एक बड़ा पेलोड भी था। चीन का गुब्बारा साइंटिफिक रिसर्च के काम आ रहा था या जासूसी में इस्तेमाल हो रहा था, यह तय करना मुश्किल हो सकता है।
बलून का इस्तेमाल क्यों
अमेरिका जिन चीजों को ‘अनआइडेंटिफाइड एरियल फिनॉमेना’ यानी UAP कहता है, उसका ताल्लुक हो सकता है कि चीनी एयरशिप से भी हो। अक्सर सेंसर के ठीक से काम नहीं करने या ऑप्टिकल इल्यूजन के कारण भी कई चीजों को UAP करार दिया जाता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि ऐसे UAP के दायरे में कई एयरशिप भी हों।
पेंटागन की एक हालिया रिपोर्ट में साल 2022 में बलून या बलून जैसी 163 चीजें अमेरिका में दिखने की बात की गई है। साल 2020 में इसी तरह का एयरशिप उत्तरी जापान में देखा गया था। साल 2022 में पोर्ट ब्लेयर के पास इसी तरह का एयरशिप दिखा था। भारत का यह इलाका सामरिक रूप से बेहद अहम है।
जासूसी गुब्बारे कुछ ऐसे काम कर सकते हैं, जो स्पाई सैटलाइट नहीं कर सकते। सैटलाइट अपनी ऑर्बिट में चक्कर काटते हैं। ऑर्बिट का पहले से अनुमान लगाया जा चुका होता है।
विकसित देशों के पास कई दशकों से यह क्षमता है कि वे अपने सैटलाइट की अधिकतर गतिविधियां छिपा सकते हैं। सैटलाइट को इधर-उधर मूव कराया जा सकता है, लेकिन इसमें बहुत फ्यूल खर्च होगा। यह ईंधन बहुत कीमती होता है। इसे ज्यादा अहम जरूरतों के लिए बचाया जाता है।
दूसरी ओर, जासूसी गुब्बारे या एयरशिप को दूसरे देश के आसमान में उड़ाना रिस्की तो होता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय जल सीमा में इन्हें आसानी से मूव कराया जा सकता है। इसमें कोई बड़ी बाधा नहीं आती।
एयरशिप या जासूसी गुब्बारे किसी भी सैटलाइट या एयरक्राफ्ट के मुकाबले सस्ते होते हैं। इन्हें बहुत ऊंचाई पर उड़ाया जा सकता है। इस तरह ये एयर टु एयर और सर्फेस टु सर्फेस मार करने वाली मिसाइलों की रेंज से बाहर निकल सकते हैं। जासूसी गुब्बारे किसी भी इलाके पर बहुत देर तक उड़ान भर सकते हैं।
लिहाजा विरोधी देश की नौसेना की हरकतों पर नजर रखने में ये काफी कारगर साबित होते हैं। जासूसी गुब्बारे या एयरशिप में स्टेल्थ टेक्नॉलजी का इस्तेमाल करने पर इन्हें पहचान पाना मुश्किल हो जाता है।
भारत क्या करे
भारत की बात करें तो सीमा पर बेहतर तरीके से निगरानी करने में एयरशिप या जासूसी गुब्बारे बहुत उपयोगी हैं।
भारत की थल और जल सीमा पर ये एयरशिप तस्करों की हरकतों पर नजर रख सकते हैं। साथ ही, ये मुश्किल में फंस जाने वाली फिशिंग बोट्स को तलाशने में मददगार होंगे।
समुद्री निगरानी में एयरशिप का अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। इनके जरिए शांति काल में जहाजों की आवाजाही पर नजर रखी जा सकती है। वहीं, तनाव के हालात में भी इनके चलते युद्ध भड़कने का खतरा कम ही रहता है।
साल 2019 और 2020 में इंडोनेशिया के मछुआरों ने अपने देश की समुद्री सीमा में चीन के दो सी विंग अनक्रूड अंडरवॉटर वीइकल्स यानी UUV को पकड़ा था। ये चीन के सर्वे शिप्स ने छोड़े थे।
समुद्र के भीतर करीब दो महीने समय बिताने के बाद इन UUV को आमतौर पर वापस कलेक्ट कर लिया जाता है। ऐसा ही एक सर्वे शिप अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के आसपास साल 2019 में दिखा था। वह भारत के एक्सक्लूसिव इकनॉमिक जोन में चला आया थाा। उसे तुरंत वहां से निकलने का आदेश दिया गया था।
दोहरे इस्तेमाल का खतरा
हो सकता है कि ऐसे उपकरणों से साइंटिफिक रिसर्च ही की जाए, लेकिन इनका दोहरा इस्तेमाल भी हो सकता है। चीन समुद्र में अपनी क्षमता बढ़ाने पर काम कर रहा है। वह एंटी-सबमरीन क्षमता बढ़ाना चाहता है। इसमें समुद्र की सतह, समुद्र के विभिन्न हिस्सों के पानी में नमक की मात्रा और समुद्र के तापमान आदि की जानकारी बेहद काम की होती है।
ऐसा भी नहीं है कि इस तरह के दोहरे इस्तेमाल वाले UUV का सहारा केवल चीन लेता है। साल 2016 में चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने फिलीपींस के पास एक अमेरिकी UUV को पकड़ा था। हालांकि अमेरिका ने जब विरोध जताया तो चीन ने उसका UUV उसे लौटा दिया। भारतीय नौसेना भी छह सर्वे शिप का इस्तेमाल करती है। ऐसे चार और जहाज नौसेना को जल्द मिलने वाले हैं। ये शिप रिमोटली ऑपरेटेड और ऑटोनॉमस, दोनों तरह के UUV का उपयोग कर सकते हैं। हालांकि अभी इनके बारे में ज्यादा जानकारी सामने नहीं आई है।
स्पेशल जैमर की जरूरत
जासूसी के दूसरे उपकरणों के चलते भारत के लिए नई चुनौतियां खड़ी होती रहेंगी। सरकारें और आतंकवादी, दोनों ही सस्ते कमर्शल ड्रोन और जासूसी गुब्बारों का सहारा ले सकते हैं। इसे देखते हुए भारत को स्पेशल जैमर डिवेलप करने होंगे। इसके साथ ही सस्ते ड्रोन को मार गिराने का ऐसा तरीका भी निकालना होगा, जिसमें ज्यादा खर्च न आए। हाई एंड एयर टु एयर मिसाइलों का इस्तेमाल महंगा पड़ता है। अंतरिक्ष में भी जासूसी की तमाम हरकतें हो सकती हैं। चीन के पास रांदेवू एंड प्रॉक्सिमिटी ऑपरेशंस (RPO) सैटलाइट हैं। ये दूसरे सैटलाइट के काफी करीब पहुंच सकते हैं। RPO का उपयोग रिपेयरिंग और रीफ्यूलिंग जैसे कामों में होता है, लेकिन इनका इस्तेमाल दूसरे स्पेसशिप या सैटलाइट से मिलने वाली जानकारी को बीच में ही इंटरसेप्ट करने या सैटलाइट को नुकसान पहुंचाने में भी हो सकता है। RPO से निपटने के लिए भारत को अंतरिक्ष में अपनी क्षमता बढ़ानी होगी। भारत को ऐसे तमाम जासूसी उपकरणों के इस्तेमाल में महारत हासिल करनी होगी ताकि विरोधियों को करारा जवाब दिया जा सके।
(लेखक तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में रिसर्च फेलो हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं