Election Commissioner Appointment Bill In Rajya Sabha

उमेश चतुर्वेदी

यह पहला मौका नहीं है, जब चुनाव आयोग (EC) को लेकर सवाल उठ रहे हैं। इस बार विवाद की वजह बना है राज्यसभा में सरकार की ओर से पेश किया गया वह बिल, जिसके पारित होने के बाद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका नहीं रह जाएगी। पंजाब कैडर के एक अधिकारी को रिटायर होने से महज छह घंटे पहले चुनाव आयुक्त बनाए जाने पर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली गई थी। उसी याचिका पर पिछले मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति करे, जिसके दो अन्य सदस्य नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन कोर्ट ने फैसला देते वक्त यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यह व्यवस्था संसद द्वारा इस संदर्भ में कानून बनाए जाने तक के लिए ही है। सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति वाला विधेयक इसी फैसले के बाद लेकर आई है। मगर विरोधी पार्टियां इसके विरोध में मुखर हैं।
कठपुतली न बन जाए
विधेयक पर उठने वाले सवालों पर एक नजर डालना जरूरी है।

कांग्रेस का आरोप है कि इस बिल के पास होने के बाद चुनाव आयोग प्रधानमंत्री के हाथों की कठपुतली बन जाएगा।
वह इस सिलसिले में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी की एक चिट्ठी लेकर आई है, जिसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कलीजियम बनाने का सुझाव दिया गया था।
कलीजियम में प्रधानमंत्री, संसद के दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष, कानून मंत्री और मुख्य न्यायाधीश को शामिल करने की मांग की थी।
आडवाणी ने यह चिट्ठी साल 2012 में प्रधानमंत्री को लिखी थी।

विधेयक के प्रावधानों पर भी एक नजर डाल लेना ठीक रहेगा।

विधेयक के मुताबिक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करने वाली समिति के मुखिया प्रधानमंत्री होंगे।
समिति के दो सदस्य होंगे, जिनमें एक कैबिनेट मंत्री होगा और दूसरा नेता प्रतिपक्ष।
यह समिति कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली समिति के सुझाए नामों पर विचार करेगी।
कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय समिति होगी, जो पांच नाम सुझाएगी। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति इनमें से मुख्य चुनाव आयुक्त या आयुक्तों के नाम का चयन करेगी।
खास बात यह कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति चाहे तो सुझाए गए नामों की सूची से बाहर के भी किसी व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त या आयुक्त नियुक्त कर सकती है।
मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्तों के लिए अब सचिव स्तर से नीचे के अधिकारियों के नाम पर विचार नहीं होगा।

कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की चिंता यह है कि समिति बनने के बाद भी उसमें प्रधानमंत्री की ही चलेगी क्योंकि कैबिनेट मंत्री तो उनका ही होगा और वह शायद ही प्रधानमंत्री की मंशा का विरोध कर पाए।
लेकिन कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी, उनकी चिंता की बड़ी वजह यह लगती है कि अभी पीएम पद बीजेपी के पास है। हालांकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारें बदलती रहती हैं। अगर भविष्य में कांग्रेस की सत्ता आएगी तो क्या इस पर उस सरकार का रुख अलग होगा? अतीत के अनुभव पर गौर करें तो इसके कोई आसार नहीं दिखते। पहले तो चुनाव आयोग ‘सरकार का कारिंदा’ माना जाता था। चुनाव आयोग को एक ताकतवर संस्थान की पहचान टीएन शेषन ने दी थी। ध्यान रहे, 1990 में तत्कालीन कानून मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने तब के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को शेषन के नाम का सुझाव दिया, तो उनकी टिप्पणी बहुत अच्छी नहीं थी। शेषन राजीव सरकार के चहेते अधिकारी और कैबिनेट सचिव थे। शेषन को राजीव गांधी के ही सुझाव पर मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया।
तथ्य यही है कि अपने-अपने दौर में सभी पार्टियों ने चुनाव आयोग पर लगाम लगाने की कोशिश की है। अपने-अपने दौर में उन्होंने अपने हिसाब से चुनाव आयोग पर सवाल उठाए ही हैं।

बतौर चुनाव आयुक्त शेषन ने धनबाद के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर को पक्षपात के आरोप में हटा दिया था, तो जनता दल ने काफी हंगामा मचाया था।
साल 1996 में कांग्रेस के समर्थन से बनी देवेगौड़ा सरकार ने शेषन के रिटायर होते ही एमएस गिल को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया। गिल जब 13 जून 2001 को रिटायर हुए तो कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा पहुंचा दिया।
गिल दो-दो बार राज्यसभा के सदस्य ही नहीं बनाए गए, मनमोहन सरकार में वह खेल मंत्री भी रहे।

शेषन के पहले तक तो सरकार जिसे चाहती, उसे मुख्य चुनाव आयुक्त बनाती रही। चुनाव आयोग सरकारी घोड़ा ही माना जाता था। शेषन पहले चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने घोड़ा बनने से इनकार कर दिया। हालांकि कांग्रेस ने उनका नाम अपना चहेता होने के ही चलते बढ़ाया था।
गौर करने की बात यह है कि चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल सिर्फ अपने देश में नहीं उठे हैं। दुनिया का सबसे ताकतवर लोकतंत्र माने जाने वाले अमेरिका में भी चुनाव आयोग पर सवाल उठ चुके हैं। पिछले चुनाव के दौरान वहां का चुनाव आयोग घेरे में रहा।
हाल के कुछ वर्षों में भारत में चुनाव आयोग को EVM में हेराफेरी करने वाले के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। यह बात और है कि इसी EVM के सहारे विपक्षी दलों की राज्यों में जीत होती है। फिर भी, लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में बेहतर होगा कि चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी बनी रहे, चुनाव आयोग पर कम से कम पूर्वाग्रह के चलते सवाल ना उठें और सवाल उठाने वाले अपने अतीत की ओर भी देखें। लेकिन क्या हमारा राजनीतिक तंत्र इस तरह से सोचने को तैयार है?
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं