Election Commissioners Appointment Bill,OPINION: कांग्रेस के हिस्से वाला स्याह पोत रही मोदी सरकार – why modi government wants cji out from appointing election commission members

​टीएन शेषन का दिल टूटेगादरअसल सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जताई कि नौकरशाह अरुण गोयल वीआरएस लेते हैं और महज कुछ ही घंटों में कैसे देश के मुख्य चुनाव आयुक्त बन जाते हैं। जब संविधान पीठ ने ये फैसला सुनाया तो चाबुक भी चलाया। किस पर चलाया ये कोर्ट की टिप्पणी से तय कर लीजिए – लोकतंत्र, कानून का शासन समेत संविधान के मुख्य मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अब छह महीने से कम समय में ही मोदी सरकार ने लानत मलानत को भुलाने का मन बना लिया है। इस विधेयक के जरिए जो ताकत और ओहदा संविधान के अनुच्छेद 324 से चुनाव आयुक्तों को मिला था, उस पर भी प्रहार हुआ है। मुख्य चुनाव आयुक्त का ओहदा पहले सुप्रीम कोर्ट जज के समान होता था। इस विधेयक के मुताबिक वो कैबिनेट सेक्रेटरी के बराबर रह जाएंगे। ये हैरान करने वाला है क्योंकि अगर मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाना हो तो सरकार को संसद में महाभियोग प्रस्ताव पारित करने का प्रावधान है। महात्मा गांधी जिस त्रिस्तरीय पंचायती राज को सुराज की पहली सीढ़ी मानते थे उस संस्था को मोदी सरकार अगर अपने हिसाब से चलाना चाहती है तो सवाल तो उठेंगे। टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त और केजे राव जैसे चुनाव अधिकारियों ने देश की जनता में निष्पक्ष चुनाव का जो भरोसा पैदा किया, उसे तोड़ देने वाला है ये विधेयक।​टकराव से देश का नुकसानऔर मोदी के भाषण के उस हिस्से से साफ पता चलता है कि सरकार और अदालत के बीच क्या चल रहा है? कौन ज्यादा दोषी है इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता। लेकिन एक उदाहण देता हूं। मोदी सरकार ने 2015 में नेशनल जूडिशियल अपॉइंटमेंट कमिशन एक्ट पास किया था। कलीजियम सिस्टम को बेकार बतात हुए तय किया गया कि जजों की नियुक्ति छह लोगों की कमेटी करेगी। आयोग में चीफ जस्टिस, दो सीनियर जज, कानून मंत्री और दो समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल होते। इन दो सदस्यों को चीफ जस्टिस, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता चुनते। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक ठहराते हुए रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट को लगा कि इससे अदालत की आजादी छिन जाएगी। मैं किसी के फेवर में जाना नहीं चाहता। पर, ये समझना जरूरी है कि संवैधानिक संस्थाओं की आजादी हर हाल में सुनिश्चित हो। इस लिहाज से कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की लक्षमण रेखा तय है। लेकिन चुनाव आयोग को कार्यपालिका के दायरे में रखकर उसके निष्पक्ष स्वरूप को खत्म करना ठीक संकेत नहीं है। देश की 140 करोड़ जनता इसी के भरोसे वोट डालने जाती है। दो बड़ी संस्थाएं टकराएंगी तो नुकसान देश का होगा। दिल्ली में नौकरशाहों के ऊपर नियंत्रण वाले सुप्रीम फैसले के साथ भी यही हुआ। इसे अध्यादेश के जरिए पलट दिय गया और अब संसद में नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ डेल्ही संशोधन विधेयक पेश किया गया है।​किसका चेहरा ज्यादा कालाये बात भी सही है कि इतिहास की तह में जाने पर कांग्रेस का चेहरा ज्यादा काला नजर आएगा। शाहबानो फैसला याद होगा। मुस्लिम वोट के लिए राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम वूमन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डायवोर्स) एक्ट बनाकर सुप्रीम फैसले को ही बौना साबित कर दिया। इंदिरा गांधी ने तो मन मुताबिक संविधान बदलने के लिए 42वां संशोधन ले आईं जिसे 44वें से पलट दिया गया। इंदिरा ने जजों की वरीयता को ताखे पर रख दो-दो बार चीफ जस्टिस की नियुक्ति की। लेकिन कांग्रेस के हिस्से की गलतियों को मोदी सरकार क्यों अपनाना चाहती है। एक के बाद एक गलतियां। ईडी के डायरेक्टर एसके मिश्रा के एक्सटेंशन को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध ठहराया लेकिन सरकार रिव्यू पिटीशन के साथ दोबारा अदालत की दहलीज पर पहुंच गई। राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला दिया और एक्सटेंशन ले लिया।दिनेश गोस्वामी कमिटी रिपोर्टलेकिन चुनाव आयोग की आजादी और इसमें आयुक्तों कि नियुक्ति को संदेह से परे बनाए रखने के प्रयास बहुत पुराने हैं। जिसे बार-बार भुला दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी अरुण गोयल मामले की सुनवाई के दौरान दिनेश गोस्वामी कमेटी का जिक्र किया था। चुनाव सुधारों पर ये कमेटी 1990 में बनी थी। कमिटी ने आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो आयुक्त रखने की अनुशंसा की। नियुक्ति प्रक्रिया की सिफारिश इस तरह थी..1. मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति चीफ जस्टिस और लोकसभा में विपक्ष के नेता से सलाह मशविरा करने के बाद राष्ट्रपति करेंगे।2. सलाह मशविरे की प्रक्रिया को संवैधानिक ढांचे में रखा जाए3. दो अन्य आयुक्तों की नियुक्ति चीफ जस्टिस, विपक्ष के नेता और मुख्य चुनाव आयुक्त की सलाह लेकर राष्ट्रपति करेंगे।4. चुनाव आयोग से हटने के बाद कोई भी आयुक्त किसी सरकारी सिस्टम का हिस्सा नहीं होंगे न ही राज्यपाल नियुक्त किए जा सकेंगे।गोस्वामी कमिटी की सिफारिशों के आधार पर 1990 में 70वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में पास नहीं हो सका और 1993 में इसे वापस ले लिया गया। इस बीच1991 वाले इलेक्शन कमिशन एक्ट के तहत तीन सदस्यों वाला चुनाव आयोग तो बन गया लेकिन रिटायरमेंट बाद सरकारी या संवैधानिक पदों पर नियुक्ति से मनाही या नियुक्ति प्रक्रिया में विपक्ष के नेता या चीफ जस्टिस को शामिल करने के प्रस्ताव को ताखे पर रख दिया गया।अब संविधान की ओर देखते हैं। इसके अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग के बारे में विस्तार से जिक्र है।संविधान का अनुच्छेद 3241.चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्त होंगे जिनकी संख्या समय समय पर तय की जाएगी2.मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्तियां राष्ट्रपति करेंगे।3.जब कोई आयुक्त को ही मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया जाए तो वो इलेक्शन कमिशन के चेयरमैन की तरह काम करेगा4.चुनाव आयोग की सलाह से राष्ट्रपति रीजनल कमिश्नर्स की नियुक्ति भी कर सकते हैं5.चुनाव आयुक्तों की सेवा शर्तें और टेन्योर राष्ट्रपति तय करेंगे।दूसरे पॉइंट में सरकारों की जिद का राज छिपा है। संविधान के अनुच्छेद 74 के मुताबिक राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से ही काम करते हैं। लगता है मोदी सरकार ने भी इसी को हथियार बना लिया है। अरुण गोयल के मामले में भी यही दलील थी कि कैबिनेट ने उनका नाम राष्ट्रपति के पास भेजा था इसलिए प्रक्रिया बिल्कुल सही है। लेकिन इतना बड़ा फैसला किसी एक पॉइंट की आड़ में नहीं बल्कि समग्रता में होनी चाहिए। इस दलील के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति करते हैं तो इसका ये मतलब नहीं इनकी नियुक्ति कैबिनेट करने लगे।