लेखिकाः सीमा सिरोहीजो बाइडन इस हफ्ते राष्ट्रपति अशरफ गनी और नैशनल रीकन्सिलिएशन के चेयरमैन अब्दुल्ला अब्दुल्ला से मिलेंगे ताकि अफगानिस्तान सरकार को ढाढ़स बंधाया जा सके, जो पूरे देश में तालिबान की हिंसा और उसके बढ़ते प्रभाव को लेकर परेशान है। गनी और अब्दुल्ला वाइट हाउस में ‘एक साथ’ दिखेंगे भी, क्योंकि बाइडन सरकार दुनिया के सामने ‘अफगान एकता’ की मिसाल पेश करना चाहती है।
पेंटागन पर नजरेंअफगानिस्तान का एक सच यह भी है कि वहां के कई नेता तालिबान से ज्यादा गनी को नापसंद करते हैं। इसलिए वाइट हाउस में मीटिंग के लिए गनी के अकेले आने का प्रस्ताव नहीं माना गया। अफगान प्रतिनिधिमंडल में तीन महिलाएं भी होंगी। उनके जरिये यह संदेश दिया जाना है कि महिलाओं और लड़कियों के अधिकार भी अमेरिका के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। अफगानी नेताओं से बाइडन की यह मीटिंग शुक्रवार को होगी।
अब जबकि अमेरिका की सेना अफगानिस्तान से लौट रही है, और तालिबान शांति समझौते को ठेंगा दिखा रहा है तो बाइडन के लिए अफगानिस्तान सरकार के साथ खड़े दिखना जरूरी है। उधर, पाकिस्तान ने भी पैंतरेबाजी शुरू कर दी है। वह यह फैसला नहीं कर पा रहा है कि ओसामा बिन लादेन आतंकवादी था या शहीद। इन सबके बीच वह अमेरिका से सौदेबाजी में भी जुटा हुआ है और अपने लिए सबसे बेहतर डील हासिल करने की कोशिश में है।
अफगानिस्तान के कुंदज में गश्त पर निकला एक अफगान सैनिकों का एक दल (फाइल फोटो)
इस बार अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी तय है। इसमें रत्ती भर भी शक नहीं। इससे दुनिया में कई देश चिंतित हैं, यहां तक कि चीन भी। असल में, तालिबान के रूप में उसके पड़ोस में अब एक इस्लामी अमीरात आने जा रहा है। अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान में रहने से वहां के आतंकवादी संगठनों पर लगाम लगी हुई थी, जिससे चीन को भी फायदा हुआ। उनकी वापसी को लेकर जो घबराहट है, उसी को दूर करने के लिए गनी और बाइडन की मुलाकात हो रही है। इसके जरिये यह संदेश दिया जाएगा कि भले ही अमेरिकी सैनिक लौट रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाइडन सरकार अफगानिस्तान को भुला देगी। वैसे, प्रैक्टिकल टर्म में इसका क्या मतलब है, यह स्पष्ट नहीं है। हां, अमेरिकी सरकार और कांग्रेस फिलहाल अफगान सेना को वित्तीय मदद जारी रखने के लिए मान गई हैं। यह भी बेवजह नहीं है। अमेरिका भूला नहीं है कि 1992 में सोवियत सेना के जाने के बाद नजीबुल्ला सरकार किस तरह से ढह गई थी। अमेरिका वैसी गलती दोहराना नहीं चाहता।
गनी और अब्दुल्ला के एक साथ वाइट हाउस में आने से पॉजिटिव मेसेज तो जाएगा ही, इससे अफगानिस्तान सरकार को मामूली ही सही, मनोवैज्ञानिक बढ़त भी मिलेगी। गनी सरकार को असल खुशी तब होगी, जब पेंटागन अमेरिकी सैनिकों के लौटने के बाद भी अफगान सेना को हवाई मदद देने का कोई रास्ता ढूंढ निकाले। पेंटागन के अधिकारी अभी पास के एयर बेसों से अमेरिकी लड़ाकू विमानों और हथियारबंद ड्रोन को इस काम में लगाने के खर्च का अंदाजा लगा रहे हैं। वे इस पर भी सोच-विचार कर रहे हैं कि किस सूरत में अमेरिका वहां हवाई हमला करेगा। क्या काबुल या कांधार पर तालिबानियों का कब्जा होने को हो, तब ऐसे हवाई हमले किए जाएं?
यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि अफगान सेना पस्त पड़ी हुई है। अमेरिका से उसे जो ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर मिले थे, वे भी उसके लिए बोझ साबित हुए हैं। पेंटागन के इंस्पेक्टर जनरल सहित सबने यह बात मानी है कि रूस में बने Mi-17 हेलिकॉप्टरों को हटाना गलत फैसला था, जो ब्लैकहॉक से बेहतर विकल्प थे। उनका रखरखाव आसान था और वे ब्लैकहॉक की तुलना में दोगुना बोझ ढो सकते थे। इससे भी बड़ी बात यह है कि अफगानी इंजीनियर Mi-17 की मरम्मत खुद ही कर लेते थे क्योंकि 70 के दशक से वे यह काम करते आए थे।
पेंटागन को यह बात पता थी। इसलिए 2009-2013 के बीच उसने अफगानियों के लिए 60 रूसी हेलिकॉप्टर खरीदे थे। इसके बाद कांग्रेस के दखल के कारण अमेरिकी इक्विपमेंट की खरीद अनिवार्य हो गई। लेकिन अमेरिकी हेलिकॉप्टर की मरम्मत अफगानी इंजीनियर नहीं कर पाते। इसके लिए वे हजारों प्राइवेट कॉन्ट्रैक्टर्स पर निर्भर थे, जो देश छोड़कर जा चुके हैं या जाने वाले हैं।
अफगानिस्तान में जमीनी हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं। तालिबान वहां सूबों की राजधानी की ओर बढ़ रहा है। बाइडन के अप्रैल में 11 सितंबर तक अमेरिकी सेना वापस बुलाए जाने के ऐलान के बाद तालिबानों के हमले तेज और क्रूर हुए हैं। कुल 407 जिलों में से 122 पर तालिबान का कब्जा हो चुका है। तालिबान का देश के हर हिस्से में प्रभाव बढ़ रहा है। कहीं-कहीं अफगानी सेना भीषण लड़ाई के बाद जमीन छोड़ रही है तो कहीं स्थानीय ट्राइबल लीडरों की मध्यस्थता के बाद सुरक्षा बल तालिबान के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं। इसके साथ तालिबान विद्रोही चुन-चुन कर पत्रकारों, खासतौर पर महिलाओं की हत्या कर रहे हैं।
बदमाश पड़ोसीइन सबके बीच पाकिस्तान से वैसी ही प्रतिक्रिया आई है, जिसकी उम्मीद थी। वहां के विदेश मंत्री ने कहा है कि अगर गनी ‘लचीला’ रुख अपनाएं तो पड़ोसी देश में शांति बहाल हो सकती है। ‘लचीला’ रुख यानी गनी इस्तीफा दे दें। साथ ही, उनका यह भी कहना है कि अफगानों को पाकिस्तानियों पर इल्जाम लगाना छोड़कर अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने दावा किया कि पिछले 20 वर्षों में उनके देश ने न तालिबानों को पनाह दी है और ना ही उन्हें हथियार दिए हैं। महमूद कुरैशी ने पिछले हफ्ते टोलो चैनल को दिए एक इंटरव्यू में यह हास्यास्पद दावा किया। यह इंटरव्यू ऐसी ही बातों के लिए अब बदनाम हो चुका है।
कहते हैं, कोई देश अपने भूगोल को नहीं बदल सकता। इसलिए यह अफगानिस्तान की बदकिस्मती है कि उसे पाकिस्तान जैसा पड़ोसी मिला और जिसने उसके खिलाफ एक छद्म युद्ध छेड़ रखा है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं