नई दिल्ली: ‘एक देश-एक चुनाव’ का मुद्दा फिर से चर्चा में है। राजनीतिक दलों के नेता अपनी-अपनी पार्टी की पोजिशन के मुताबिक इस पर अपनी बात कह रहे हैं। आम लोगों में भी इसे लेकर राय बंटी हुई है। बहुत सारे लोगों में कन्फ्यूजन भी है। नाइश हसन ने इस मसले से जुड़े कुछ अहम पहलुओं पर भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी से बात की। पेश हैं बातचीत के अहम अंश:- कितना प्रासंगिक है ‘एक देश एक चुनाव’ का आइडिया?कुछ फायदे हैं, तो नुकसान भी। फायदा यह कि जब एक बार इलेक्शन होता है तो पैसा बचता है, समय बचता है। देखा जाता है कि चुनाव से पहले सांप्रदायिकता और जातिवाद का जहर फैलाया जाता है तो दो-तीन महीने ही जहर फैला कर कम से कम पांच साल के लिए फुरसत हो जाती है। दूसरी बात, वोटर, पोलिंग स्टेशन, मशीनरी और सिक्यॉरिटी वही है, तो सब एक बार में ही हो जाएगा। दूसरा पक्ष है लॉजिस्टिक्स प्रॉब्लम का। अगर तीन इलेक्शन एक साथ होने हैं तो तीन गुना EVM चाहिए। 20 लाख मशीनें हैं तो 40 लाख और चाहिए। यह भी एक खर्च है और उसे बनाने में तीन से चार साल का समय।कोऑर्डिनेशन का मसला भी है। पंचायत इलेक्शन के लिए अलग बॉडी है, स्टेट इलेक्शन के लिए अलग। एक कमिटी फॉर्म हुई है, जो इलेक्शन कमिशन के मातहत भी नहीं है। यह भी एक बड़ा कोऑर्डिनेशन इशू होगा। देखना यह भी है कि कहीं सरकार गिरती है, कहीं बनती है तो उसका पूरे देश पर भला क्यों असर पड़े? इसे कैसे रोकेंगे? क्या कॉन्स्टिट्यूशनल जादू लेकर आएंगे? चलो एक साथ एक इलेक्शन आपने करा दिया, तो अगला इलेक्शन कैसे होगा? कोई सरकार कभी तो गिरेगी? अगर 6 महीने में कोई सरकार गिर गई तो क्या साढ़े चार साल राष्ट्रपति शासन रहेगा वहां? अब इतनी हाई पावर कमिटी बनी है तो कुछ तो अच्छे सुझाव लेकर आएगी ही, जो आम तौर पर सभी को मंजूर होगा। कमिटी को मेरी शुभकामनाएं।‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार भारतीय संघ पर हमला है? ओवैसी, केजरीवाल से लेकर राहुल गांधी क्यों कह रहे ऐसा- संविधान में क्या कोई ऐसा कोई प्रावधान है जो कहता हो कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं?अभी तो ऐसा प्रावधान नहीं है लेकिन वे आगे की बात कर रहे हैं, इसीलिए तो बहस हो रही है। अब इतनी रेस्पेक्टबल कमिटी बनी है जिस पर हमारी निगाहें हैं, देखिए क्या निकल कर आता है। शुरुआती दौर में एक साथ इलेक्शन इसलिए हुए थे कि तब लोकतंत्र बस शुरू ही हुआ था। तब तो एक साथ इलेक्शन होने ही थे। लेकिन जिस वजह से वे अलग-अलग हुए, वह वजह तो अभी भी है। एक और बात काबिले गौर है, लगभग 20-30 सालों से हिमाचल और गुजरात का इलेक्शन एक साथ पड़ रहा था। वह होता रहता, जब तक कोई रुकावट न आ आती। लेकिन इलेक्शन कमिशन पर जोर डाल कर गुजरात का इलेक्शन 25 दिन लेट करा दिया, यानी 25 दिन फालतू में मॉडल कोड लागू रहा, काम ठप रहा, खर्च बेवजह बना रहा। यह भी हिपोक्रेसी ही तो है। क्या जरूरत थी मॉडल कोड को इतना लंबा खींचने की। यह सब सवाल भी इस समय उठेंगे ही।- इस योजना से क्षेत्रीय दलों को नुकसान का भी डर है। क्या इसे उनका समर्थन मिलेगा?बिलकुल नहीं मिलेगा। यही तो मसला है। इसीलिए तो विरोध हो रहा है। आप उनसे कहें कि अपनी विधानसभाओं में संवैधानिक संशोधन को अप्रूव करो तो मुझे तो नहीं मालूम कि यह कैसे अप्रूव होगा? इससे राज्यों की सियासी आजादी पर भी असर पड़ेगा।- बार-बार होने वाले चुनाव सरकार के लिए एक नियंत्रण और संतुलन कायम रखते हैं। जनप्रतिनिधियों के मन में भी डर रहता है कि किसी एक राज्य में काम न करने की सजा पार्टी को दूसरे राज्य में भी मिल सकती है। इसके हट जाने से पार्टियां बेलगाम नहीं हो जाएंगी?ऐसा हो सकता है। आपने पहले देखा होगा कि धर्मेंद्र के चुनाव क्षेत्र में पोस्टर लगाए गए थे कि हमारा MP लापता है। ऐसे MP-MLA के लापता होने के पोस्टर बहुत जगह लग चुके हैं। देखिए, बार-बार इलेक्शन की वजह से जवाबदेही तो बढ़ती ही है। BJP के एक MP ने एक बार बड़ा अच्छा स्टेटमेंट दिया था कि भई जनता से तो पूछो कि जनता क्या चाहती है इस मुद्दे पर। जनता तो बार-बार इलेक्शन से खुश है क्योंकि उसका महत्व बना रहता है, उसके पास नेता आता रहता है। जहां तक चुनाव में खर्च की बात है, तो क्या परेशानी है, इससे गरीब को रोजगार भी तो मिलता है। अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा ही है। पोस्टर बनाने वाले, टैक्सी वाले, ऑटो वाले, बैनर बनाने वाले- ये सब रोजगार पाते हैं। ब्लैक या वाइट मनी नेता की रीसाइकल तो हुई। यह भी एक नजरिया है। एक बार एक मीटिंग में एक नौजवान लड़की ने कहा था कि जब-जब चुनाव आता है गरीब के पेट में पुलाव आता है।वन नेशन वन इलेक्शन के जरिए राष्ट्रपति को देंगे अधिक शक्ति, राकेश टिकैत ने अपने ही अंदाज में समझाया पूरा फॉर्मूला- अमूमन विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर और लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। दोनों चुनाव एक साथ होंगे तो जनता कन्फ्यूज हो सकती है और जो भी लहर होगी, उसका असर वोट पर पड़ सकता है। आप क्या कहते हैं?यह बिल्कुल ठीक बात है। वोटर का राइट टु वोट भ्रमित होगा। पंचायत इलेक्शन का भी उतना ही महत्व है जितना लोकसभा के इलेक्शन का। जो मुद्दे जहां महत्व रखते हैं उन्हीं आधार पर वोट हो, तो बेहतर प्रतिनिधि भी चुनने की संभावना ज्यादा रहती है।- कहा जा रहा है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ भ्रष्टाचार और काला धन को रोकने में मददगार होंगे। इससे आप कितना सहमत हैं?बहुत अच्छा सवाल। चुनाव से ही भ्रष्टाचार और काला धन नहीं जुड़ा, वह तो उसके बाहर भी है। इलेक्शन में खर्च होने वाले हजारों करोड़ रुपयों का जो निदान मैं बार-बार ऑफर करता हूं, वह है कि राजनीतिक दलों पर भी खर्च की लिमिट लगा दो। कैंडिडेट पर तो लिमिट लगा दी, लेकिन पार्टी को खुली छूट दे दी गई। हमने अपना चुनाव मॉडल UK से लिया है। वहां पार्टी पर लिमिट है। हमें वहां से सीख लेनी चाहिए। अफसोस कि यह किसी को मंजूर ही नहीं है।तब ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ अच्छा था! नेहरू का जिक्र कर बीजेपी नेता ने मोदी के साथ की कैसी तुलना?