लेखकः आनंद प्रधानअसम के नए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने राज्य में दो बच्चे की नीति पर और कड़ाई बरतने के लिए कुछ अपवादों के साथ उन परिवारों को कई सरकारी सब्सिडी और सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित करने का भी संकेत दिया है, जिनके निश्चित कट-ऑफ डेट यानी तय तारीख के बाद दो से अधिक बच्चे होंगे। इससे पहले असम सरकार इस साल जनवरी के बाद से दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों को राज्य में सरकारी नौकरी और स्थानीय निकाय चुनावों में उम्मीदवारी के लिए अयोग्य घोषित करने का फैसला कर चुकी है।
चीन की भूलइधर, उत्तर प्रदेश से भी ऐसी खबरें आ रही हैं कि राज्य सरकार जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून लाने पर गंभीरता से विचार कर रही है, जिसमें असम की तरह ही दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले परिवारों को सरकारी नौकरियों, जन-कल्याण योजनाओं और लाभों से वंचित करने का प्रस्ताव है। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में भी बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए कड़े उपायों की मांग के साथ एक जनहित याचिका दाखिल कर रखी है।
विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर लखनऊ में निकाली गई एक जागरूकता रैली (फाइल फोटो)
देश में इस मुद्दे पर तीखी बहसें नई नहीं हैं। आमतौर पर यह मांग अनुदार दक्षिणपंथी राजनीतिक खेमे की तरफ से उठती रही है, लेकिन जनसंख्या नियंत्रण के लिए कड़े और दंडात्मक उपायों के समर्थक अधिकांश पार्टियों में रहे हैं। 90 के दशक से राजस्थान, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक आदि राज्यों में दो से अधिक बच्चे पैदा होने पर पंचायत चुनाव में उम्मीदवारी के अयोग्य ठहराए जाने के कानून बनाए गए। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में दो से अधिक बच्चे होने पर परिवारों को सरकारी नौकरियों से भी वंचित करने के कानून पहले से हैं। इमरजेंसी के दौरान जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जिस तरह से जबरन नसबंदी और दूसरे डराने-धमकाने वाले सख्त तौर-तरीके नाकाम रहे, वह इतिहास भी किसी से छुपा नहीं है।
हैरानी की बात यह है कि देश में दो बच्चों की नीति ऐसे वक्त में बन रही है, जब 80 के दशक से जनसंख्या नियंत्रण के लिए कुख्यात रहे चीन में ‘एक बच्चा (वन चाइल्ड)’ नीति के कारण पैदा हुई विसंगतियों और समस्याओं ने उसे एक जनसांख्यिकीय आपदा के कगार पर पहुंचा दिया है। चीन की जनगणना के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि उसकी आबादी में एक ओर 60 वर्ष से अधिक उम्र के बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर, युवा और वर्किंग लोगों की संख्या घट रही है।
इसलिए चीन सरकार ने हाल में ‘एक बच्चा (वन चाइल्ड)’ की अपनी नीति में एक और बड़ा बदलाव करते हुए परिवारों को तीन बच्चे पैदा करने की छूट दी है। इससे पहले चीन ने 2016 में दो बच्चे पैदा की अनुमति दी थी, लेकिन इसके बावजूद उसकी जनसंख्या में महिलाओं की कुल फर्टिलिटी रेट में गिरावट और उसके रिप्लेसमेंट रेट से भी नीचे चले जाने के रुझान में कोई फर्क नहीं आया है। जनसंख्या में स्थायित्व के लिए महिलाओं की फर्टिलिटी रेट 2.1 रहनी चाहिए, जिससे एक परिवार खुद को दोहरा सके और जनसंख्या में वर्किंग युवाओं की संख्या स्थिर हो सके।
लेकिन चीन में 80 के दशक की अदूरदर्शी और अवैज्ञानिक जनसंख्या नीति के कारण फर्टिलिटी रेट 1970 के 5.8 से घटकर 2015 में 1.6 रह गई, जो रिप्लेसमेंट रेट से भी कम है। यही नहीं, उसकी आबादी में 60 साल से अधिक उम्र वाले लोगों की तादाद बढ़कर 18.7 फीसदी पहुंच गई। इससे चीन में न सिर्फ वृद्धों की तादाद बढ़ने से उनकी देखभाल और सामाजिक कल्याण के बजट पर दबाव बढ़ा है बल्कि वर्किंग लोगों की संख्या घटने से कामगारों की कमी होने और अर्थव्यवस्था में उपभोग तथा मांग पर नकारात्मक असर पड़ने का खतरा पैदा हो गया है।
चीन इस नीति को पिछले पांच साल में दो बार बदलने और पहले दो बच्चे पैदा करने और अब तीन बच्चे पैदा करने की छूट देने का ऐलान कर चुका है, लेकिन कुल फर्टिलिटी रेट 2015 के 1.6 से गिरकर 2020 में 1.3 रह गई। चीन अब अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहन और कई सुविधाएं देने की बात कर रहा है। चीन ही नहीं, दुनिया के कई और विकसित देश भी महिलाओं की कुल फर्टिलिटी रेट में गिरावट के रुझान और उसके रिप्लेसमेंट रेट से भी नीचे चले जाने के कारण चिंतित हैं। इन देशों में तीव्र विकास, स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा के प्रसार और वर्कफोर्स में महिलाओं की बढ़ी भागीदारी के कारण ऐसा हुआ है। यानी विकास से बड़ा कोई गर्भनिरोधक नहीं है।
मानवीय विकास सूचकांक में सबसे ऊपरी पायदान पर खड़े दुनिया के अधिकांश विकसित और अमीर देशों में महिलाओं की कुल फर्टिलिटी रेट 1.2 से लेकर 0.98 तक पहुंच चुकी है, जो रिप्लेसमेंट रेट से काफी कम है। इसलिए इन देशों में वृद्धों की संख्या बढ़ और वर्किंग आबादी घट रही है। इससे उनकी अर्थव्यवस्थाओं के लिए कई परेशानियां खड़ी हो रही हैं। इनमें से कई देश परिवारों को बच्चे पैदा करने के लिए नकद लाभ से लेकर और कई प्रोत्साहन दे रहे हैं।
घट रही है फर्टिलिटी रेटलगता है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण के कड़े नियमों के पैरोकारों ने चीन से कोई सबक नहीं सीखा है। वे ऐसी बेतुकी मांग तब कर रहे हैं, जब देश में बिना किसी कड़े कानून और नियमों के कुल फर्टिलिटी रेट में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। देश में 1994 में कुल फर्टिलिटी रेट 3.4 थी, जो 2015 में घटकर 2.2 रह गई। ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, देश के 19 राज्यों में परिवारों में औसतन दो या उससे कम बच्चे हैं, जो रिप्लेसमेंट रेट के करीब है और जो जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए जरूरी है। नहीं तो दो-तीन दशकों में भारत भी खुद को चीन की स्थिति में खड़ा पाएगा।
मजे की बात यह है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए कड़े कानून की इस बेतुकी बहस में डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी देश की आबादी में 65 फीसदी से अधिक युवाओं और वर्किंग आबादी की मौजूदगी की चर्चाएं भुला दी गई हैं। बहस तो इस पर होनी चाहिए कि डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ लेने के लिए युवाओं को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और गुणवत्तापूर्ण रोजगार देने के लिए क्या किया जा रहा है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं