from ballot box to evm know the election history of india

नई दिल्ली: आजादी के 76 साल बाद जब भारत 18वें लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है, तो मौका है विश्व के सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतंत्र की चुनावी यात्रा पर नजर डालने का। 90 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं वाले भारत का चुनावी लोकतंत्र ने कई मील के पत्थर पार किए हैं। जरा इन तथ्यों पर गौर कीजिए- वर्ष 2019 के पिछले लोकसभा चुनाव में महिला मतदाताओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया और भारत ईवीएम के जरिए पेपरलेस चुनाव करवाने वाला दुनिया का एकमात्र देश है। हम यहां 1951 के पहले लोकसभा चुनाव से लेकर 2019 में हुए पिछले आम चुनावों तक का जायजा ले रहे हैं। हमारे सहयोगी अखबार द इकनॉमिक टाइम्स (ET) में प्रकाशित अनुभूति विश्नोई का यह विश्लेषण पढ़कर आप कई तथ्यों से रू-ब-रू होंगे।पहले लोकसभा चुनाव से ही गहरी होने लगीं लोकतंत्र की जड़ें26 नवंबर, 1949 को संविधान को अपनाने के साथ स्वतंत्र भारत में चीजें तेजी से आगे बढ़ीं। चार महीने बाद, सुकुमार सेन को पहला मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया। इसके साथ, देश ने पहला राष्ट्रव्यापी चुनाव कराने के लिए ‘महान प्रयोग’ शुरू किया। अप्रैल 1950 में, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम अस्थायी संसद द्वारा पारित किया गया था। पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर, 1951 और 21 फरवरी, 1952 के बीच 68 चरणों में हुआ था। 489 सीटों के लिए 53 राजनीतिक दल और 533 निर्दलीय मैदान में थे। 36 करोड़, 10 लाख, 88 हजार, 90 की आबादी में से लगभग 17 करोड़, 32 लाख, 12 हजार, 343 मतदाता रजिस्टर्ड थे। पहले लोकसभा चुनाव में 45.8% मतदाताओं ने वोट डाले। पहले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने 489 सीटों में से 364 पर कब्जा किया और जवाहरलाल नेहरू लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन ने उस चुनाव को ‘आस्था का कार्य’ बताया था।चुनावों में NDA का स्ट्राइक रेट बेहतर लेकिन I.N.D.I.A को मिले ज्यादा वोट, आंकड़े बता रहे 2024 में खेल हो पाएगा या नहींकांग्रेस के इतर राजनीतिक दलों का जन्मपहले लोकसभा चुनावों ने नई राजनीतिक और चुनावी खामियां उजागर कर दीं। उन्हीं चुनावों ने बहुदलीय लोकतंत्र के बीज बोए। 1951 के पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का सिलसिला आगे भी चलता रहा, लेकिन अगले कुछ दशकों में नई राजनीतिक संरचनाएं उभरीं। 1952 में चुनावी मैदान में उतरे 14 दलों में से चार ने तो अपना राष्ट्रीय दर्जा बरकरार रखा। इन दलों में कुछ के संस्थापक नेहरू सरकार में मंत्री थे जिन्होंने अपने दल बनाने के लिए इस्तीफा दे दिया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू कैबिनेट छोड़कर भारतीय जनसंघ का गठन किया, जिसका पुनर्जन्म 1980 में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के रूप में हुआ। बीजेपी न केवल लगातार दो बार से केंद्र की सत्ता में है बल्कि इसका दूसरे किसी भी दल के मुकाबले सबसे अधिक राज्यों में शासन है।स्वतंत्र भारत में जन्मीं पार्टियों में कुछ की किस्मत ठीक नहीं रही और कुछ वर्षों में ही उनके भविष्य पर ग्रहण लग गया। विनायक दामोदर सावरकर और नाथूराम गोडसे की अखिल भारतीय हिंदू महासभा को कभी भी चुनावी जीत नसीब नहीं हुई। हिंदू महासभा की तरह हरिहरनंद ‘स्वामी’ करपात्री के नेतृत्व में अखिल भारतीय राम राज्य परिषद (आरआरपी) ने भी ‘हिंदू राष्ट्र’ की वकालत की। इसने 1951 के चुनावों में तीन सीटें जीतीं और बाद में इसका बीजेएस में विलय हो गया।महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पार्टी अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक का वजूद कई टूट के बाद भी बचा हुआ है। इस दौरान कई क्षेत्रीय दलों का भी उदय हुआ। शिरोमणि अकाली दल ने 1952 के चुनाव में चार सीटें जीतीं और पंजाब में लंबे समय तक प्रभावी पार्टी बनी रही। हालांकि, पिछले कुछ चुनावों से उसका तेज राजनीतिक क्षरण हो रहा है। आज की तारीख में, भारत में छह राष्ट्रीय दल, 54 क्षेत्रीय दल और 2,500 से अधिक गैर-मान्यता प्राप्त दल हैं।अब भी सत्तारूढ़ और विपक्ष, दोनों कई दलों के साथ गठबंधन कर रहे हैं जिनकी जड़ें पहले आम चुनावों में हैं।महिला मतदाताओं ने कमाल कर दियाहमारे पुरखों ने देश में सबको समान मताधिकार देने का फैसला किया। तब वोट करने की न्यूनतम आयु सीमा 21 वर्ष रखी गई। इस उम्र को छूने वाला कोई भी व्यक्ति वोट देने का अधिकारी हो गया- जाति, धर्म, लिंग, स्थान जैसी किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं। इसे ही तो सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहते हैं। 1980 के दशक के अंत में मताधिकार प्राप्त करने की उम्र घटाकर 18 वर्ष कर दी गई। पहला आम चुनाव बहुत चुनौतीपूर्ण था। इन चुनौतियों में महिला मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाना भी शामिल था। उस युग की महिलाओं ने सामाजिक अवरोधों के कारण अपना पूरा नाम देने से इनकार कर दिया और खुद को ‘फलां की मां’, या फलां की बेटी/पत्नी के रूप में अपनी पहचान बताई।मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन ने मतदाता सूची में इस तरह से नाम दर्ज करने की अनुमति नहीं दी थी। अनुमान है कि इस कारण पहले चुनाव में 28 लाख से अधिक महिलाएं मतदान नहीं कर सकीं। सुकुमार सेन 1957 के दूसरे आम चुनाव में भी सीईसी थे। उन्होंने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक अभियान शुरू किए और महिलाओं से अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए अपना-अपना पूरा नाम बताने की अपील की। इसका असर हुआ और महिलाओं ने झिझक तोड़कर अपना नाम बताना शुरू कर दिया।निर्वाचन आयोग ने भी महिलाओं को मतदान केंद्रों तक लाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। आयोग ने मतदान केंद्रों पर अलग शौचालयों से लेकर क्रेच तक की सुविधाएं दीं। इतना ही नहीं, कई मतदान केंद्र सिर्फ महिलाओं के लिए बनाए गए और प्रखंडों में अलग से वोटर रजिस्ट्रेशन सेंटर स्थापित किए गए जिनमें सिर्फ महिला कर्मचारियों की ड्यूटी लगाई गई।1951 के पहले लोकसभा चुनावों के कुछ दृश्य।वर्ष 1962 के चुनाव में महिलाओं के मुकाबले 16 प्रतिशत ज्यादा पुरुषों ने मतदान किया था। जो 2004 के लोकसभा चुनाव में घटकर 8.4 प्रतिशत जबकि 2014 में यह और भी घटकर 1.8 प्रतिशत रह गई थी। फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में तो कमाल ही हो गया। इस चुनाव में महिलाओं ने पुरुष मतदाताओं को पछाड़ दिया। पिछले लोकसभा चुनावों में 67% से अधिक महिला मतदाताओं ने वोट किया। चुनाव आयोग ने इस पर खुशी का इजहार करते हुए कहा कि 1962 मतदान करने वाले पुरुषों और महिला मतदाताओं के बीच का अंतर 16.71% था और 2019 आते-आते पुरुष मतदाताओं के मुकाबले 0.17% ज्यादा महिला मतदाताओं ने वोट डाले। कितनी बड़ी बात है कि 1971 के चुनावों के बाद से महिला मतदाताओं में 235.72% की वृद्धि दर्ज की गई है। आज स्थिति यह है कि हरेक राजनीतिक दल महिलाओं को एक बड़ा वोट बैंक मानने लगा है। इस कारण उनके चुनावी घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए विशेष ऐलान किए जाते हैं।संसद में भी निर्वाचित महिलाओं की संख्या, पहले आम चुनावों में 24 से बढ़कर 2019 में 78 हो गई है। इसमें और सुधार की जरूरत है क्योंकि पहले चुनाव में कुल मतदान 44.8 प्रतिशत से बढ़कर 2019 के लोकसभा चुनावों में रिकॉर्ड 67.4 प्रतिशत हो गया है। चुनाव आयोग इस बात से अवगत है कि प्रवासी और युवा मतदाता अभी भी अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर रहे हैं और अपने घर से दूर रहकर भी वो मतदान कैसे कर सकें, इस पर चर्चा जोर पकड़ चुकी है।धीरे-धीरे आसान होती चुनाव प्रक्रियापहले आम चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार को मतदान केंद्र पर अपने नाम और चुनाव चिह्न के साथ एक अलग रंगीन मतपेटी दी गई थी। इसका मकसद यह था कि अनपढ़ लोग भी अपने पसंद के उम्मीदवार को वोट डाल सकें। भारत का पहला लोकसभा चुनाव 68 चरणों में पूरा हुआ था और 2019 का लोकसभा चुनाव सात चरणों में और 50 दिनों के भीतर खत्म हो गया।भारत के निर्वाचन आयोग ने चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता बढ़ाते हुए, इसे आसान बनाने की दिशा में बहुत तेज प्रगति की है। मतदाता सूची तैयार करने से लेकर उनमें संशोधन, मतदान केंद्रों की मैपिंग और वहां पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था तक, चुनाव आयोग लगातार नए-नए कदम उठा रहा है। इस सिलसिले में तकनीक की भरपूर मदद ली जा रही है जिसमें घरेलू तकनीक का बड़ा योगदान है।निर्वाचन आयोग के सामने पहली चुनौती मतपेटियों की लूट और फर्जी मतदान रोकने की थी। एक ही व्यक्ति बार-बार वोट न दे सके, इसके लिए न छूटने वाली स्याही का इस्तेमाल किया जाने लगा। राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला की मदद से विकसित इस अमिट स्याही का उपयोग पहली बार 1962 के चुनावों में किया गया था और यह अभी भी मतदाता के वोट डालने का प्रमुख प्रमाण है।बैलेट से ईवीएम तकचुनावी परिदृश्य में सबसे अधिक परिवर्तन 1990 के दशक के अंत में आया जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की शुरुआत की गई। उससे पहले बैलेट पेपर से मतदान के वक्त जबर्दस्त धांधली होने लगी थी। मतपेटियों की लूट से लेकर बूथ कैप्चरिंग के जरिए ठप्पामार वोटिंग तक, हर बार चुनावों में चुनावी प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली खबरें सुर्खियां बटोर रही थीं। पहली वर्ष 2004 में ईवीएम ने पूरी तरह बैलेट पेपर की जगह ले ली। उसी वर्ष लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों में पूरी तरह ईवीएम से वोट डाले गए। ईवीएम के साथ-साथ वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट (VVPAT) का साधन भी आया। वीवीपैट से मतदाता को पता चल जाता है कि उसका वोट सही उम्मीदवार को ही गया या नहीं। इससे ईवीएम हैकिंग जैसी अफवाहों पर लगाम भी लगता है।पहली बार वीवीपैट मशीनें 2014 के नागालैंड चुनावों में लगाई गईं। फिर 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में हर बूथ पर ये मशीनें लग गईं। 9 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद चुनाव आयोग ने प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में पांच रैंडम ईवीएम के लिए वीवीपीएटी पर्चियों की गिनती भी बढ़ा दी।ईवीएम-वीवीपीएटी के कॉम्बिनेशन पर भी सवाल उठाए गए, लेकिन किसी के पास कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि आशंका की वजह क्या है। अगले वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में ईवीएम के लेटेस्ट वर्जन एम3 से वोटिंग होगी। अब पोस्टल बैलेट का विकल्प वरिष्ठ नागरिकों को भी दे दिया गया है।तब डेढ़ घंटे में विपक्ष पर खूब बरसे थे पीएम मोदी, 2018 में अविश्वास प्रस्ताव पर दिया पूरा भाषण पढ़िएअब भी लंबा है सफरचुनाव आयोग की तरफ से पारदर्शिता और सहजता सुनिश्चित करने की दिशा में इतने उपायों के बावजूद अदालतें अक्सर मतदाताओं की ओर से हस्तक्षेप करती रही हैं। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम में उन नागरिकों के लिए अलग से विकल्प ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ (NOTA) देने का आदेश दिया। अदालतों ने मतदाता जागरूकता सुनिश्चित करने का भी आदेश दिया। कोर्ट के आदेश पर ही प्रत्येक उम्मीदवार को अपने चुनावी हलफनामे में अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि की घोषणा करनी होती है।हालांकि, दूरस्थ मतदान या एनआरआई मतदाताओं के लिए विकल्पों के जरिए प्रवासी मतदान सुनिश्चित करने के प्रयास अभी तक सफल नहीं हुए हैं। इसी तरह, आदर्श आचार संहिता 1962 के चुनावों से ही लागू है, फिर भी नफरती भाषणों, वोट खरीदने के चलन और चुनावों में धन बल के प्रयोग जैसी कुरीतियों पर लगाम नहीं लग पाई है। चुनाव चिह्न को लेकर 1968 के अदालती आदेश और 1985 के दलबदल विरोधी कानून ने पद के लालच में ‘दलबदल की बुराई’ बनी हुई है।निर्वाचन आयोग, विधि आयोगों, सरकारों और अदालतों ने इलेक्शन सिस्टम में धन बल के उपयोग से लेकर अपराधीकरण की जांच जैसे पहलुओं में ज्यादा पारदर्शिता लाने की सिफारिशें की हैं। इस दिशा में बहुत कुछ हासिल हो चुका है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। चुनाव सुधार की सूची में अभी 50 से सिफारिशे हैं जो निर्वाचन आयोग साल दर साल हर सरकार को भेजता है।