G20 India giving message of peace for centuries

अखिलेश झा और रश्मिता झा

‘एक पृथ्वी, एक कुटुंब और एक भविष्य’ के सूत्रवाक्य के साथ भारत G-20 की अध्यक्षता कर रहा है। इसका अर्थ है शांति। इस शांति की चिंता में धरती से लेकर आकाश तक और आज से लेकर आने वाले कल तक की फिक्र शामिल है। इसकी सिद्धि भारत की उस परंपरा में है, जिसमें शांति की प्राचीनतम अवधारणा है और उसे पाने के लिए किए गए भागीरथ प्रयास हैं।
विश्व का पहला शांति-गीत
जब पृथ्वी के अन्य हिस्सों में छोटे-छोटे राज्यों और कबीलों में सत्ता का संघर्ष चल रहा था, भारत का वैदिक समाज शांति पाठ कर रहा था। वह शांति पाठ ऐसा था कि आज के महाविकास के दौर में भी उससे बढ़कर शांति कामना नहीं की जा सकती।

यजुर्वेद के छत्तीसवें अध्याय में एक मंत्र आता है, जिसमें धरती से लेकर अंतरिक्ष तक, सभी जलराशियों से लेकर सभी वनस्पतियों तक और जीवात्मा से लेकर ब्रह्मात्मा तक सब में शांति की स्थापना की कामना है।
उस शांति-कामना में अंत में यह भी है कि इन सभी भूतों में बस शांति हो, और कुछ न हो यानी शांति शर्तरहित हो- ‘सर्व शांतिः शांतिरेव शांतिः सा मा शांतिरेधि’ यह शांति पाठ लगभग पांच हजार साल पुराना माना जाता है।

शांति के लिए लगातार कोशिश करनी पड़ती है। भारत में भी समय बीतते जाने पर संघर्ष और हिंसा बढ़ने लगी। कहते हैं कि 18 दिनों तक चले महाभारत के युद्ध में लाखों लोग मारे गए। इस महायुद्ध से भारत ने फिर सीख ली और भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता का शाश्वत उपदेश दिया, जिसमें शांति के लक्ष्य और उसकी प्राप्ति के मार्ग बताए गए। महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है कि जो व्यक्ति किसी भी जीव का बुरा करना तो दूर, उसके अहित की सोचता भी नहीं है और जो सभी जीवों को अभयदान देता है, वही धर्मात्मा है- ‘सर्वभूतेषु यः सम्यग् ददात्यभयदक्षिणाम्। हिंसादोषविमुक्तात्मा स वै धर्मेण युज्यते।’
भारत का इतिहास शांति की खोज और उसकी स्थापना के लिए त्याग और बलिदान का ही इतिहास है। महाभारत के बाद आज से लगभग ढाई हजार साल पहले एक बार फिर शांति की, अहिंसा की जरूरत मानवता को महसूस हुई।

इस बार दो महापुरुषों, बुद्ध और महावीर ने न सिर्फ अहिंसा एवं शांति के शाश्वत सिद्धांतों की स्थापना की, बल्कि धम्ममार्ग का ऐसा संस्थागत ढांचा स्थापित किया कि हजारों वर्षों बाद भी आज दुनिया शांति के लिए बुद्ध एवं बौद्ध सिद्धांतों की तरफ देखती है।
बौद्धमत ने शांति की अनगिनत कहानियां दीं, शांति के सूत्र दिए, शांति का संविधान दिया, शांति की कला दी, शांति का स्थापत्य दिया और शांति आधारित शासन पद्धति का रास्ता दिखाया।

बुद्ध के शांति के उपदेश देने के कुछ सदियों बाद ही मौर्यकाल में उनके सिद्धांतों की कठिन परीक्षा हुई। मौर्यकाल में जब लगभग पूरे दक्षिण एशिया में मौर्य का शासन था, एक बार फिर रक्तरंजित अभियानों एवं संघर्षों का दौर शुरू हुआ। सिकंदर ने भारत को अपने साम्राज्य में शामिल करने का असफल, किंतु खूनी अभियान शुरू किया। भारत ने बहादुरी से उसका प्रतिकार किया। उसके बाद भी युद्ध की विभीषिकाओं ने मौर्य सम्राट अशोक को विचलित कर दिया। उसने मानव-सभ्यता के इतिहास में पहली बार शांति और अहिंसा पर आधारित शासन पद्धति को स्थापित किया।

आज से लगभग तेईस सौ साल पहले अशोक ने पूरे दक्षिण एशिया में अलग-अलग भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में शिलाखंडों पर शांति एवं अहिंसा पर आधारित समाज व शासन व्यवस्था के संदेश लिखवाए।
हम पूरी दुनिया में युद्ध स्मारकों के निर्माण की परंपरा के विषय में जानते हैं। शांति-स्मारक तो छिटपुट रूप में ही बनते रहे हैं।
अशोक ने एक-दो नहीं, पूरे चौरासी हजार शांति स्मारकों की स्थापना की पूरे भारतीय प्रायद्वीप में, जिसके गर्भ में बुद्ध के अस्थि- अवशेष का एक हिस्सा स्थापित कर उन्हें देशकाल की सीमा से परे सर्वग्राह्य बनाने का प्रयास किया। विश्व-सभ्यता के इतिहास में इस स्तर के शांति अभियान का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।

भारत शांति के रास्ते पर चल चुका था, लेकिन दुनिया के रास्ते अलग थे। शांति और अहिंसा-प्रिय भारतीय समाज और शासन-पद्धति को बाहर के दुर्दांत आक्रमणों का सामना करना पड़ा। विदेशी आक्रमणकारियों और औपनिवेशिक शक्तियों ने लगभग एक हजार सालों तक भारत को उलझाए रखा। इस लंबे दौर में भारत की आर्थिक और औद्योगिक तरक्की बाधित रही। भारत की उन सारी संस्थाओं का क्षय हो गया, जिन्होंने शांति एवं अहिंसा के मूल्यों पर देश को चलना सिखाया था। लेकिन भारी कीमत चुकाते हुए भी भारत शांति पथ से डिगा नहीं।

मध्यकाल में भी भारत के भक्त एवं सूफी कवियों ने शांति एवं सद्भाव बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मुगल बादशाह अकबर ने सुलहे-कुल का सिद्धांत देकर एक नई शुरुआत की।
औपनिवेशिक काल में शोषण और अत्याचार की तमाम हदें पार हो जाने पर भारतीयों ने अपनी वीरता एवं रण कौशल का परिचय अत्याचारियों को अवश्य दिया, परंतु शांति का मार्ग छोड़ा नहीं।
महात्मा गांधी ने अहिंसा एवं शांति के तरीके से प्रतिकार का जो रास्ता बताया, उसे पूरी दुनिया ने आत्मसात किया।

कमजोरी नहीं, ताकत
भारत ने शांति के रास्ते में बहुत निवेश किया है। अशोक से लेकर गांधी तक- भारतीय नेतृत्व ने शांति को अपनी कमजोरी नहीं, अपनी ताकत के रूप में दुनिया के समक्ष रखा है। वही नीति भारत की आज भी है और आगे भी रहेगी। दुनिया शांति में जितना निवेश करेगी, हमारी पृथ्वी उतनी सुरक्षित रहेगी, हमारा परिवार उतना खुशहाल रहेगा और हमारा भविष्य उतना ही संभावनाओं से भरा होगा।
(अखिलेश एवं रश्मिता भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी हैं और संस्कृतिकर्मी भी हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं