राजेश चौधरी
आजादी के 74 साल हो गए, इस दौरान संविधान में 125 बार संशोधन किए गए, लेकिन समान नागरिक आचारसंहिता से संबंधित अनुच्छेद-44 की भावना के तहत इंडियन सिविल कोड के लिए कारगर प्रयास नहीं हुआ। हाल ही सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को लिखे लेटर में यह बात कही गई। इसमें उनसे अपील की गई है कि पर्सनल लॉ को एक समान करने के लिए दाखिल अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई के लिए एक बेंच का गठन किया जाए। हालांकि, यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की कोई याचिका नहीं है, लेकिन मौजूदा याचिकाओं को समग्रता में देखा जाए तो मामला इसे लागू करने की ओर ही जाता है।
शादी, तलाक, उत्तराधिकार
अभी देश में अलग-अलग समुदाय और धर्म के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ चार शादियों की इजाजत देता है, जबकि हिंदू सहित अन्य धर्मों में एक शादी का नियम है। शादी की न्यूनतम उम्र क्या हो? इस पर भी अलग-अलग व्यवस्था है। मुस्लिम लड़कियां जब शारीरिक तौर पर बालिग हो जाएं (पीरियड आने शुरू हो जाएं) तो उन्हें निकाह के काबिल माना जाता है। अन्य धर्मों में शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल है। जहां तक तलाक का सवाल है तो हिंदू, ईसाई और पारसी में कपल कोर्ट के माध्यम से ही तलाक ले सकते हैं, लेकिन मुस्लिम धर्म में तलाक शरीयत लॉ के हिसाब से होता है। तीन बार तलाक बोलकर फटाफट तलाक लेना अब असंवैधानिक हो चुका है, लेकिन तीन महीने की वेटिंग पीरियड के आधार पर तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन अभी मान्य हैं। मुस्लिम में मौखिक वसीयत है, जबकि अन्य धर्म में रजिस्टर्ड ही मान्य है। गोद लेने का नियम भी हिंदू, मुस्लिम, पारसी और ईसाई सबके लिए अलग हैं।
कॉमन सिविल कोड को लेकर संविधानसभा में विस्तार से चर्चा हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय बताते हैं कि अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था, ‘व्यावहारिक रूप से इस देश में एक नागरिक संहिता है, जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। लेकिन विवाह-उत्तराधिकार का क्षेत्र ऐसा है, जहां एक समान कानून लागू नहीं है। यह बहुत छोटा सा क्षेत्र है, जिसके लिए हम समान कानून नहीं बना सके हैं। इसलिए धीरे-धीरे सकारात्मक बदलाव लाया जाए।’ वहीं, संविधानसभा के सदस्य के.एम. मुंशी का कहना था कि बीते कुछ वर्षों में धार्मिक क्रिया-कलापों ने जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने दायरे में ले लिया है। हमें इसे रोकना होगा और कहना होगा कि विवाह आदि मामले धार्मिक नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष कानून के विषय हैं। संविधानसभा के एक अन्य सदस्य कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था कि कुछ लोग मानते हैं यूनिफॉर्म सिविल कोड बन जाएगा तो धर्म खतरे में होगा और दो समुदाय मैत्री भाव से साथ नहीं रह पाएंगे। लेकिन इस अनुच्छेद का उद्देश्य ही मैत्री बढ़ाना है। समान नागरिक संहिता मैत्री को समाप्त नहीं बल्कि मजबूत करेगी।
आजादी के बाद 1980 में बहुचर्चित मिनर्वा मिल्स केस में यूनिफॉर्म सिविल कोड का मामला उठा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांत के बीच सौहार्द और संतुलन संविधान का महत्वपूर्ण आधारभूत सिद्धांत है। इसके बाद 1985 में चर्चित शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हमारे संविधान का अनुच्छेद-44 एक मृत अक्षर बनकर रह गया है और यह दुखद है। अनुच्छेद यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात करता है, लेकिन सरकारी स्तर पर इसके लिए किसी प्रयास का कोई सबूत नहीं है। 1995 में सरला मुद्गल केस में तो शीर्ष अदालत ने यहां तक कहा कि आखिर सरकार संविधान निर्माताओं की इच्छा पूरा करने में और कितना वक्त लेगी? तब अदालत की टिप्पणी यह भी थी कि देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को अनंत काल के लिए सस्पेंड रखने का कोई तुक नहीं बनता। आठ साल बाद 2003 में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने जॉन बलवत्तम केस में अनुच्छेद-44 लागू नहीं किए जाने पर दुख जताया था। वहीं, 2017 में तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सायरा बानो केस में कहा कि हम आशा करते हैं वैश्विक पटल पर और इस्लामी देशों में शरीयत में हुए सुधारों को ध्यान में रखते हुए एक कानून बनाया जाएगा। 2019 में उसने गोवा की मिसाल दी, जहां पुर्तगाल सिविल कोड 1867 से लागू है, लेकिन देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का कारगर प्रयास नहीं किया गया। हालांकि 31 अक्टूबर 2018 को लॉ कमिशन ने कहा था कि यूनिफॉर्म सिविल कोड इस स्टेज पर न तो जरूरी है और न ही वांछनीय।
पांच अर्जियां
ताजा घटनाक्रम में दिसंबर 2020 के बाद सुप्रीम कोर्ट में पांच अलग-अलग अर्जियां दाखिल कर पर्सनल लॉ को एक समान करने की गुहार लगाई गई है। इनमें प्रत्येक नागरिक के लिए उत्तराधिकार संबंधित नियम एक करने का और तलाक के मामलों में एक तरह के ग्राउंड तय करने का अनुरोध किया गया है। तीसरी अर्जी में कहा गया है कि गुजारा भत्ता और जीवन निर्वाह के लिए दी जाने वाली एकमुश्त राशि के मामले में एकरूपता होनी चाहिए। चौथी याचिका में तमाम धर्मों के लिए एडॉप्शन एंड गार्जियशिप कानून को जेंडर न्यूट्रल, रिलिजन न्यूट्रल बनाने की जरूरत बताई गई है। वहीं विवाह की उम्र सबके लिए 21 साल करने की अर्जी भी है। इन याचिकाओं से पहले बहुविवाह और निकाह हलाला के खिलाफ भी अर्जी दाखिल की गई है।
इन पांचों अर्जियों को समग्रता में देखा जाए तो संदेह नहीं रह जाता कि ये मामले यूनिफॉर्म सिविल कोड का भविष्य तय करेंगे। केंद्र सरकार के रुख से अंदाजा मिलेगा कि ऊंट किस करवट बैठने वाला है। लेकिन इतना तय है कि इन पांचों अर्जियों ने यूनिफॉर्म सिविल कोड के जिन्न को बोतल के मुंह के बिल्कुल पास ला दिया है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं