बृजेश शुक्ल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी में बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन के पहले स्नान के लिए जब गंगा में प्रवेश कर रहे थे तो तमाम विपक्षी दलों की सतर्क निगाहें उन्हीं पर लगी थीं। यह दृश्य विपक्षी दलों के नेताओं को बेचैन कर रहा था। उन्हें करोना काल में लोगों को हुई परेशानी, बढ़ती महंगाई और आवारा पशु जैसे मुद्दों के चलते इस बार अपनी फतह लगभग तय लग रही है। वैसे, उन्हें यह भी पता है कि बीजेपी बाजी पलटने में माहिर है। इसीलिए उसके हर कदम पर वे चौकन्ना हो जाते हैं। बहरहाल, अभी सवाल यह है कि बाबा विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के उद्घाटन पर बीजेपी ने पूरे राज्य में जो माहौल बनाया, क्या उसका असर चुनाव पर पड़ेगा? बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर उन आकांक्षाओं का प्रतीक है, जो करोड़ों हिंदुओं के मन में लंबे समय से पल रही थी। जाहिर है, बीजेपी बनारस के रास्ते पूरे भारत को एक बड़ा संदेश देना चाहती थी और एक हद तक उसमें सफल भी हुई।
एक तीर, कई निशाने
बीजेपी ने इस एक तीर से कई निशाने साधे हैं। नरेंद्र मोदी उन चंद लोगों में शामिल हो गए, जिन्होंने बाबा विश्वनाथ मंदिर का निर्माण और विकास में अपना योगदान किया। प्रधानमंत्री ने देर रात बनारस का दौरा किया विकास योजनाएं देखीं। दूसरे दिन विकास योजनाओं के बारे में ही बनारस आए सभी मुख्यमंत्रियों और उप-मुख्यमंत्रियों के साथ लंबी बैठक की। इस तरह उन्होंने विपक्षी नेताओं के उस हथियार को भी बेअसर कर दिया कि बीजेपी सिर्फ धर्म की राजनीति करती है, विकास की नहीं। यह दिलचस्प है कि राजधानी दिल्ली या लखनऊ से नहीं बल्कि बनारस से धर्म और विकास के संदेश एक साथ भेजे गए। जो भारत को जानते हैं, उन्हें यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि बनारस से भेजा गया संदेश इस देश के लोगों के गले के नीचे बहुत तेजी से उतरता है।
लेकिन सवाल यहां यह उठ रहा है कि क्या उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड सहित पांच राज्यों के चुनाव धार्मिक मुद्दे के आधार पर लड़े जाएंगे? क्या बनारस में किया गया इतना बड़ा आयोजन सिर्फ चुनावी था? इस मुद्दे पर बहस हो सकती है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस आयोजन ने अपने पीछे तमाम संदेश छोड़े हैं। बनारस से ही लगभग 8 बार विधायक रहे और पिछले दिनों बीजेपी से नाराज चल रहे श्यामदेव राय चौधरी इस आयोजन के बाद भरे गले से कहते हैं कि उनके पास बोलने के लिए कोई शब्द नहीं है। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि बाबा विश्वनाथ परिसर को इतनी भव्यता मिल जाएगी।
फिर भी यह समर्थकों की बात हुई। यदि विरोधियों के दृष्टिकोण से देखें तो यह पूरा मामला धर्म के चुनावी इस्तेमाल का है। लेकिन यह मान भी लिया जाए कि बनारस में बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन चुनावी लाभ के लिए किया गया था तो विपक्ष से भी वही सवाल पूछा जा सकता है कि क्या वह धर्म का सहारा नहीं ले रहा? बीजेपी जिस समय वाराणसी में मंदिर कॉरिडोर के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उद्घाटन की भव्य तैयारियां कर रही थी, उस समय कांग्रेस की ओर से राजस्थान में महंगाई के विरोध में आयोजित एक रैली में पार्टी नेता राहुल गांधी हिंदू और हिंदुत्व के बारे में अपनी राय रख रहे थे। वह कह रहे थे कि हिंदुत्ववादियों को सत्ता से हटा कर हिंदुओं को सत्ता सौंप दी जानी चाहिए। हिंदुत्ववादी बर्बर हैं। राहुल गांधी का हमला बीजेपी पर था, लेकिन बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता इस हमले से भी खुश हैं।
वास्तव में उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले जिस तरह से धर्म-धर्म की आवाजें आ रही हैं, उसकी रोचक व्याख्याएं की जा रही हैं, उससे तो यही लगता है कि यह चुनाव धर्म के नाम पर लड़ने को सभी दल उतारू हो गए हैं। सभी को धर्म ही रास आ रहा है। कांग्रेस के एक नेता कहते हैं कि बीजेपी को उसी के हथियार से जवाब दिया जा सकता है और राहुल गांधी ठीक कर रहे हैं। बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुस्कुराते हुए कहते हैं, ‘मैं भी तो कह रहा हूं कि वह बहुत अच्छा कर रहे हैं। वे लोग इसी तरह बोलते रहें, सब ठीक हो जाएगा।’
वास्तव में उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड सहित पांच राज्यों के चुनाव के समय जिस तरह से धर्म के नाम पर घात-प्रतिघात हो रहे हैं उससे तो यही लग रहा है कि सभी दलों की रणनीति धर्म के नाम पर चुनाव लड़ने की हो गई है। बीजेपी के चुनावी अभियान की शुरुआत अयोध्या से हुई थी और वह काशी होते हुए मथुरा तक जा पहुंची। लेकिन जो चुनाव कुछ दिन पहले तक विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा था, वह धीरे-धीरे धर्म की तीखी बहसों पर सिमट रहा है कि धर्म का कौन कितना बड़ा लंबरदार है।
कोई पीछे नहीं
बीजेपी पर यह आरोप हमेशा से रहा है कि वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव लड़ना चाहती है, लेकिन क्या कांग्रेस के नेता यह बता सकते हैं कि महंगाई के मुद्दे पर बुलाई गई रैली में ज्यादातर धर्म के नाम पर की चर्चा क्यों की गई? और समाजवादी पार्टी को अचानक जिन्ना की चर्चा करना जरूरी क्यों लगने लगा? समाजवादी पार्टी के सहयोगी ओमप्रकाश राजभर जैसे कई नेता लोगों को यह बताने के लिए क्यों बेचैन हो गए कि आजादी के नायक मोहम्मद अली जिन्ना थे। जिन्ना कब से नायक हो गए? यदि धर्म-धर्म खेलेंगे तो चुनाव में असर जरूर होगा। फिलहाल तो यही दिख रहा है कि इन राज्यों के चुनाव में धार्मिक मुद्दा भी अहम भूमिका में होगा। अब इसका सबसे ज्यादा लाभ कौन ले पाएगा, यह समय ही बताएगा।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं