बिबेक देबरॉय, ब्योर्न लोमबोर्ग, आदित्य सिन्हा
जितने भी सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल्स (SDGs) ऐसे हैं, जिन्हें 2030 तक हासिल करने में दुनिया नाकाम होने वाली है, और ये बहुत सारे हैं, उनमें सबसे त्रासद और निराशाजनक है भूख और कुपोषण से मुक्ति की दिशा में प्रगति न होना। यह ज्यादा मायूस करने वाली बात इसलिए भी है क्योंकि गरीबी उन्मूलन और सबको रोजगार देने जैसे ज्यादा महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के विपरीत इसका हासिल होना बिल्कुल संभव लग रहा था। आखिर आज के तमाम अमीर देश 20वीं सदी में ही कुपोषण की इस समस्या से मुक्त हो चुके हैं। जापान में साल 1900 तक हर दस में से छह बच्चे कुपोषण का शिकार थे। लेकिन साल 2000 तक स्थिति काफी सुधर गई। चीन पिछले 20 वर्षों में कुपोषण में भारी कमी लाने में सफल रहा। भारत, इथियोपिया और फिलिपींस में भी इसमें कमी आई। लेकिन सबसे गरीब और कमजोर देशों में कुपोषण में गिरावट बिल्कुल नहीं आ रही है। बुरुंडी जैसे देशों में कुपोषण की स्थिति जस की तस बनी हुई है।
सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल्स हासिल करने की राह को हमने ही मुश्किल बना रखा है (Photo : BlueWillow AI)
हमारी नाकामी का अंदाजा दो तथ्यों से हो सकता है। एक, 2.5 करोड़ बच्चे इस साल ऐसे हैं जो ठीक से विकसित नहीं हो पाए। यानी वे इस कदर कुपोषित हैं कि अपनी उम्र के अन्य बच्चों के मुकाबले उनकी लंबाई कम है। ध्यान रहे, बौना होने से अन्य अवसरों की उपलब्धता भी ताउम्र प्रभावित होती रहती है।
साल 2015 में ही दुनिया भर की सरकारों ने तय किया था कि 2030 तक SDGs की सूची में दर्ज अन्य वादों की तरह बौनेपन की समस्या से भी मुक्ति पा लेंगे। आधी अवधि बीत चुकी है, लेकिन हम आधी दूरी तय करने से काफी पीछे हैं। कोविड-19 से पहले के ट्रेंड के हिसाब से दुनिया यह लक्ष्य 2116 तक ही हासिल कर पाएगी, यानी तय समय से 86 साल बाद।
कुपोषण दूर करने के जो सबसे स्मार्ट तरीके हो सकते हैं, उनमें एक है प्रेग्नेंट महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करना। मामूली खर्च पर ही प्रेग्नेंट महिलाओं को पिल्स के रूप में कैल्सियम और अन्य पौष्टिक तत्व उपलब्ध कराए जा सकते हैं। प्रेग्नेंसी के दौरान अक्सर महिलाओं में महत्वपूर्ण पौष्टिक पदार्थों की कमी हो जाती है क्योंकि उन्हें अपने भोजन से ही गर्भ में पलते बच्चे की भी जरूरत पूरी करनी होती है। नतीजा यह कि मां और बच्चा दोनों कुपोषित हो जाते हैं। ज्यादातर देश पहले से ही WHO की सिफारिशों के मुताबिक प्रेग्नेंट महिलाओं को आयरन और फॉलिक एसिड मुहैया करा रहे हैं ताकि मांओं को एनीमिया और शिशुओं को न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट्स से बचाया जा सके। इसका मतलब यह कि हेल्थकेयर सेक्टर में थोड़े से प्रशिक्षण और शिक्षण से ही ज्यादा माइक्रो न्यूट्रिएंट्स वाले पिल्स जरूरतमंदों तक पहुंचाए जा सकते हैं। इससे सरकार के खर्च में बहुत मामूली बढ़ोतरी होगी। हर साल 9 करोड़ से ज्यादा लोग निम्न और निम्न मध्य आय वाले देशों में जन्म लेते हैं। इस प्रयास से 3.6 करोड़ प्रेग्नेंट महिलाएं और उनके शिशु लाभान्वित हो सकते हैं।
इन नए पिल्स का पहले से ही बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है। इनमें आयरन और फॉलिक एसिड के अलावा विटामिन ए, बी1, बी2, डी और ई के साथ ही जिंक, कॉपर, आयोडिन और सेलेनियम जैसे 13 विटामिंस और मिनरल्स होते हैं। इसमें कितनी कम लागत आती है, यह इसी बात से समझा जा सकता है कि 180 दिनों की पूरी अवधि में एक मां पर आने वाला कुल खर्च एक डॉलर से कुछ ही अधिक पड़ता है। मतलब यह कि एक साल में 3.6 करोड़ महिलाओं पर पिल्स के साथ ही हेल्थकेयर ट्रेनिंग जैसे तमाम मद जोड़ लिए जाएं तो भी कुल खर्च आता है 8.4 करोड़ डॉलर मात्र।
(Photo : BlueWillow AI)
मल्टी-माइक्रोन्यूट्रिएंट् सप्लिमेंट्स हर साल 7,00,000 अजन्मे बच्चों में से 7 फीसदी को बचा सकते हैं। जन्म के समय बच्चे कम वजन के न हुए तो आगे इन बच्चों की उत्पादकता अधिक होती है। इन उपायों से जन्म के समय कम वजन वाले बच्चों के मामलों में 21 फीसदी कमी लाई जा सकती है। दूसरे शब्दों में इससे 14 लाख बच्चों को उच्च उत्पादकता हासिल करने में मदद मिलेगी। वित्तीय गणना करें तो इससे होने वाले फायदे इस पर होने वाले खर्च का 37 गुना ज्यादा बैठते हैं।
कैल्सियम टैबलेट की डिलिवरी अलग से की जाती है। ये काफी बड़े होते हैं। प्रेग्नेंसी के आखिरी 20वें हफ्ते में रोज दो टैब्लेट खाने होते हैं। इस पर लागत हर प्रेग्नेंसी 5.96 डॉलर या कुल करीब 21.6 करोड़ डॉलर आती है। ये माइक्रो-न्यूट्रिएंट्स के मुकाबले दोगुना ज्यादा प्रभावी साबित हो सकते हैं। उतनी ही संख्या में ये समयपूर्व जन्म और कम वजन वाले शिशुओं का जन्म भी टाल सकते हैं। यही नहीं, कैल्सियम एक्सेंप्लिया और प्री-एक्सेंप्लिया के मामले भी कम करते हैं। यह एक दुर्लभ लेकिन गंभीर बीमारी है, जो प्रेग्नेंसी या डिलिवरी के दौरान हाई ब्लडप्रेशर के रूप में उभर सकती है। सीधे शब्दों में इसका मतलब यह है कि कैल्सियम हर साल 8,500 मांओं की मौत रोक सकती है। कुल मिलाकर, इस पर होने वाले खर्च (करीब 4 अरब डॉलर) के मुकाबले फायदा 19 गुना ज्यादा है।
हालांकि प्रेग्नेंट महिलाओं को दिए जाने वाले माइक्रोन्यूट्रिएंट्स के मिश्रण में बदलाव लाना कुपोषण दूर करने का रामबाण नुस्खा नहीं है। शिशुओं को पूरक भोजन उपलब्ध कराने और उन्हें पहले 1000 दिनों तक पौष्टिक भोजन की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत करने की जरूरत है। अतिरिक्त भोजन का उत्पादन सुनिश्चित करने के दीर्घकालिक लक्ष्य के मद्देनजर कृषि की उपज बढ़ाने और ज्यादा तरह की फसलें सुनिश्चित करने के उपाय करने होंगे। लेकिन कुपोषण दूर करने के मामले में दुनिया किस कदर पिछड़ी हुई है, इसे देखते हुए हमें कहीं न कहीं से शुरू करना है और गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन की सप्लाई सुनिश्चित करना ऐसा सरल तरीका है जिसमें जानें बचाने की जबर्दस्त क्षमता है।
(विवेक देबरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं, ब्योर्न लोमबोर्ग कोपेनहेगन कंसेंशस के अध्यक्ष एवं आदित्य सिन्हा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में अपर निजी सचिव (अनुसंधान) हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं