How Rahul Gandhi and Opposition Unity will deal with PM Modi election gimmick one nation one election

नई दिल्ली: तू डाल-डाल तो मैं पात-पात। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके विरोधियों के बीच यही खेल चल रहा है। विरोधी जैसे ही घेरने की जुगत लगाते हैं, मोदी नया पासा फेंक देते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि इस बार मोदी घिर जाएंगे, लेकिन वो अचानक ऐसी चाल चल देते हैं कि कल तक मुस्कुरा रहे विरोधियों की हवाइयां उड़ने लगती है। यही वजह है कि मोदी की छवि एक दूरदर्शी, मेहनतकश और भरोसेमंद नेता की बन गई है। संभवतः उनके विरोधियों को भी पता होता है कि अगर हमने कोई चाल चली है तो मोदी ने उसकी काट पहले ही ढूंढ ली होगी। लेकिन कई बार विरोधी ही क्या, बड़े-बड़े विश्लेषक तक मोदी की संभावित चाल का अंदाजा नहीं लगा पाते हैं। विरोधी इन बातों को मोदी के गुणगान के रूप में देखेंगे, लेकिन सच्चाई यही है कि संसद का विशेष सत्र आहूत होने से वो पसोपेश में होंगे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा होगा कि आखिर पांच दिन का विशेष सत्र बुलाने के पीछे की मंशा क्या है। यही हाल राजनीतिक पंडितों का है। इसलिए अटकलों का बाजार गर्म है। जितने विश्लेषक, उतने दावे। तो एक दावा यह भी किया जा रहा है कि सरकार इस विशेष सत्र में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का बिल संसद में पेश कर सकती है। तो ‘डाल-डाल और पात-पात’ वाला मुहावरा इसमें कैसे फिट होता है, आइए जानते हैं…अजेय होते मोदी को घेरने की कवायद2014 और 2019 में लगातार बड़े अंतर से पराजित होने के बाद विपक्ष को विश्वास हो गया कि मोदी और बीजेपी को हराना है तो एकजुट होना ही होगा। इसके लिए कुछ त्याग करने की मजबूरी आन पड़ी तो वो भी देखा जाएगा। यही वजह है कि अलग-अलग लोगों ने इसकी पहल की। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने के लिए एक-एक कर पार्टियों को मनाने की शुरुआत की। इसी क्रम में उन्होंने अपनी पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) से बदलकर भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) कर दिया। लेकिन अचानक सीन से गायब हो गए और नए विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A में आए भी नहीं।उनके बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोर्चा संभाला। वो पहले दिल्ली आकर गांधी परिवार से मिल और फिर इशारा पाकर घूम-घूमकर क्षेत्रीय क्षत्रपों से बातचीत करने लगे। उधर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मुखर मोदी विरोधी हैं ही। उन्होंने भी विपक्षी एकजुटता के इस मिशन को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई। इस कवायद में जुटे एक और क्षत्रप, बल्कि कहें कि विपक्षी खेमे के सबसे कद्दावर चेहरों में एक, शरद पवार के साथ गेम हो गया। उनकी पार्टी एनसीपी दो फाड़ हो गई। महाराष्ट्र में उनके सहयोगी शिवसेना पहले ही टूट चुकी थी।लाल किले से ‘आएगा तो मोदी ही’ की हुंकार भर चुके पीएम को 2024 में आखिर कैसे रोक पाएगा विपक्ष का I.N.D.I.A.विपक्षी गठबंधन में पूरे देश का प्रतिनिधित्वखैर, जैसे-तैसे विपक्ष के 26 दल एकसाथ आ गए। इनमें एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस है और आप, डीएमके, टीएमसी, आरजेडी, सपा जैसे ताकतवर क्षेत्रीय दल शामिल हैं। महाराष्ट्र के दो दिग्गज दल एनसीपी और शिवसेना की ताकत कितनी बची है, यह तो देखना होगा। इनके अलावा बहुत से ऐसे नाम हैं जिनका जनाधार बिल्कुल सीमित है या फिर बहुत छोटे इलाके का प्रतिनिधित्व करते हैं। दलों की ताकत जो भी हो, लेकिन ये पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। पूरब-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण, चारों तरफ से प्रदेशों का प्रतिनिधित्व विपक्षी गठबंधन में है।हालांकि, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा जैसे प्रदेश ऐसे हैं जहां की ताकतवर पार्टियां जो वहां की सत्ता में है, ने किसी भी खेमेबाजी से दूरी बना रखी है। वो ना एनडीए में हैं और न इंडिया में। इसी तरह, उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीम मायावती ने खुद को गठबंधन से अलग कर रखा है। बावजूद इसके लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी इस नए विपक्षी गठबंधन को काफी गंभीरता से ले रहे हैं और ऐसा कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते जिससे विरोधियों को वाकओवर मिल जाए।I.N.D.I.A. की मीटिंग इस बार मेक या ब्रेक क्यों है विपक्षी दलों के लिए?विपक्षी एकजुटता पर गंभीर हैं मोदी-बीजेपी?एलपीजी गैस की कीमतों में प्रति सिलिंडर 200 रुपये की कटौती के ऐलान से ही इसकी भनक मिल गई। मोदी सरकार जब 2019 में लोकसभा चुनावों में उतर रही थी तब उसके नाम जिनती उपलब्धियां थीं, मतदाताओं को लुभाने की दृष्टि से कहीं अधिक उपलब्धियां उसके पास इस बार हैं। मसलन, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 का खात्मा, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, मथुरा-काशी में भी मंदिर-मस्जिद विवाद पर अदालती प्रक्रिया की शुरुआत, समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर औपचारिक घोषणा, नई संसद का उद्घाटन आदि को चुनावी प्रदर्शनी में ठीक से सजाया जा सकता है। लेकिन लगता है कि इस बार विपक्षी एकजुटता ने मोदी को मजबूर कर दिया है कि वो सिर्फ उपलब्धियों के सहारे न रहें बल्कि विपक्षी खेमे के मजबूत होने की किसी भी संभावना को भी छिन्न-भिन्न करने की पुरजोर और प्रभावी कोशिश करें।वन नेशन, वन इलेक्शन क्यों?तो क्या ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की चर्चा, इसी ओर संकेत कर रही है? अगर ‘एक देश, एक चुनाव’ का नियम लागू हो गया तो इससे बीजेपी को क्या फायदा होगा और विपक्ष को क्या नुकसान? असली खेल इसी के जवाब में निहित है। सोचिए ना-नुकुर और कई बार भारी मन से साथ आने वाले विपक्षी दलों के सामने जब अपने-अपने प्रभाव वाले प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में भी गठबंधन दलों के साथ सीटों का बंटवारा करने की नौबत आएगी तब क्या होगा! वो राष्ट्रीय स्तर पर एकजुटता दिखाने की मजबूरी में मुश्किल से साथ आए हैं। पश्चिम बंगाल का ही उदाहरण ले लीजिए। गठबंधन की घोषणा के बाद भी ममता बनर्जी की टीएमसी कह रही है कि वो किसी भी सूरत में वामदलों के हाथ में हाथ नहीं डाल सकती है।उधर, वामदल भी टीएमसी से गलबहियां करना तो दूर, उसके करीब भी फटकना नहीं चाहते हैं। फिर कांग्रेस को ही ले लीजिए। हाल ही में लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता और पश्चिम बंगाल कांग्रेस का एक प्रमुख चेहरा अधीर रंजन चौधरी ने ममता सरकार पर जोरदार हमला बोला है। ऐसी मुश्किलें कई अन्य प्रदेशों में विपक्षी एकजुटता के मुंह बाए खड़ी होने वाली हैं। तो यह माना जा सकता है कि सांसदी और विधायकी के चुनाव एक साथ हो गए, तो नए विपक्षी गठबंधन दलों में सीट बंटवारे पर मारकाट मच सकती और तब I.N.D.I.A का आइडिया ध्वस्त हो सकता है। मोदी और बीजेपी को और चाहिए ही क्या?संसद में एक देश-एक चुनाव पर पीएम मोदी ने क्या कहा था? पढ़ें 2019 का वह भाषणक्या संभव है इस बार ‘एक देश, एक चुनाव’ लागू कर पाना?एक बड़ा प्रश्न यह है कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव से ही ‘एक देश, एक चुनाव’ का कानून लागू किया जा सकता है? संवैधानिक स्थिति के अनुसार, नई सरकार को 26 मई, 2024 तक शपथ ग्रहण कर लेना है। करीब 1.5 अरब की आबादी वाले देश में चुनाव करवाना कोई आसान बात नहीं। पिछली बार 2019 के लोकसभा चुनाव सात चरणों में संपन्न हुए थे और मार्च महीने में ही चुनाव की अधिसूचना जारी हो गई थी। यानी चुनाव से लेकर नई सरकार बनने तक की प्रक्रिया में कुल तीन महीने लग गए थे। इस तरह देखें तो अगले वर्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने में अभी सात महीने बाकी हैं। तो क्या संभव है कि इन सात महीनों में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का कानून बनाकर उसे जमीन पर उतार दिया जाए?संविधान कहता है कि ऐसा कानून बनाने के लिए विधानसभा वाले कुल प्रदेशों में आधे से एक ज्यादा का भी अनुमोदन हो। इस नियम से कम-से-कम 16 राज्यों की विधानसभाओं से सहमति की दरकार होगी। इतने प्रदेशों में तो बीजेपी की ही सरकार है। तो कानून लाने का पहला चरण तो बहुत मुश्किल नहीं है। ऐसा जान पड़ता है कि सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में एक समिति का गठन करने का भी फैसला कर लिया है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कोविंद से मुलाकात भी की है। हालांकि, एक्सपर्ट्स का कहना है कि कानून लाने और नए कानून के मुताबिक लोकसभा के साथ-साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव करवाने के लिए कम-से-कम आठ महीने का वक्त लगेगा। तो आगे-आगे देखिए होता है क्या!