संजय निरुपम
लेखक: संजय निरुपम
मार्केटिंग का आधुनिक मंत्र है कि अगर आप अपने प्रॉडक्ट को लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं तो लोकल भाषा का इस्तेमाल करें। इस मंत्र को सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास ने पहचाना था। उन्होंने अवधी बोली में श्रीरामचरितमानस के रूप में एक ऐसा बेस्ट सेलर लिखा, जिसकी प्रतियां पिछले पांच सौ सालों से लगातार छप रही हैं। उस समय संस्कृत का बोलबाला था। दरअसल, यह एक क्रांति थी। हर साल दुर्गा पूजा के दिनों में हम इसी क्रांतिकारी सोच के उत्सव में डुबकी लगाते हैं।
मानस की कुछ चौपाइयों के कारण तुलसीदास फिर से विवादों में आ गए हैं। वह जीते-जी भी हमेशा विवादों में रहे बल्कि देखा जाए तो विवाद उनके जन्म से ही शुरू हो गया था। कहते हैं, वह मां की कोख से बारहवें महीने में पैदा हुए थे। जब पैदा हुए तो उनके मुंह में सारे बत्तीस दांत थे। ऐसे मुहूर्त में पैदा हुए थे कि पिता की मृत्यु का कारण हो सकते थे। माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया। घर की नौकरानी ने दूर ले जाकर उन्हें पाला-पोसा। वह भी जल्दी चल बसी। फिर एक ब्राह्मण ने उन्हें संभाला। उन्होंने उन्हें रामायण के बारे में बताया। बाद में उन्होंने बनारस आकर संस्कृत की विविधवत शिक्षा ली। संस्कृत के प्रकांड विद्वान बन गए। यह भक्ति काल था। तभी सूरदास, रहीम और मलिक मुहम्मद जायसी अपने-अपने सांचे में ढल रहे थे।
बच्चे जब पैदा होते हैं तो रोते हैं। कहते हैं, जब तुलसीदास जी पैदा हुए तो रोए नहीं थे, राम बोले थे। इसलिए इनका पहला नाम रामबोला था। बहरहाल, रामबोला तुलसीदास बनके राम की कथा सुनाने के लिए बेचैन हो रहे थे। वाल्मीकि कृत रामायण संस्कृत में थी। सर्वसामान्य की पहुंच से बाहर। तुलसीदास जी राम को, राम के आदर्श को, राम के मूल्यों को घर-घर पहुंचाना चाहते थे। तुलसीदास जी के लिए राम सिर्फ उनके आराध्य देवता नहीं थे, बल्कि एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पिता और आदर्श राजा थे। उस दौर में सत्ता के लिए भाई-भाई की हत्या कर देते थे, पुत्र पिता को बेदखल कर देते थे। राजा-रजवाड़े अपना राजपाट बचाने के लिए अनैतिक समझौते कर रहे थे। मगर राम अपने पिता की वचनपूर्ति के लिए राज्याभिषेक छोड़कर वनवास चले जाते हैं। पूरी दुनिया सत्ता के लोभ में खून-खून खेल रही थी, मनुष्यता रोज शमर्सार हो रही थी, तब तुलसीदास ने राम का त्याग परोसने का बीड़ा उठाया। एक विद्वान, परम भक्त और कर्मकांडी ब्राह्मण के अंदर छटपटाहट हो रही थी। राम को जन-जन तक पहुंचाना है। मगर कैसे?
संस्कृत की सीमाएं थीं। हिंदी तब ठीक से जन्मी नहीं थी। इसलिए उन्होंने वाल्मीकि के रामायण को अवधी में लिखना शुरू किया। रामायण के राम नायक थे, राजा थे। तुलसीदास जी ने राम की पूजा की। उन्हें तमाम पुरुषों में उत्तम, मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में सेलिब्रेट किया। ढाई साल के लेखन के बाद जब अयोध्या के राजा ठेठ अवधी में अवतार लिए तो बनारस के संस्कृत विद्वानों में हड़कंप मच गया, उन्होंने विद्रोह कर दिया। बॉलिवुड की फिल्मों की तरह तुलसीदास जी का बॉयकॉट करने की धमकी दे दी। विद्वानों का तर्क था कि हमारे धर्म ग्रंथ सिर्फ संस्कृत में ही लिखे जा सकते हैं। दूसरी भाषा में लिखा तो अधर्म हो जाएगा। वैसे ही जैसे जर्मन पुजारी मार्टिन लूथर ने बाइबल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया तो पूरे यूरोप में सन्नाटा छा गया था। चर्च ने कहा था कि बाइबल सिर्फ लैटिन में ही लिखा-पढ़ा जा सकता है। लूथर लड़े। तुलसीदास जी भी लड़े।
अपनी बोली से उन्हें अगाध प्यार था और उसकी ताकत पर विराट विश्वास। उनका विश्वास तोड़ने की कई किंवदंतियां हैं। कहते हैं, विद्वानों ने मंदिर के एक कमरे में मानस को कई हिंदू धर्म ग्रंथों के नीचे रखकर बंद कर दिया। सुबह दरवाजा खुला तो मानस सबसे ऊपर था। फिर भी विद्वान हार नहीं माने। क्षुब्ध होकर तुलसीदास जी ने कहा, ‘धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ…’ मिसद (मिस्जद) में रहूंगा, मगर राम नाम गाता रहूंगा। विद्वत परिषद उनकी धमकी से डर गई। आखिर सुलह हुई। फिर इतिहास की धार बही। रामायण के जो राम संस्कृत के विद्वानों की कथा में रहे, वही राम अवधी में घर-घर पहुंच गए। लोग अपनी भाषा में मानस की चौपाइयां गाने लगे। आज भी गा रहे हैं। तुलसीदास का यही विजन था। अगर तुलसीदास ने रामचरितमानस नहीं लिखा होता, तो क्या राम की कथा इतना मजबूत खूंटा गाड़ पाती? शायद नहीं।
तुलसीदास यहीं नहीं रुके। उन्होंने रामलीला का मंचन शुरू करवाया। कहते हैं, बनारस की पहली रामलीला मंडली तुलसीदास जी ने बनाई। अपनी चौपाइयों को राग और धुन दिए। तब से उत्तर भारत में रामलीला का जो मंचन शुरू हुआ, आज तक जारी है। उत्तर भारत के गांव-गांव में और दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में आज जो रामलीलाएं होती हैं, वह तुलसीदास की दूरदर्शिता की देन हैं। आईने अकबरी में अबुल फजल ने सब कुछ लिखा है। वेद, पुराण और महाभारत से लेकर सारे अवतारों पर। राम की कथा का जिक्र नहीं है क्योंकि तब तक रामायण के राम ज्ञान की सीमाओं में कैद थे। उन्हें खुले मैदान में विराट स्वरूप में विराजित करने के लिए उपस्थित हुआ रामचरितमानस शैशव काल में था।
वह शहंशाह अकबर का दौर था। अकबर के नवरत्नों में से एक रहीम तुलसीदास के खास मित्र थे। अकबर ने रहीम से संदेशा भिजवाया कि वह तुलसीदास को अपने दरबार का दसवां रत्न बनाना चाहते हैं। स्वाभिमानी ब्राह्मण ने शहंशाह का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया। अकबर तुलसीदास से मिलने बनारस आए और गोस्वामी जी के साथ राम कथा में ऐसी डुबकी लगाई कि दीवाने हो गए। उन्होंने भी राम कथा पर आधारित झांकियां शुरू करवाईं। इलाहाबाद में आज भी वे झांकियां निकलती हैं। शहंशाह अकबर के फरमान के साथ।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं