चाहे आलोचक हों या प्रशंसक, निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने अपनी फिल्म ओपेनहाइमर के साथ दुनियाभर के दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। एक बायोपिक जिसने एटॉमिक फिजिक्स, मैनहट्टन प्रॉजेक्ट और निश्चित रूप से उस परियोजना के निदेशक जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिनकी वजह से अमेरिका ने दुनिया का पहला परमाणु बम बनाया और द्वितीय विश्व युद्ध में इसका विनाशकारी उपयोग किया। लेकिन यहां उससे पहले के वर्षों की एक छोटी सी बात है, यहां तक कि द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से पहले की। यह कि ओपेनहाइमर के पीएचडी गाइड, क्वांटम फिजिक्स के वैज्ञानिक और गणितज्ञ मैक्स बॉर्न ने नोबेल पुरस्कार विजेता सीवी रमन के प्रयासों की बदौलत बेंगलुरु के आईआईएससी में छह महीने बिताए थे।बॉर्न को उनके आईआईएससी के कार्यकाल के लिए 15 हजार रुपये पेमेंट किया गया था, जो उस समय कैम्ब्रिज के मानदेय से ज्यादा था, जहां वो अस्थायी पद पर थे। आईआईएससी ने बॉर्न और उनकी पत्नी को रहने के लिए एक बंगला भी दिया था। लेकिन सबसे पहले बोर्न-ओपेनहाइमर संबंधों की चर्चा। 1926 में मैनहट्टन प्रॉजेक्ट का नेतृत्व करने से कई साल पहले ओपेनहाइमर, मैक्स बॉर्न के अधीन अध्ययन करने के लिए कैम्ब्रिज से गॉटिंगन विश्वविद्यालय के लिए रवाना हुए, जो उस समय सैद्धांतिक भौतिकी के लिए दुनिया के अग्रणी केंद्रों में से एक था। यह बॉर्न के भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जीतने से लगभग तीन दशक पहले की बात है।Bawaal Movie: होलोकॉस्ट क्या था जिसे ‘गलत’ दिखाने पर भारत की इस फिल्म पर भड़का इजरायल, प्रतिबंध की मांगरमन का विजनआईआईएससी की त्रैमासिक पत्रिका ‘कनेक्ट’ के अनुसार, आईआईएससी की स्थापना के लगभग 25 साल बाद 1933 में रमन को निदेशक नियुक्त किया गया था, तो संस्थान में केवल चार विभाग थे- सामान्य रसायन विज्ञान (General Chemistry), जैविक रसायन विज्ञान (Organic Chemistry), जैव रसायन विज्ञान (Biochemistry) और विद्युत प्रौद्योगिकी (Electrical Technology), जिनसे ज्यादातर अनुसंधान, औद्योगिक अनुप्रयोगों (Industrial Applications) के लिए ही हुआ करते थे। पत्रिका के दिसंबर 2022 के अंक में कहा गया है, ‘उनके (रमन के) मुख्य कार्यों में एक भौतिकी विभाग की स्थापना करना था जिसकी सिफारिश सरकार द्वारा नियुक्त दो समीक्षा समितियों, पोप समिति (1921) और सेवेल समिति (1931) ने की थी।’सीवी रमन ने भौतिकी विभाग की स्थापना फटाफट कर दी। हालांकि, इस विभाग में वो एकमात्र संकाय सदस्य (Faculty Member) थे। उन्होंने अपने छात्रों के साथ सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक भौतिकी में अनुसंधान शुरू किया, जिससे उच्च गुणवत्ता के कई प्रकाशन हुए। लेकिन रमन ने महसूस किया कि अगर बेंगलुरु को भौतिकी के लिए एक विश्व स्तरीय केंद्र बनाना है, तो इसे इस विषय के विश्व स्तरीय विद्वानों (भौतिकविदों) की आवश्यकता होगी। वह विशेष रूप से उत्सुक थे कि आईआईएससी परमाणु भौतिकी का केंद्र बने।निदेशक के रूप में रमन का कार्यकाल शुरू हुआ तो संयोग से जर्मनी में नाजी पार्टी का उदय भी हुआ। उस वक्त यहूदी विरासत के कई भौतिकविदों को जर्मनी से भगाया जा रहा था। रमन को विश्वास था कि वो उनमें से कुछ को आईआईएससी में आने के लिए मना सकते हैं। आईआईएससी के पूर्व निदेशक और रमन के भतीजे एस. रामासेन ने ‘करंट साइंस’ के एक लेख में कहा है कि रमन ने भारत में ज्ञान के क्षेत्र में कमियों की पहचान की और ‘हिटलर के अत्याचार से बचने के लिए भाग रहे प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों में से कई को शिक्षक’ के रूप में भर्ती करने की रणनीति अपनाई।JRD Tata Birthday: जानते हैं देश का पहला कंप्यूटर भारत में कब और कहां बना था? जेआरडी से है इसका संबंधआईआईएससी आ गए बॉर्नवही वक्त था जब ओपनहाइमर के पीएचडी गाइड बॉर्न को आईआईएससी में आमंत्रित किया गया। कई पत्रों के आदान-प्रदान के बाद 17 जनवरी, 1935 को रमन ने बॉर्न को सैद्धांतिक भौतिकी में रीडर के पद के लिए नियुक्ति पत्र भेजा। यह 1 अक्टूबर, 1935 से शुरू होने वाले छह महीने के लिए एक विशेष नियुक्ति थी, जिसमें 15 हजार रुपये का मानदेय था।रमन को लगा था कि बॉर्न को आईएसएससी में स्थायी पद लेने के लिए मना लिया जाएगा, लेकिन बॉर्न नहीं माने। 52 वर्षीय बॉर्न ने अपनी उम्र और भारत के जलवायु के साथ-साथ कई अन्य बातों का हवाला देकर आईएसएससी के पर्मानेंट फैकल्टी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। बॉर्न ने तब कहा कि वो पहले कुछ महीनों के लिए आईआईएससी जाकर व्याख्यान देना चाहेंगे। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफाइल पेज में कहा गया है कि वैसे तो बॉर्न ने लूथरनवाद (Lutheranism) अपना लिया था, फिर भी नाजी जर्मनी के यहूदी विरोधी कानूनों के अनुसार उनके यहूदी वंश के लिए उन्हें टार्गेट किया गया। 1933 में जर्मनी से भागकर बॉर्न ने कैम्ब्रिज में एप्लाइड मैथमेटिक्स के स्टोक्स लेक्चरर का पद स्वीकार किया। फिर छह महीने के लिए बेंगलुरु में रहे।’बॉर्न 28 सितंबर, 1935 को अपनी पत्नी हेदी के साथ आईआईएससी पहुंचने से पहले ही भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में काफी प्रतिष्ठा पा चुके थे। 1920 के दशक में, इरविन श्रोडिंगर (Erwin Schrodinger), जेम्स फ्रैंक (James Franck) और वर्नर हाइजेनबर्ग (Werner Heisenberg) जैसे वैज्ञानिकों के साथ उन्होंने क्वांटम यांत्रिकी (Quantum Mechanics) की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। क्वांटम मेकैनिक्स वह सिद्धांत है जो परमाणुओं और उपपरमाण्विक कणों (Atoms and Sub-Atomic Particles) के पैमाने पर प्रकृति की व्याख्या करता है।जिंदा हो गया 46,000 साल पुराना कीड़ा, नई तबाही की दस्तक तो नहीं, जानें अब तक कहां सोया था यह जीवऔर फूट पड़ा अंग्रेज1998 में रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट (आरआरआई) से प्रकाशित ऐतिहासिक टिप्पणियों में कहा गया है कि ‘बॉर्न ने आईआईएससी में अपने प्रवास का आनंद लिया और उनके व्याख्यानों की बहुत सराहना की गई। उन्होंने पाया कि आईआईएससी में शोध छात्र बहुत बुद्धिमान थे और उन्होंने रमन के स्थायी पद के मूल प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।’हालांकि, ऐसा नहीं होना था। आरआरआई के अनुसार, बॉर्न को स्थायी नियुक्ति देने के मामले पर विचार के लिए हुई एक बैठक में ‘रमन ने बॉर्न के असाधारण गुणों के बारे में बात की… उसके बाद एक अंग्रेज (विज्ञान या इंजीनियरिंग के क्षेत्र में बहुत कम जाने जाते हैं) ने बॉर्न के बारे में अविश्वसनीय रूप से बहुत अपमानजनक तरीके से बात की।’ कनेक्ट में उस अंग्रेज का नाम केनेथ एस्टन बताया है।फिर क्या हुआ? आईआईएससी के अनुसार, रमन तो बॉर्न को स्थायी पद देने के इच्छुक थे और चूंकि बॉर्न इस प्रस्ताव पर विचार करने को भी सहमत थे तो दो सर्च कमिटियों का गठन किया गया- एक बेंगलुरु में (रमन के नेतृत्व में) और दूसरी लंदन में (फिजिसिस्ट अर्नेस्ट रदरफोर्ड के नेतृत्व में)। ‘यह केवल औपचारिकता मात्र थी- दोनों समितियां बॉर्न को पद देने के पक्ष में थीं।’हालांकि, रमन को संकाय निकाय (Faculty Body) सीनेट और काउंसिल की मंजूरी भी लेनी पड़ी। कुछ मान-मनव्वल के साथ, उन्होंने बॉर्न को गणितीय भौतिकी में प्रोफेसरशिप देने के लिए निकाय को मना लिया। हाल ही में विद्युत प्रौद्योगिकी विभाग में प्रोफेसर नियुक्त हुए एक अंग्रेज एस्टन ने सीनेट की बैठक के दौरान न केवल रमन बल्कि बॉर्न पर भी हमले किए।कनेक्ट में प्रकाशित बॉर्न के बयान के अनुसार, ‘एस्टन ऊपर गए और रमन के प्रस्ताव के खिलाफ बहुत अप्रिय तरीके से बोला। उनकी दलील थी कि अपने ही देश से निष्कासित दूसरे दर्जे का विदेशी संस्थान लिए सही नहीं है। यह विशेष रूप से निराशाजनक था क्योंकि हम एस्टन के प्रति उदार थे… (दरअसल, वो बॉर्न के बाद आईसीएससी आए थे और जब तक उनका बंगला तैयार नहीं हुआ था, वो बॉर्न के साथ ही मेहमान के रूप में रहे थे)। मैं इतना हिल गया था कि जब मैं हेडी के पास पहुंचा तो मैं बस रोने लगा।’ भारतीय विज्ञान अकादमी अभिलेखागार के अनुसार, नवंबर 1935 और अप्रैल 1936 के बीच बॉर्न ने आईआईएससी में कई वैज्ञानिक लेख लिखे। वैज्ञानिक तब से अफसोस जाहिर कर रहे हैं कि भारत बॉर्न जैसे विद्वानों का केंद्र नहीं बन पाया।