Increased fear of Man Eater Tigress in Uttarakhand

व्‍योमेश चन्‍द्र जुगरान

क्‍या उत्तराखंड में बाघों और तेंदुओं के कारण इंसानी जान की कीमत शासन की निगाहों में और सस्‍ती हो चुकी है? यह सवाल इसलिए उठा है क्‍योंकि राज्‍य सरकार ने लाइसेंसशुदा शिकारियों का पैनल हमेशा के लिए भंग कर दिया है। यह पैनल 2006 से ही उत्तराखंड की सरकारी व्‍यवस्‍था का अंग था। इन शेरदिल शिकारियों का आम लोगों को बड़ा आसरा था। पहाड़ का कितना भी दुर्गम इलाका हो, तेंदुओं से लोगों की हिफाजत का सबसे अधिक विश्‍वास इन्‍हीं शिकारियों ने अर्जित किया। जिम कॉर्बेट से शुरू करें तो आज तक पहाड़ में नरभक्षियों के आतंक से निजात दिलाने में एक से बढ़कर एक शिकारियों की कहानियां लोगों का दिल जीतती आई हैं।

दिलचस्प बात यह है कि शिकारियों के पैनल पर सरकार को एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता। ये लोग वन विभाग के बुलावे पर किसी ऑपरेशन में शामिल होते हैं तो अपना सारा खर्च खुद ही वहन करते हैं। यहां तक कि अपनी बंदूक के लिए कारतूस भी ये खुद खरीदते हैं।
दूसरी ओर वन विभाग पर हिंसक वन्‍यजीवों से जनता की हिफाजत का जिम्‍मा है, लेकिन महकमे के फॉरेस्‍ट गार्ड और अन्‍य वनकर्मी टाइगर रिजर्व में तैनात कर्मियों की तरह ट्रेंड नहीं हैं।
राज्‍य सरकार कह रही है कि पेशेवर शिकारियों के विकल्‍प के तौर पर वह संबंधित ऑपरेशनों के लिए वनकर्मियों को प्रशिक्षित करेगी, साथ ही पुलिस बल की भी मदद लेगी।
इसके अलावा वन विभाग के सहयोग से NCC के करीब 40 हजार कैडेट तैयार किए जाएंगे, जो लोगों को जंगली जानवरों से आत्‍मरक्षा के गुर सिखाएंगे।

लेकिन सरकार की इस नीति पर विशेषज्ञों ने कई तरह के प्रश्‍न उठाए हैं।

किसी आदमखोर जानवर, खासकर बाघ या तेंदुए को मारने के लिए वर्षों का तजुर्बा चाहिए।
सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि जानवर तक कब और कैसे पहुंचा जाए और कैसे शिनाख्‍त की जाए कि आदमखोर यही है।
तजुर्बे का अभाव और मामूली चूक के कारण निर्दोष जानवर की जान जा सकती है।
इससे दोहरा नुकसान होता है। बेकसूर जानवर मारा जाता है और आदमखोर बेखौफ घूमते हुए अगली वारदात कर डालता है।

कुछ ही समय पहले फॉरेस्‍ट वालों ने अल्‍मोड़ा बाजार में आदमखोर समझकर एक मादा बाघ को शूट कर दिया, जबकि सच यह था कि यह मादा जंगल से भटक कर भूख के मारे बस्‍ती में दाखिल हो गई थी। यह वाकया पिछले साल नवंबर का है। राष्‍ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने इस घटना की जांच के बाद इसी साल मार्च में अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि कॉर्बेट नैशनल पार्क की यह बाघिन बेहद शांत स्‍वभाव की थी और उसने आज तक किसी मनुष्‍य पर हमला नहीं किया था। उत्तराखंड में इस साल ऐसी ही घटनाओं में 12 बाघों की जानें जा चुकी हैं।
यह बात सही है कि सामान्‍य बाघ और आदमखोर में फर्क अनुभवी विशेषज्ञ ही कर सकता है। इसके लिए बाघ का व्‍यवहार समझना पड़ता है और उसकी सक्रियता वाले इलाके का हिस्‍सा बनना पड़ता है। यह काम जोखिम भरा होता है।

उत्तराखंड में वन विभाग के पास ऐसे विशेषज्ञों की भारी कमी है। यहां तक कि नरभक्षी को पकड़ने के लिए पिंजरा लगाने के लिए भी उसे बाहर से जानकार बुलाने पड़ते हैं।
जानवर को ट्रैंकलाइज करने के लिए भी खास तरह की विशेषज्ञता चाहिए।
वन विभाग का दावा है कि कुछ सालों में उसके पास इन कार्यों के लिए ट्रेंड टास्‍क फोर्स के अलावा लोगों को आत्‍मरक्षा के प्रति जागरूक करने वाले NCC कैडेटों का बेड़ा होगा।

ये बातें कहने और सुनने में अच्‍छी लगती हैं, लेकिन कसौटी पर कितना खरा उतरेंगी, कहना मुश्किल है। वन्‍यजीवों के साथ सहजीवन का पाठ तो सरकार बहुत पहले से पढ़ाती आई है और पहाड़ में ऐसे अनेक NGO उसके इस मिशन की ‘खानापूर्ति’ करते आए हैं। इन सबके बीच सच यही है कि पहाड़ में आम आदमी आदमखोर जानवरों के रहमोकरम पर है।

एक गैर सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 1 जनवरी 2000 से 24 मई 2023 तक उत्तराखंड में तेंदुओं ने 505 और टाइगर ने 69 लोगों की जान ली।
यह भी समझना होगा कि गांव में गाय पर टिकी किसी परिवार की अर्थव्यवस्था इस दुधारू पशु पर बाघ के एक हमले से तहस-नहस हो जाती है।

इन सवालों पर अदालत कोई आदेश देती है तो उसे भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। नैनीताल हाईकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका पर दो जजों की बेंच ने राज्‍य सरकार को निर्देश दिया कि वह प्रधान मुख्‍य वन संरक्षक की अध्यक्षता में दो सप्ताह के भीतर विशेषज्ञों की एक कमिटी बनाए और इसका ब्‍योरा दे। मगर याचिकाकर्ता को अभी तक कोई जानकारी नहीं दी गई है। याचिका में दिए गए सुझाव भी गौर करने लायक हैं।

गांवों के आसपास लगभग 100 मीटर के अंदर हर खेत को आबाद करवाया जाए और जंगली झाड़ियां साफ करवाई जाएं।
प्राथमिकता के आधार पर संवेदनशील गांवों में जालीदार तार-बाड़ से सुरक्षा घेरा बनाया जाए।
वनों के गड़बड़ाते इकोसिस्‍टम को बहाल करने की दिशा में काम हो ताकि वन्यजीव जंगल में ही रह सकें।

सवाल है कि ऐसे सुझावों पर ढंग से अमल करवा कर पहाड़ के गांवों में पसरे खौफ का इलाज कब होगा। इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं