लेखकः रंजीत कुमाररूस और अमेरिका के रिश्ते ऐसे नहीं हैं कि इनके राष्ट्रपति साथ बैठ कर खाना खाएं, लेकिन 16 जून को जिनीवा में राष्ट्रपति बाइडन और राष्ट्रपति पूतिन के बीच हुई चार घंटे की दो टूक बातचीत के बाद दोनों के बीच विश्वास का दायरा जरूर बढ़ा है। इसे और गहराई देने के लिए दोनों राष्ट्रपतियों ने सैन्य संघर्ष और परमाणु युद्ध का जोखिम घटाने के साथ परस्पर साइबर सुरक्षा को मजबूत करने के लिए एकीकृत द्विपक्षीय सामरिक स्थिरता वार्ता शुरू करने पर सहमति दी है। दोनों नेताओं ने माना है कि परमाणु युद्ध कभी भी जीता नहीं जा सकता।
दोनों को संभलना होगाइस सहमति को अमल में लाने के लिए दोनों देशों के परमाणु शस्त्र भंडार में मौजूद हजारों परमाणु हथियारों को निष्क्रिय कर आपसी विश्वास को इतना गहरा बनाना होगा कि दोनों में से कोई एक दूसरे को नीचा ना दिखाए। इसके लिए दोनों को एक साथ कई ठोस कदम उठाने होंगे। रूस को सुनिश्चित करना होगा कि उसकी धरती से अमेरिका पर साइबर ठगी वाले हमले, वहां की राजनीति और राष्ट्रपति चुनावों में दखल बंद हो। उसे पड़ोसी उक्रेन के क्राइमीया इलाके पर कब्जा करने और उक्रेन को धमकाने के लिए सीमा पर फौज तैनाती जैसी हरकतें रोकनी होंगी। साथ ही, रूस में विपक्षी नेताओं को जेल भेजने जैसी कार्रवाई रोकनी होगी।
दूसरी ओर, अमेरिका को रूस की इन हरकतों के जवाब में प्रतिबंध लगाने जैसी कार्रवाई से बचना होगा। रूसी राष्ट्रपति पूतिन को हत्यारा जैसा अपशब्द कहकर चिढ़ाना बंद करना होगा। राष्ट्रपति बाइडन के इसी बयान के बाद रूस ने अमेरिकी राजदूत को मॉस्को से निकाल कर अपने राजदूत वॉशिंगटन से बुलाए थे। स्वाभाविक था कि रूस और अमेरिका के बीच रिश्ते शीतयुद्ध के समापन के बाद अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गए। अमेरिका को यह भी देखना होगा कि शीतयुद्ध की समाप्ति का असर अमेरिकी अगुआई वाले नाटो सैन्य संगठन की सक्रियता कम करने पर दिखे और रूस की सीमा तक नाटो का विस्तार न हो। अगर ऐसा होता है तो रूस जवाबी सैन्य कदम उठाएगा। अमेरिका को यह भी देखना होगा कि वह रूस को दीवार तक इतना पीछे ना ढकेल दे कि रूस, अमेरिका के लिए खतरा बन चुके चीन के साथ हाथ मिलाकर अमेरिकी सामरिक हितों के खिलाफ कदम उठाए।
रूस और अमेरिका के बीच रिश्ते बिगड़ने का सीधा असर दुनिया में सैन्य तनाव बढ़ने और सामरिक खींचातानी पर दिखने लगता है। अमेरिका जब रूस पर सामरिक और आर्थिक दबाव बढ़ाता है तो रूस का चीन का हाथ पकड़ना स्वाभाविक है। अमेरिका को सामरिक चुनौती देने के लिए रूस और चीन साथ मिलते हैं तो इसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष असर भारत पर पड़ता है। हालांकि भारत, रूस और चीन की अगुआई वाले शंघाई सहयोग संगठन, भारत, रूस और चीन के बीच त्रिपक्षीय वार्ता मंच (आरआईसी) और पांच देशों के संगठन ब्रिक्स में सदस्य है, लेकिन जब भारत ने अमेरिकी अगुआई वाले क्वाड्रिलैटरल फ्रेमवर्क (चुतुर्पक्षीय गठजोड़ जिसे क्वाड भी कहते हैं) में अपनी सक्रियता बढ़ाई तो चीन के अलावा रूस ने भी अपना एतराज साफ जाहिर किया।
रूस और अमेरिका जितना एक दूसरे के विरोधी होंगे, चीन और रूस के बीच सामरिक दोस्ती उतनी ही गहरी होती जाएगी। अमेरिका बनाम रूस-चीन जैसे सैन्य ध्रुवों के बीच चल रहे द्वंद्व में भारत का पिसना स्वाभाविक होगा। भारत के लिए अमेरिका सामरिक साझेदार है तो रूस भी पारंपरिक सामरिक साझेदार रहा है। इस नाते भारत पर रूस के कई एहसान भी हैं और वह भारत का भरोसेमंद सैन्य साझेदार बनकर भी उभरा है। इसलिए अमेरिका से दोस्ती की खातिर भारत, रूस को नहीं त्याग सकता। अमेरिका ने रूस पर जब प्रतिबंध लगाए तो इसका अप्रत्यक्ष असर भारत-रूस रक्षा संबंधों पर पड़ने का खतरा पैदा हो गया। अमेरिका ने जब रूस पर प्रतिबंध लगाने वाला कैटसा कानून लाया तो भारत से कहा कि रूस से एस-400 एंटी मिसाइलों की खरीद ना करे। लेकिन भारत को दो टूक अमेरिका से कहना पड़ा कि भारत ऐसा कर रूस से विशेष रक्षा संबंध नहीं तोड़ सकता। आखिर रूस ने भारत को जहां परमाणु पनडुब्बियों की सप्लाई की है, वहीं भारत के स्वदेशी परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम में भी अहम योगदान किया है। भारत की सेनाएं रूस पर काफी हद तक निर्भर हैं।
इतनी गहरी दोस्ती के बावजूद रूस जहां भारत और चीन के बीच चल रहे मौजूदा तनाव में तटस्थ बना रहा है, वहीं वह पाकिस्तान के साथ सैन्य संबंध गहरे करने लगा है। जिस तालिबान के खिलाफ भारत और रूस ने दो दशक पहले संयुक्त रणनीति में भागीदारी की थी, उसी तालिबान का रूस अब हमदर्द बन चुका है।
रूस, अमेरिका में न बढ़े तनावलेकिन इसके बावजूद रूस का साथ भारत नहीं छोड़ सकता। हर राजनयिक, सामरिक और सैन्य मोर्चे पर चीन की भारत के खिलाफ बढ़ती आक्रामकता का जवाब देने के लिए भारत अमेरिका खेमे वाले क्वाड गुट में अपनी सक्रियता बढ़ाने पर मजबूर हुआ है। फिर भी यह याद रखना होगा कि चीन की हरकतों का जवाब देने के लिए भारत को अमेरिका और रूस दोनों का साथ चाहिए। पिछले साल जब चीन के साथ तनाव काफी बढ़ गया था तो रूस ने भारत को जरूरी सैन्य साजो-सामान भिजवाने में देरी नहीं की। इसलिए भारत ना ही रूस, ना अमेरिका का साथ छोड़ सकता है। लेकिन जब दोनों के बीच सामरिक तनाव बढ़ेगा तो भारत को अपना झुकाव साफ करना होगा।
इसलिए भारत के लिए यह काफी अहम है कि रूस और अमेरिका के बीच दोस्ती में इतनी मिठास हो कि भारत को दोनों से समान दोस्ती बनाए रखने में झिझक न हो। रूस और अमेरिका के बीच जब दोस्ती और परस्पर विश्वास बढ़ेगा तो रूस को अमेरिका को संतुलित करने के लिए चीन के साथ की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसलिए भारत के नजरिये से देखें तो रूस और अमेरिका के बीच रिश्ते में तनाव और टकराव कम होना अच्छी बात है क्योंकि इससे चीन की चुनौतियों से निबटने में आसानी होगी।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं