हर्ष वी. पंत
पिछले सप्ताह साउथ अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में ब्रिक्स के विस्तार को लेकर जो भी बहस, विवाद और हल्ला-गुल्ला चल रहा हो, असल नाटक उससे अलग कहीं और ही चल रहा था। एक तरफ हाल में व्लादिमीर पूतिन को चुनौती देकर चर्चित हुए येवगेनी प्रिगोजिन को ले जा रहे प्राइवेट जेट के दुर्घटनाग्रस्त होने और उस पर सवार सभी 10 यात्रियों के मारे जाने की खबर आई तो दूसरी ओर चंद्रयान-3 के चंद्रमा पर लैंड करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिखर बैठक में घोषणा की, ‘भारत चांद पर पहुंच चुका है।’ भारत ने यह कामयाबी रूस द्वारा चांद के उसी स्थान के लिए भेजे गए अंतरिक्ष यान लूना-25 के बेकाबू होकर चांद पर गिरने के दो ही दिन बाद हासिल की।
भारत और रूस का अंतर
भारत और रूस के बीच का यह अंतर और दुनिया को देखने का उनका एकदम अलग नजरिया ही ब्रिक्स को एक मंच के रूप में आकार दे रहा है। ब्रिक्स नाम का प्रॉजेक्ट 2000 के दशक के शुरू में हो रहे वैश्विक आर्थिक बदलावों को समझने की इन्वेस्टमेंट बैंकर की कोशिशों के रूप में सामने आया था। फिर साल 2009 में जब इन देशों के नेता साथ आए तो उन्होंने वक्त की नजाकत को समझने में देर नहीं की। पहली बार इस टर्म का इस्तेमाल किए जाने के आठ साल बाद ब्रिक गठबंधन राजनीतिक मंच का रूप ले सका, जब आखिरकार ब्राजीलियन राष्ट्रपति लुला डा सिल्वा, भारतीय प्रधानमंत्री डॉ, मनमोहन सिंह और चीनी राष्ट्रपति हू चिनताओ ने तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति मेदवेदेव का रूस के येकातरेनबर्ग में होने वाले पहले ब्रिक शिखर सम्मेलन में शामिल होने का आमंत्रण स्वीकार किया।
तब संयुक्त बयान में कहा गया था कि ब्रिक देश ग्लोबल गवर्नेंस में बहुपक्षीय नियमों और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थन करते हैं। वे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों में लोकतांत्रिक, पारदर्शी फैसलों और उन पर अमल करने को लेकर प्रतिबद्ध हैं। इन नेताओं ने इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए अपने-अपने देशों को वित्तीय संस्थाओं में सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया।
यह कुछ हद तक प्लूरीलैटरल्स युग की शुरुआत थी, जहां कुछ देश वैश्विक आर्थिक मामलों में अपनी मांगों पर जोर देने के लिए तात्कालिक गठबंधन बना लेते थे। 2010 में ब्रासीलिया में हुए दूसरे ब्रिक शिखर सम्मेलन में संगठन से साउथ अफ्रीका भी जुड़ गया। तभी से यह संगठन ब्रिक्स कहलाने लगा। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में मजबूत आवाज के मद्देनजर ब्रिक्स देशों के सामने दो विकल्प थे- ग्लोबल गवर्नेंस को चुनौती दी जाए या उसमें सुधार किया जाए। 2013 के डरबन शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स नेताओं ने ब्रिक्स डिवेलपमेंटल बैंक बनाने का फैसला किया। यह ऐसा इंस्टिट्यूशन था, जो दोनों विकल्पों को एक साथ साधने की राह पर ले जा सकता था।
ब्रिक्स डिवेलपमेंट बैंक को निश्चित ही मौजूदा वित्तीय व्यवस्था के लिए एक चुनौती के रूप में देखा जा सकता है।
सदस्य राष्ट्रों ने 50 अरब डॉलर की शुरुआती राशि से बैंक को सपोर्ट दिया।
इस तरह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का विकल्प तैयार किया गया, जिसके पास 2011 में आधिकारिक तौर पर 630 अरब डॉलर की राशि थी।
ब्रिक्स नेताओं की कोशिश नए डिवेलपमेंट बैंक को ग्लोबल गवर्नेंस के लोकतंत्रीकरण की पहल के रूप में पेश करने की थी।
इसके बावजूद इतने वर्षों में ब्रिक्स के पास अपनी उपलब्धि के रूप में दिखाने के लिए NDB के अलावा शायद ही कुछ हो। यह मंच आज बदलते शक्ति संतुलन से उपजी गड़बड़ियों से बुरी तरह ग्रस्त दिख रहा है।
एक स्वायत्त खिलाड़ी के तौर पर रूस, भारत के लिए ब्रिक्स में चीन के बढ़ते आर्थिक दबदबे पर अंकुश लगाने के लिहाज से खासा अहम था।
एक वक्त ऐसा था जब भारत और चीन भी वैश्विक चुनौतियों पर एक सुर में बात कर सकते थे।
अब ब्रिक्स के अंदर के मतभेद तीव्र होते जा रहे हैं।
रूस और चीन इस समूह की भू-आर्थिक नीति को प्रत्यक्ष भू-राजनीतिक नीतियों में तब्दील करते हुए इसे पश्चिम विरोधी मंच का रूप देना चाहते हैं।
इस बीच भारत और चीन के लिए एक कमरे में साथ बैठना भी मुश्किल होता जा रहा है।
नए सदस्यों के आने के साथ इस समूह का एक नया दौर शुरू हुआ है। हालांकि पांच सदस्यों के होते हुए भी यह अपने होने का मकसद ही खोज रहा था। घटते आपसी विश्वास ने इसके पहले से ही कमजोर आधार को और कमजोर करना शुरू कर दिया था। अब हमें बताया जा रहा है कि इस साल नए सदस्यों के जुड़ने और आगामी वर्षों में और सदस्यों के आने से ब्रिक्स ग्लोबल साउथ (विकासशील और गरीब देशों) की आवाज के रूप में स्थापित होगा। G-77 और गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसे मंचों की दुर्दशा को देखते हुए ऐसे दावे करना हास्यास्पद है। ब्रिक्स के विस्तार को भी भारत और ब्राजील जैसे देशों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा, जो चाहते थे कि इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से पहले इसकी कसौटियां स्पष्ट कर दी जाएं।
चीन की मंशा
वैसे चीन यह दिखाना चाहता था कि भारत इस संगठन में नए देशों को शामिल किए जाने के खिलाफ है। लेकिन चीन की इस चाल को देखते हुए भारत ने यह सुनिश्चित किया कि उसके कुछ बेहद करीबी देश ब्रिक्स में प्रवेश पा जाएं। ब्रिक्स में भारत का बने रहना इस लिहाज से अहम है कि यह समूह आखिरकार विशुद्ध पश्चिम विरोधी मंच में न बदल जाए। यह भी सच है कि स्पष्ट दिशा के अभाव में यह मंच आज इतना बनावटी लग रहा है, जितना जिम ओ’नील द्वारा यह टर्म गढ़ने के समय भी नहीं लगता था।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं