India vs Bharat debate Constitution amendment to change the name

विराग गुप्ता

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 मामले में राज्य की संविधानसभा की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट में लंबी-चौड़ी बहस खत्म होने के बाद अब देश के नामकरण विवाद पर भारत की संविधानसभा के पन्ने खंगाले जा रहे हैं। लेकिन इंडिया नाम सिर्फ ब्रिटिश हुकूमत या मैकाले से नहीं जुड़ा है। यह शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसे 440 ईसा पूर्व में इस्तेमाल किया था।
कानूनी नजरिए से देखें तो भारत या इंडिया दोनों में से किसी भी शब्द का प्रशासन और राजकीय कार्यों में इस्तेमाल हो सकता है। लेकिन इन दोनों में से किसी भी शब्द को संविधान से हटाने के लिए प्रस्तावना और अनुच्छेद 1 के साथ कई अन्य प्रावधानों में अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन करना होगा। ऐसे किसी संशोधन को अगर बेसिक स्ट्रक्चर में बदलाव माना गया तो उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। लेकिन संसद के विशेष सत्र में ऐसे किसी संविधान संशोधन की संभावना नहीं दिखती।
तीन विकल्प
इस बदलाव के तीन तरीके हो सकते हैं।

पहला, इंडिया शब्द को हटा दिया जाए।
दूसरा, भारत को पहले करके इंडिया को बाद में कर दिया जाए।
तीसरा, भारत शब्द के इस्तेमाल को मंजूरी दे दी जाए।

कहा जा रहा है कि ‘इंडिया, जो भारत है और राज्यों का संघ है’, उस पर हमला हो रहा है। लेकिन सिर्फ नाम बदलने से भारत की संघीय व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होगा। यह भी कहा जा रहा है कि इंडिया नाम बदलने पर सुप्रीम कोर्ट, इसरो, एम्स और रिजर्व बैंक जैसी तमाम संस्थाओं के नाम बदलने के लिए कानून में बदलाव करना होगा। नाम बदलने में कानूनी अडचनों के साथ प्रशासनिक चुनौतियां और आर्थिक बोझ के पहलू शामिल हैं। सोशल मीडिया साइट एक्स (पुराना नाम ट्विटर) पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई लोग इंडिया का ही इस्तेमाल कर रहे हैं।
बहरहाल, यह मामला कोई पहली बार सामने नहीं आया है। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में दो बार जनहित याचिकाएं दायर हो चुकी हैं।

2015 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जवाब देते हुए कहा था कि देश को इंडिया के बजाय भारत नहीं कहा जा सकता। मार्च 2016 में शीर्ष अदालत ने उस याचिका को रद्द करते हुए कहा था कि गरीबों के लिए बनी जनहित याचिका के सिस्टम का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
दूसरी याचिका को 2020 में रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उसे केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास प्रतिवेदन के तौर पर भेजने की इजाजत दी थी।

जहां तक मौजूदा बहस का सवाल है तो G 20 का आमंत्रणपत्र विदेश मंत्रालय ने बनाया है, ना कि कानून मंत्रालय ने। आमंत्रणपत्र में प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया के बजाय प्रेसिडेंट ऑफ भारत लिखने को कूटनीतिक लिहाज से देखने की जरूरत है। ध्यान रहे, यह किसी भी तरह से गैर-संवैधानिक नहीं है।
सियासी तौर पर देखें तो इसके कुछ पहलू अहम हैं।

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले सोमवार को असम के एक कार्यक्रम में भारत शब्द के इस्तेमाल पर जोर दिया था।
राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता भी गुलामी के प्रतीकों को हटाने की बात करते हुए भारत नाम पर जोर देते रहे हैं।
मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने तो 2004 के चुनावी घोषणापत्र में संविधान में बदलाव करके इंडिया शब्द को हटाने का वायदा किया था।
हाल में ओडिशा से BJD सांसद ने इंडिया शब्द हटाने के लिए संविधान में संशोधन की मांग की है।
15 अगस्त को लाल किले से भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि गुलामी की छोटी-छोटी निशानी से मुक्ति पाने के लिए सामूहिक प्रयास होना चाहिए।

इस मसले को इंडिया गठबंधन से जोड़ना विपक्षी नेताओं की आत्ममुग्धता ही मानी जाएगी। लेकिन सरकार को भी समझने की जरूरत है कि विश्व गुरु और वैश्विक अर्थव्यवस्था को लीड करने के दावे को सफल बनाने के लिए गंभीर विमर्श की जरूरत है। G 20 में विदेशी शासनाध्यक्षों के आगमन से पहले मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रवक्ताओं के उलझाऊ बयानों के कारण देश की आइडेंटिटी पर विवाद शुरू होने से पूरे आयोजन का मकसद विफल हो सकता है।
सत्ता पक्ष के हिसाब से देखें तो ऐसी बहसों से रोजगार, अर्थव्यवस्था और महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार अपनी जवाबदेही से बच जाती है। विपक्ष के लिहाज से देखें तो यह साफ है कि उनके पास गवर्नेंस और बदलाव के लिए ठोस मुद्दों का अभाव है। जब भारत में अनेक देशों के शासनाध्यक्ष आ रहे हैं और G 20 का लोगो वसुधैव कुटुंबकम है, तो ऐसे में देश के नामकरण पर विवाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को धूमिल ही करेगा।
अयोध्या के बाद मथुरा और काशी को लेकर कानूनी विवाद शुरू होने से वैसे ही मध्यकालीन इतिहास के गड़े मुर्दे उखड़ रहे हैं।
दोनों नामों पर रहा जोर
इंडिया और भारत के बारे में डॉक्टर आंबेडकर के रुख को संविधानसभा ने मान्यता दी थी। संविधान का पहला ड्राफ्ट 4 नवंबर 1948 को डॉ. आंबेडकर ने पेश किया था, जिसमें भारत का जिक्र नहीं था। उसके बाद अनुच्छेद एक में बदलाव करते हुए भारत को भी शामिल करने के लिए 18 सितंबर 1949 को संशोधित प्रस्ताव पेश किया गया। सेठ गोविंद दास, एचवी कामथ, केएम मुंशी और कमलापति त्रिपाठी जैसे कई सदस्यों ने सिर्फ भारत शब्द को रखने पर जोर दिया। इस संशोधन प्रस्ताव को संविधान सभा ने 38 के मुकाबले 51 वोटों के बहुमत से अस्वीकार कर दिया था।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं