आदित्य प्रसन्न भट्टाचार्य, नई दिल्ली: ब्रिटिश राज ने जाते-जाते हमारे कानूनों और संस्थानों पर अपनी पहचान छोड़ दी, जिससे उपनिवेशवाद के दिए जख्म भर नहीं सके। फैमिली लॉ भी ब्रिटिश उपनिवेशवादी असर से बचा नहीं है। भारतीय दंड संहिता (IPC) को उपनिवेशवाद की छाया से मुक्त करने के लिए सरकार ने संसद में तीन प्रस्ताव लाए। इन्हें पेश करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गुलामी की निशानियों को हटाने की जो बात कही, उससे यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) में कुछ खास बातों का ध्यान रखने का महत्व बढ़ जाता है।मौजूदा फैमिली लॉ की कमियांब्रिटिश कानून, भारतीयों को कब्जे में रखने का एक उपकरण था। वो अपने से बिल्कुल अलग समाज को भी अपने ही लेंस से देखते थे। मसलन, भारतीय दंड संहिता पूरी तरह 160 वर्ष पुरानी अधिनायकवादी सोच पर आधारित है। लेकिन कानून के जानकारों को पता है कि दंड संहिता (IPC), नागरिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) आदि की तरह ब्रिटिशों ने भारतीय परिवार कानूनों (Family Laws) पर बहुत ज्यादा दिमाग नहीं लगाया क्योंकि इसका उनके आर्थिक और राजनीतिक हितों पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ रहा था। यही वजह रही कि फैमिली लॉ की बात आई तो उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं करने की नीति अपनाई। हालांकि, इस नीति की आड़ में ब्रिटिशों ने दो प्रमुख प्रश्नों के जवाब देकर भरपूर हस्तक्षेप भी किया।समान नागरिक संहिता हिंदुत्व का एजेंडा नहीं शाहबानो जैसी महिलाओं की जरूरत हैहिन्दू कानून क्या है और मुस्लिम कानून क्या है?ब्रिटिशों ने सभी वैदिक कानून और शरीयत की अपनी समझ के मुताबिक हिंदुओं और मुसलमानों के लिए फैमिली लॉ बना दिए। चूंकि परिवार कानून से जुड़े मामले उन अदालतों में जाते थे जिनमें ब्रिटिश जज हुआ करते थे, इसलिए प्रत्येक समुदाय के लिए कानून की रूपरेखा तय करने की जिम्मेदारी उन्हीं जजों के जिम्मे छोड़ दी गई। ब्रिटिश जज अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह के लिए संबंधित समुदाय की धार्मिक पुस्तकों को पढ़ते थे जो अक्सर मूल ग्रंथों का गलत अनुवाद हुआ करता था। इतना ही नहीं, वो अपने नजरिए से ग्रंथों में लिखी बातों की व्याख्या भी किया करते थे। इस तरह, धीरे-धीरे फैमिली लॉ ब्रिटिश जजों की गलत धारणाओं पर आधारित हो गया, मूल धार्मिक ग्रंथों पर नहीं।’स्त्रीधन’ की गलत परिभाषापुराने शास्त्रीय कानून के जानकारों के अनुसार, ‘स्त्रीधन’ वह संपत्ति है जिस पर महिला का संपूर्ण अधिकार हो। इसमें महिला को विरासत में मिली संपत्ति भी शामिल है। प्रिवी काउंसिल ने 1912 में आदेश दिया कि हिन्दू महिला का, उसे विरासत में मिली संपत्ति पर पूर्ण अधिकार नहीं हो सकता है। वो जब तक जिंदा है तब तक तो विरासत की संपत्ति पर उसका हक होगा, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद उस संपत्ति पर महिला के उत्तराधिकारियों को नहीं बल्कि उसके उत्तराधिकारियों को यह संपत्ति ट्रांसफर हो जाएगी जिससे (पति से) महिला ने विरासत में प्राप्त की थी। प्रिवि काउंसिल लंदन स्थित वह अदालत थी जो अपने उपनिवेश के देशों के मुकदमों पर सुनवाई करती थी।पुराने शास्त्रीय कानूनों की ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण व्याख्या भेदभावपूर्ण नियमों का आधार बनी जो आज भी हिन्दू उत्तराधिकार कानून में निहित है। आज भी निःसंतान हिन्दू विधवा की मौत के बाद उसे पति से विरासत में मिली संपत्ति, उसके पति के उत्तराधिकारियों के पास चली जाती है। लेकिन पति की मृत्यु हो तो उसे पत्नी से विरासत में मिली संपत्ति उसके उत्तराधिकारियों के पास ही रहती है।’अदालतों का काम अंग्रेजी में, कानूनों के नाम हिंदी में!’अंग्रेजों के जमाने के कानून बदलने वाले बिल पर क्या कह रहे एक्सपर्ट’हिन्दू’ कौन है और ‘मुस्लिम’ कौन?जब किसी भारतीय का विवाह, तलाक, बच्चों की कस्टडी, संपत्ति के उत्तराधिकार आदि का मुकदमा ब्रिटिश अदालतों में जाता था तब अंग्रेज जज फरियादी से पूछा करते थे- आप किस धर्म से हैं? क्या आप हिन्दू, मुस्लिम या ईसाई हैं? इस तरह, कानूनी प्रक्रिया को धर्म के आधार पर बांटकर जजों ने धर्म आधारित कानून बनाए। इस तरह उन्होंने न्याय पर व्यक्ति की धार्मिक पहचान को वरीयता दी। आज भी, इंडियन फैमिली लॉ पूरी तरह व्यक्ति की धार्मिक पहचान पर ही आधारित है। गुलामी की इससे बड़ी निशानी भला और क्या हो सकती है!भारतीय कानूनों पर अंग्रेजियत का बोझभले ही अंग्रेजों ने सभी धर्मों के लिए समान कानून बनाने का प्रयास कभी नहीं किया, लेकिन धार्मिक कानूनों को एक समान करने और सुधारने की बहुत कोशिशें हुईं। दरअसल, सुधारों के बहाने अंग्रेज यह जताते थे कि उनका धर्म, उनके कानून और उनकी संस्कृति भारतीयों से श्रेष्ठ हैं। ये कथित सुधार भी कानून में अंग्रेजियत घुसाने के ही उपकरण हुआ करते थे। इसका एक शानदार उदाहरण देखिए- वैवाहिक अधिकारों की बहाली संबंधी एक प्रावधान है कि पति, अपनी पत्नी को अपने यहां आने को मजबूर करने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है, भले ही पत्नी ससुराल नहीं जाना चाहती हो।यह फैमिली कानून का हैरतअंगेज पहलू है जो गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करता है और यौन संबंध बनाने की स्वायत्तता पर भी कुठाराघात करता है। यह हिन्दू शास्त्रों और शरीयत के खिलाफ है। यूं कहें कि भारतीयों पर ब्रिटिश संस्कृति थोपी गई थी जिसमें पत्नी को पति की संपत्ति समझा जाता था क्योंकि वहां शादी भी प्रॉपर्टी डीलिंग से ज्यादा कुछ नहीं थी। अंग्रेजों ने यही नियम सभी समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों में डाल दिया जो अब तक चल रहा है।IPC vs BNS List : भारतीय न्याय संहिता में बदल जाएंगी आईपीसी की धाराएं, देख लीजिए लिस्टयूनिफॉर्म सिविल कोड एक बड़ा अवसरसमान नागरिक संहिता के जरिए हम इन खामियों को पाट सकते हैं। यूसीसी भारतीय परिवार कानूनों को औपनिवेशिक सोच से मुक्त कर सकती है जो धर्म आधारित भेदभाव करता है। संसद में हिंदू विवाह कानून पेश किया गया तो उसमें वैवाहिक अधिकारों की बहाली का प्रावधान शामिल कर लिया गया। इस पर उस वक्त के बड़े नेता जेबी कृपलानी ने काफी आक्रोश व्यक्त किया। उन्होंने कहा, ‘यह प्रावधान अपने स्वरूप में अवांछित, नैतिक रूप से अनचाहा और भावनात्मक रूप से वाहियात है।’ हालांकि, कृपलानी की बातों को तवज्जो नहीं दी गई और यह प्रावधान आज भी हमारे कानून का हिस्सा है। ब्रिटेन ने भी अपने यहां वर्ष 1970 में तो वैवाहिक अधिकारों की बहाली का यह प्रावधान खत्म कर दिया।भारतीय न्याय संहिता विधेयक ‘असंवैधानिक’ है? कपिल सिब्बल ने कहा- देश का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा21वीं सदी के भारत के अनुकूल हों कानूनसमान नागरिक संहिता के रूप में हमारे पास एक अवसर है कि हम अपने फैमिली लॉ से गुलामी की निशानियों को मिटा दें जो धर्मों के बीच भेदभाव के औपनिवेशिक उपकरण मात्र हैं। अगर हमारे औपनिवेशिक साम्राज्यवादियों ने ऐसी नागरिक संहिताओं का मसौदा तैयार किया होता तो निस्संदेह उन्हें निश्चित रूप से हिंदू लॉ, मुस्लिम लॉ, ईसाई लॉ आदि के बीच आपसी विरोधाभासों का सामना करना पड़ता। हमें यह गलती नहीं करनी चाहिए। बल्कि हमें भारतीय परिवार कानून की एक ऐसी आदर्श संहिता प्रस्तुत करनी चाहिए जो परिवार कानून के सर्वोत्तम सिद्धांतों को विकसित करने के प्रयास पर आधारित हों ताकि वो 21वीं सदी के भारत की कसौटियों पर खरे उतरें।लेखक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी से हैं जिसने एक सार्वजनिक परामर्श के लिए यूसीसी का मौसूदा तैयार किया है। मूल लेख हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुई है।