is collegium system dangerous for judiciary

सुधांशु रंजनवर्ष 1993 से पहले तक हमारे देश में जज खुद जजों की नियुक्ति नहीं करते थे। यह काम सरकार करती थी। उस समय सरकार नए जजों की नियुक्ति, उनके ट्रांसफर और उनके प्रमोशन की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को भेजती थी। फिर उनसे विचार-विमर्श के बाद जो नाम फाइनल होते थे, उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजा जाता था। राष्ट्रपति उन जजों की आधिकारिक नियुक्ति करते थे। यह सिस्टम संविधान के अनुरूप था। संविधान में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कैसे होगी। इसका जिक्र अनुच्छेद 217 में किया गया है। यह अनुच्छेद कहता है कि भारत में जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति का होगा और राष्ट्रपति को इसके लिए सीजेआई, संबंधित राज्यपाल और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से विचार-विमर्श करना होगा।

तीन अहम फैसलेसंविधान में विचार-विमर्श के लिए ‘कंसल्टेशन’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। सारा विवाद असल में यहीं से शुरू होता है। इस संदर्भ में 1981 से 1998 के बीच आए सुप्रीम कोर्ट के तीन फैसले हैं, जिन्हें ‘जजेस केस’ भी कहा जाता है।

पहला केस वर्ष 1981 का है, जब सुप्रीम कोर्ट से संविधान में लिखे इसी कंसल्टेशन शब्द की व्याख्या करने के लिए कहा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा ‘कंसल्टेशन’ यानी विचार-विमर्श का मतलब कहीं से भी ‘कॉन्करेंस’ यानी सहमति नहीं हो सकता।
1993 के दूसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ही इस पुरानी टिप्पणी को बदल दिया और कंसल्टेशन शब्द की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में कर दी। इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेंगे, लेकिन उन्हें इसके लिए सीजेआई से सहमति लेनी होगी। इसके बाद से जजों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की सहमति जरूरी हो गई।
इसीलिए बहुत सारे जज कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करके संविधान को ही ‘हाईजैक’ कर लिया। दरअसल, इस फैसले से जो कलीजियम बना, उसका जिक्र न तो कहीं हमारे संविधान में है और न ही भारत सरकार ने संसद में इसके लिए कोई कानून पास किया है।
वर्ष 1998 में सुप्रीम कोर्ट का एक और अहम फैसला आया, जिसमें कहा गया कि जजों की नियुक्ति के लिए कलीजियम का विस्तार होगा और इसमें सीजेआई के अलावा सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे वरिष्ठ जज भी होंगे।

कलीजियम पर आरोपकुछ वर्षों में यह कलीजियम इतना मजबूत हो गया हो गया कि इससे न्यायिक व्यवस्था में परिवारवाद को भी बढ़ावा मिलने के आरोप लगने लगे। लोग कई बार व्यंग्य करते हुए इसे ‘अंकल जज सिंड्रोम’ जैसे नाम भी देते हैं।

वर्ष 2012 में भारत के लॉ कमिशन की दो सौ तीसवीं रिपोर्ट आई। इसमें बताया गया कि हाई कोर्टों में हर तीसरा जज किसी न किसी वकील का अंकल है। उदाहरण के लिए, उस समय पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में कुल मिलकर 47 जज थे, जिनमें 16 ऐसे थे जिनके परिवार का कोई न कोई सदस्य उसी हाई कोर्ट में वकील था। इन वकीलों के लिए ये जज उनके अंकल थे। कहने का मतलब यह कि कलीजियम सिस्टम से न्यायिक व्यवस्था में परिवारवाद बढ़ा है।
कलीजियम से जुड़ी दूसरी बड़ी समस्या है पारदर्शिता की कमी। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई को मिलाकर कुल 27 जज हैं, जबकि होने चाहिए 34। इन 27 में से कलीजियम में चीफ जस्टिस के अलावा चार और सबसे वरिष्ठ जज होने चाहिए। लेकिन इस कलीजियम में 6 जज हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इस कलीजियम में उस जज को भी रखा जाता है, जिसे भविष्य में वरिष्ठता के आधार पर नया सीजेआई नियुक्त किया जाएगा।
कलीजियम में जजों की नियुक्ति किस आधार पर होती है यह नहीं बताया जाता।कलीजियम में शामिल किस जज ने इस पूरी प्रक्रिया के दौरान असहमति जताई, इसका भी कोई रेकॉर्ड नहीं मिलता। यह पता नहीं चल पाता कि जजों की नियुक्ति कैसे हो रही है।
सुप्रीम कोर्ट के एक और पूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू भी कह चुके हैं कि यह सिस्टम ‘एक हाथ दो एक हाथ लो’ वाले सिद्धांत के आधार पर चलता है। इसलिए अच्छे जज लाने में यह सिस्टम फेल हो गया है।
मुद्दा यह है कि कलीजियम की सिफारिशों को मानना सरकार और राष्ट्रपति के लिए एक तरह से अनिवार्य होता है। सरकार चाहे तो कलीजियम से आग्रह कर सकती है कि वह अपनी सिफारिशों पर पुनर्विचार करे, लेकिन अगर कलीजियम पुनर्विचार के बाद फिर से उन्हीं नामों को भेज दे तो सरकार कुछ नहीं कर पाएगी। उसके लिए इन नामों को मंजूर करके राष्ट्रपति के पास भेजना अनिवार्य हो जाएगा।

कोई विकल्प नहींइस व्यवस्था के विकल्प के तौर पर वर्ष 2014 में केंद्र सरकार एक कानून लाई जिसका नाम था ‘नैशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमिशन एक्ट’। यह कानून देश में ऐसा आयोग बनाने के लिए लाया गया, जो न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति कर सके। यह आयोग कुल 6 सदस्यों का होता। इसमें सीजेआई के अलावा सुप्रीम कोर्ट के 2 सबसे वरिष्ठ जज, भारत सरकार के कानून मंत्री और 2 अन्य सदस्य होते। इन दो अन्य सदस्यों का चुनाव एक ‘सिलेक्शन कमिटी’ के द्वारा किया जाता, जिसमें विपक्ष के लोग भी होते। यह कानून 31 दिसंबर 2014 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद लागू भी हो गया था, लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को खारिज कर दिया। यानी बनने के बाद भी यह कानून काम नहीं आया। अब केंद्र सरकार चाहती है कि कलीजियम वाली इस व्यवस्था में बदलाव हो।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं