रहीस सिंह
अरस्तू ने कहा है ना, ‘जिन्होंने मनुष्य पर शासन करने की कला का अध्ययन किया है, उन्हें यह विश्वास हो गया है कि युवकों की शिक्षा पर ही राज्य का भाग्य आधारित है।’ यह सच भी है, लेकिन यदि राज्य के भाग्य निर्माण की प्रक्रिया में युवा हारने लगे तो हमें मान लेना चाहिए कि सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाएं अपना काम सही ढंग से नहीं कर रही हैं। देश में करियर बनाने की राह पर निकले युवाओं की आत्महत्या के विचलित करने वाले मामले इस उक्ति और उसकी इस व्याख्या को खास बना देती है। बीती 28 अगस्त को राजस्थान के कोटा शहर में 4 घंटे के भीतर JEE/NEET की तैयारी कर रहे दो बच्चों ने आत्महत्या कर ली। यह कोई विरला मामला नहीं है बल्कि अगस्त माह में कुल 6 या 7 बच्चे और जनवरी से लेकर अब तक 24 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं।
इस आलेख की तैयारी के क्रम में मैंने एक ऐसी लड़की से बात की, जो स्वयं कोटा में रहकर तैयारी कर चुकी है। उसका कहना था कि इन घटनाओं का कारण है ‘कोटा मॉडल’ का फेल होना। ‘कोटा मॉडल’ का मतलब उस एजुकेशन इंडस्ट्री से है, जहां स्टूडेंट को एक ही जगह पर सब कुछ उपलब्ध हो जाए यानी बेस्ट एक्सपर्ट्स, बेस्ट स्टडी मटीरियल, बेस्ट लाइब्रेरीज, बेस्ट करियर काउंसलर, बेस्ट साइको एक्सपर्ट (मनोचिकित्सक), पर्सनल इंटरैक्शन सिस्टम और बेहतर वातावरण आदि। लेकिन हकीकत यह है कि आज वहां ना बेहतर मैनेजमेंट है, ना बेहतर काउंसलिंग और न ही मनोचिकित्सक जैसी सुविधाएं। सब कुछ लक पर निर्भर है। यानी लक अच्छा हुआ तो एक्सपर्ट अच्छा मिलेगा, स्टडी मटीरियल अच्छा मिलेगा, नहीं तो आप दोनों से ही वंचित रह जाएंगे।
यही स्टूडेंट पर प्रेशर बनाती है। धीरे-धीरे प्रेशर बढ़ता जाता है और जब यह उस हद तक पहुंच जाता है जहां किसी युवा को संभावनाएं शून्य लगने लगती हैं, तो वह अपनी जिंदगी समाप्त कर लेता है।
खास बात यह कि ऐसा अक्सर मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे के साथ अधिक होता है क्योंकि उसके पास अन्य विकल्प नहीं होते सिवाय इसके कि किसी भी तरह से सिलेक्शन हो। अमीर घरों के बच्चों के पास बहुत से विकल्प और अवसर होते हैं।
एक बात यह भी है कि मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चों पर अभिभावक यह अपेक्षा थोप चुके होते हैं कि उसके कोटा में एडमिशन पाने के बाद उनके सारे कष्ट दूर होने का द्वार खुल जाएगा।
इस सपने को बुनते समय पैरंट्स कभी यह नहीं देखते कि उनके बच्चे का ‘पैशन’ क्या है और उसमें पोटेंशियल कितनी है। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि हर जगह पैरंट्स ही गलत होते हैं। लेकिन उन्हें वास्तविकता की तरफ मुड़कर देखने की जरूरत तो है। पैरंट्स की इच्छाओं और उनकी अपेक्षाओं से संचालित अधिकांश छात्रों की अपेक्षाएं बड़ी होती हैं। यदि वे इंटरनल टेस्ट में अपेक्षा के मुताबिक नंबर नहीं ला पाते तो उन्हें लगने लगता है कि जिंदगी की लड़ाई में वे हार रहे हैं। यही टेडेंसी उन्हें खुदकुशी के प्रयासों तक ले जाती है।
दरअसल, मिडल क्लास या लोअर मिडल क्लास फैमिली से आने वाला छात्र अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना चाहता है, लेकिन वह सफलता सुनिश्चित करने की स्थिति में नहीं होता। ऐसे में हर इंटरनल टेस्ट के नंबर और ग्रेडिंग की हर लिस्ट उस पर प्रेशर बढ़ाने लगती है।
दरअसल, कोचिंग सिस्टम ने अपना एक अलग ही करिकुलम बना रखा है जो हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति से काफी दूर है।
9वीं क्लास से ही कोचिंग सिस्टम IIT और NEET के लिए कोर्सेज शुरू कर देते हैं।
बच्चों के करियर को लेकर चिंतित ज्यादातर माता-पिता बच्चे का भविष्य सुनिश्चित करने की ख्वाहिश में अपने बच्चे एक तरह से उन संस्थाओं के हवाले कर देते हैं।
यहां बच्चों के लिए ‘माय टाइम’ कोई सब्जेक्ट नहीं रह जाता है। वह कोचिंग टाइम, स्कूल टाइम, होमवर्क टाइम, टेस्ट टाइम, प्रैक्टिस टाइम में बंट जाता है।
कुल मिलाकर बच्चे के लिए ‘माय लाइफ’ के ऑब्जेक्टिव के स्थान पर ‘देयर एक्सपेक्टशंस’ का आना खतरनाक साबित होता है। इसके लिए पैरंट्स के साथ राज्य सरकारों को भी संवेदनशील होने की जरूरत है। इस दृष्टि से उत्तर प्रदेश ने एक बेहतरीन मिसाल पेश की।
कोरोना काल में उत्तर प्रदेश के बहुत से बच्चे कोटा में फंसे हुए थे।
उत्तर प्रदेश सरकार ने न केवल उन बच्चों को कोटा से उनके घर तक पहुंचाने की व्यवस्था की बल्कि वे फिर ऐसे संकट में न फंस जाएं, इसके लिए अभ्युदय कोचिंग की स्थापना की। इस तरह से मंडल स्तर पर बच्चों को बेहतरीन एक्सपर्ट मुहैया कराए गए।
यहां विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की निःशुल्क तैयारी कराई जाती है। खास बात यह कि इन अभ्युदय कोचिंग संस्थानों के नतीजे निजी क्षेत्र के संस्थानों के मुकाबले कहीं बेहतर आ रहे हैं।
चंद्रयान और IIT
बहरहाल, विचार योग्य तथ्य यह है कि इसरो की चंद्रयान-3 टीम में IIT का एक भी ग्रेजुएट नहीं था। फिर भी युवाओं के दिमाग में यदि यह भरा जा रहा है कि आईआईटियन नहीं तो फ्यूचर नहीं। इसी कॉन्सेप्ट को लेकर देश भर के करीब चार से पांच लाख युवा कोटा शहर में अपने दिमागों को पन्नों पर घिस रहे हैं तो इसका निर्णय लेने वाले लोग कितने सही हैं और कितने गलत यह आपको विचार करना है। लेकिन यह समझना जरूरी है कि लाइफ न ही रेस है और न सपना। यह एक हकीकत है जिसमें परफेक्शन नहीं, संतुष्टि जरूरी है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं