प्रणय कोटस्थाने
सत्तर और अस्सी के दशक में एक बड़े देश ने ‘मार्केट रिजर्व’ पॉलिसी अपनाई। मकसद था आयात पर अंकुश लगाकर नवजात कंप्यूटर इंडस्ट्री की रक्षा करना और इस तरह उसे कॉम्पिटिटिव बनने का मौका मुहैया कराना। लेकिन दो दशक बाद भी देश को कंप्यूटर के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेजर प्लेयर बनाने का मकसद पूरा नहीं हो पाया। तस्कर जरूर फले-फूले क्योंकि उन्होंने व्यापारिक बाधाओं का तोड़ निकाल लिया। आयात पर रोक से लाभान्वित होने वाले लोकल प्लेयर्स इस कदर कमजोर रहे कि नब्बे के दशक में वैश्वीकरण की पहली बयार में ही उड़ गए। वह देश भारत नहीं, ब्राजील है।
आम राय के उलट
भारत काफी पहले सबक सीख चुका था। 1981 तक भारत ने भी कंप्यूटर आयात पर अंकुश लगा रखा था। लेकिन प्रफेसर राजारमण कमिटी की कंप्यूटर आयात को सॉफ्टवेयर निर्यात से संतुलित करने की सिफारिश ने विभिन्न क्षेत्रों में कंप्यूटर के प्रसार की राह खोल दी। इस लिहाज से, हाल में पीसीज, लैपटॉप्स और टैबलेट्स के क्षेत्र में लाइसेंसिंग की पॉलिसी अपनाना दरअसल इस क्षेत्र में पिछले चार दशकों से बनी सर्वसम्मति को पलटना है। प्रॉडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) स्कीम कंप्यूटर के मामले में ‘प्रॉडक्शन बाइ लाइसेंसिंग इंपोर्ट्स’ स्कीम में बदल गई है।
लैपटॉप लाइसेंस पॉलिसी नब्बे के दशक से पहले के लाइसेंस-परमिट राज की याद दिलाती है
इस लेख का मकसद पूरी औद्योगिक नीति की समीक्षा करना नहीं, घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए बार-बार ट्रेड पॉलिसी का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति पर नजर डालना है।
सरकार अपनी काफी ऊर्जा यह साबित करने में लगा रही है कि कैसे कंप्यूटर लाइसेंसिंग इंपोर्ट पॉलिसी को लाइसेंस राज नहीं कहा जा सकता।
इसमें शक नहीं कि लाइसेंस राज के दौरान आयात के साथ-साथ मैन्युफैक्चरिंग, इनपुट्स और आउटपुट्स पर भी जबर्दस्त नियंत्रण रहता था।
यह भी सच है कि पिछले आठ वर्षों से दिख रही संरक्षणवादी प्रवृत्ति अभी 1991 के पहले के दौर वाली ऊंचाई पर नहीं पहुंची है। लेकिन उसकी वजह यह है कि आज की घरेलू इंडस्ट्री इनपुट्स के लिए ग्लोबल सप्लाई चेन पर निर्भर करती है। यानी सरकार चाहे भी तो 1991 से पहले वाले दौर के सभी उपाय नहीं आजमा सकती।
सच यह भी है कि सरकार में बैठे बहुत से लोग आज भी यही समझते हैं कि आयात एक बुराई है। यह घरेलू उत्पादन को नुकसान पहुंचाता है। लाइसेंस-कोटा-राज जब चरम पर था, तब इस बात को लेकर लगभग सर्वसम्मति हुआ करती थी कि विदेशी मुद्रा बचाने का एकमात्र उपाय है आयात कम करना। यह विचार कि आयात वैल्यू ऐडिशन के बाद ज्यादा निर्यात का कारण बन सकता हैं और इस तरह विदेशी मुद्रा का रिजर्व भी बढ़ा सकता है, इतना रैडिकल था कि कोई उसे आजमाने का रिस्क लेने को तैयार नहीं था। बहरहाल, आज भी हम आयात पर तरह-तरह से रोक लगाने की उसी पॉलिसी का सहारा ले रहे हैं। यह पॉलिसी तब भी नाकाम रही थी, आज भी नाकाम होगी। यह लाइसेंस-टैरिफ-राज नुकसानदेह भी साबित होने वाला है और निष्प्रभावी भी।
नुकसानदेह इसलिए क्योंकि सस्ते लैपटॉप सर्विस सेक्टर बिजनेस के लिए अनिवार्य हैं।
ध्यान रहे, सर्विस सेक्टर बिजनेस में वह आईटी सेक्टर भी आता है जिससे देश को अच्छा खासा निर्यात मिलता है।
लाइसेंसिंग शासन इस सेक्टर की प्रॉफिटेबिलिटी को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाएगा।
समाज के कम आमदनी वाले तबकों और छोटी कंपनियों को सस्ते आयात से काफी फायदा होता है।
रियायतों के बावजूद लाइसेंस राज टकराव बढ़ाता है, कस्टम्स एंट्री पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है और कुल मिलाकर जनकल्याण में कमी लाता है।
यह पॉलिसी प्रभावी भी नहीं साबित होगी। इशकी कई वजहें हैं।
संरक्षणवाद दरअसल औसत दर्जे के लोकल प्रॉडक्शन की ओर ले जाता है।
इंटरनैशनल कॉम्पिटिशन न होने से लोकल कंपनियां अपना मार्केट शेयर जरूर बढ़ा लेती हैं लेकिन उनके सामने अपनी क्वॉलिटी सुधारने पर ध्यान देने या ग्लोबल लेवल पर कॉम्पीट करने की कोई ठोस वजह नहीं होती।
इसके अलावा मौजूदा हालात में देखा जाए तो इसका नतीजा यही हो सकता है कि कि चीन से सस्ता आयात फिनिश्ड गुड्स के बजाय सब-कॉम्पोनेंट्स के रूप में होगा। इसे रोकने के लिए सरकार को या तो ग्रेडेड इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाने का कार्यक्रम शुरू करना होगा या सब-कॉम्पोनेंट्स पर भी लाइसेंसिंग पॉलिसी लानी होगी।
मोबाइल उत्पादन का भारत का अपना हालिया अनुभव भी इससे मेल नहीं खाता। PLI इंसेंटिव का एक बड़ा हिस्सा इंपोर्ट ड्यूटी चुकाने पर खर्च किया जा रहा है। ज्यादातर मैन्युफैक्चरर्स एक्सपोर्ट मार्केट में कॉम्पीट करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि जो पार्ट्स वे आयात करते हैं उनकी लागत बढ़ जाती है।
यह पॉलिसी एक बुनियादी सवाल पूछने को मजबूर करती है- नाकाम संरक्षणवादी नीतियों को नई जिंदगी क्यों दे दी गई है?
इसके पीछे विशेषज्ञों, मसलन अर्थशास्त्रियों के प्रति बेरुखी की भूमिका हो सकती है जिनकी आलोचनाओं को पूर्वाग्रह बताकर खारिज किया जाने लगा है।
दूसरी बात यह कि चीन की बढ़ती आक्रामकता के मद्देनजर एक-एक पूरे सेक्टर पर ‘सामरिक’ का ठप्पा लगाया जाने लगा है। इस तरह एक समूचे सेक्टर को ‘सामरिक’ करार देना हास्यास्पद है क्योंकि कभी भी कंप्यूटर के सभी पार्ट्स का कॉम्पिटिटिव लागत पर उत्पादन करना संभव नहीं होता। यह हमेशा बेहतर है कि डिफेंस जैसे संवेदनशील क्षेत्रों के लिए बारीकी से गौर करते हुए यह सुनिश्चित किया जाए कि छोटे-छोटे खास कल-पुर्जे भरोसेमंद स्रोतों से आएं।
अगर एक बार यह ‘सामरिक’ ठप्पा उदारता से दिया जाने लगे तो नाकाम हो चुकीं तमाम नीतियां नई जिंदगी पाने लगती हैं। और चूंकि अर्थशास्त्री निर्णायक भूमिका में नहीं होते, इसलिए ‘राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा’ ‘आयात पर निर्भरता कम हो’ जैसे भावनात्मक मुहावरे जरूरत से ज्यादा अहमियत पाने लगते हैं।
निर्यात के लिए आयात
तय है कि हम अतीत की गलतियां तब तक दोहराते रहेंगे जब तक यह नहीं समझते कि आर्थिक राष्ट्रवाद अच्छे नीतिगत फैसले लेने की योग्यता का सबूत नहीं होता। समझना होगा कि ज्यादातर हाइ-टेक डोमेन में आयात के बगैर निर्यात संभव नहीं होता।
(लेखक तक्षशिला इंस्टिट्यूशन में डेप्युटी डायरेक्टर हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं