leave social media or you will not have words to express yourself

सौरभ श्रीवास्तवपिछले दिनों एक वर्कशॉप में जाना हुआ। विषय था-हिज्र यानी जुदाई, अलगाव। लोगों को किसी एक साथी को चुनना था और हिज्र के बारे में तीन मिनट बोलना था, फिर सुनने वाले को बताना था कि उसने क्या समझा? करीब दो घंटे तक चले बोलने-सुनने के अभ्यास में जो एक चीज सबसे अटपटी लगी वह यह थी कि लोग अपने विचारों को शब्द नहीं दे पा रहे थे। उनके वाक्य टूट रहे थे, बहक रहे थे। ज्यादातर लोग, ‘आई मीन टू से’ कह-कहकर वाक्यों को सही करने की कोशिश कर रहे थे। उनके चेहरे व बॉडी लैंग्वेज से जाहिर था कि वे बहुत कुछ कहना चाह रहे हैं पर कह नहीं पा रहे हैं जबकि यह तीन मिनट का वक्त उनके बोलने के लिए ही है।

लोगों के विचारों और कहन के बीच यह दूरी कैसे पैदा हुई इसे समझने की कोशिश करते हैं। दरअसल, भाषा अभ्यास मांगती है। मतलब बोलने का भी अभ्यास करना होगा? यह तो हम रोज ही करते आ रहे हैं। मेरा आशय उस भाषा से नहीं जो आप रोजमर्रा के काम में इस्तेमाल करते हैं। यहां बात विचारों को शब्द देने की है। किसी विषय पर दिमाग में जितनी तेजी से विचार उमड़ते हैं उन्हें व्यक्त करने के लिए उतनी तेजी से सटीक शब्द नहीं मिलते हैं और हम संवाद के बीच पैदा हुए वॉइड (निर्वात) को भरने के लिए, ‘असल में मै यह कहना चाहता हूं कि…कहने का मतलब यह है कि… आई मीन टू से…’ जैसे फिलर्स का प्रयोग करने लगते हैं। अपने दादा-दादी, नाना-नानी को याद कीजिए। वे आपको जीवन से जुड़ी सीख देते वक्त ऐसे अटकते थे क्या? ज्यादातर मामलों में नहीं। बड़े ही सहज तरीके से सटीक शब्दों में वे आपको जीवन का मर्म समझा देते थे। इसके लिए वे कई बार कहानियों का भी प्रयोग करते थे ताकि बात ठीक से समझ में आ जाए।
असल में शब्दों के इस अकाल के पीछे सोशल मीडिया की भाषा है। मैं आज बहुत दुखी हूं-कहने के बजाय आप बना देते हैं। खुशी को व्यक्त करने के लिए का इस्तेमाल करते हैं। यहां भाषा शब्दों, ध्वनि की जगह सिंबल्स में बदल रही है। दुख किस तरह का है? या सुख कितना है? इसे व्यक्त करने के लिए आपको और शब्द तलाशने की जरूरत नहीं पड़ती है। दुख या सुख के विस्तार में जाने की संभावना ये इमोजी खत्म कर देते हैं। दूसरा पक्ष इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। किसी को मेसेज भेजते वक्त हमें सुनने वाले की मौजूदगी का अहसास नहीं होता है। ‘मैं तुमसे प्यार करता हूं।‘ इस वाक्य को मेसेंजर पर लिखने की हिम्मत तो लोग जुटा लेते हैं पर उस व्यक्ति के सामने यह वाक्य बोलने में जुबान लड़खड़ा जाती है, क्योंकि इसकी प्रतिक्रिया का सामना करने की हिम्मत नहीं है। साफ है सोशल मीडिया हमसे हमारी भाषा धीरे-धीरे छीन रहा है इसलिए फोन को किनारे रखिए और लोगों से आमने-सामने बात करने का अभ्यास शुरू कीजिए।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं