पढ़िए कांग्रेस ने कैसे दिया जवाबकांग्रेस की प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने ट्वीट किया, ‘इतिहास का गुड़ गोबर करने वाले प्रधानमंत्री मोदी एक भारी चूक कर गए। आपको इस देश की सबसे बहादुर बेटी इंदिरा गांधी की निष्ठा पर सवाल नहीं उठाना चाहिए था। 1966 में मिजोरम में वायु सेना से बमबारी कराने का फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को क्यों लेना पड़ा, यहां समझिए। उन्होंने कहा कि 1966 में Mizo National Front के बागी आइज़ॉल पर कब्जा कर चुके थे। उन्हें भगाने के लिए भारतीय वायु सेना से बमबारी कराना जरूरी हो गया था। बमबारी की वजह से MNF के बागी भाग खड़े हुए उर फिर से भारत का आधिपत्य जमा।’किताब में क्या लिखा है, पढ़िएविष्णु शर्मा ने ‘इंदिरा फाइल्स’ किताब में इस घटना का विस्तार से जिक्र किया है। आगे पढ़िए किताब के अंश-19 जनवरी, 1966 को इंदिरा गांधी देश की पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं और 5 मार्च को इंडियन एयरफोर्स के लड़ाकू विमान मिजोरम के सबसे प्रमुख शहर ऐजवाल (आइजॉल) पर मंडरा रहे थे। अचानक से उन विमानों से मशीनगन की गोलियां बरसने लगीं, पूरे शहर में अफरा-तफरी मच गई। अगले दिन वे विमान फिर आकाश में दिखे, लोगों में दहशत फैल गई। वे कुछ करते, उससे पहले ही एयरफोर्स के विमानों से बम बरसने लगे, कइयों की मौत हो गई। शहर के चार प्रमुख इलाके रिपब्लिक वेंग, हमेच्चे वेंग, डवपुई वेंग और छिंगा वेंग पूरी तरह इस बमबारी के चलते तबाह हो गए। आजादी के बाद का यह पहला और आखिरी मामला है, जब अपने ही देश की वायुसेना ने अपने ही देश के नागरिकों पर बमबारी की हो और यह इंदिरा गांधी के आदेश से हुआ। देश में अलगाववाद के आंदोलन तो बहुत हुए हैं, बहुत सी लाशें भी गिरी हैं, दंगे भी हुए हैं, लेकिन वायुसेना के विमानों ने कभी बमबारी की हो, ऐसा केवल इंदिरा गांधी की ही सरकार में हुआ। उससे भी ज्यादा आप हैरान तब हो जाएंगे, जब यह जानेंगे कि इस बमबारी की खबर सालों तक सरकार ने बाकी देश को, जनता को पता ही नहीं चलने दी। जब पता चली, तब भी सरकार ने उसकी पुष्टि नहीं की।मार्च 1966 में कलकत्ता के अखबार ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ ने इंदिरा गांधी का एक बयान छापा कि विमान केवल जवानों और उनकी रसद को ‘एयर ड्रॉप’ करने के लिए भेजे गए थे। तब सवाल यह भी उठा कि रसद पहुंचाने के लिए चार-चार जेट फाइटर्स की क्या जरूरत थी? दिलचस्प बात यह भी हैं कि ये जेट फाइटर्स उसी फ्रांसीसी कंपनी दस्सों (दसॉ) के एयरक्राफ्ट्स थे, जिनके फाइटर प्लेन राफेल को लेकर मोदी के जमाने में इंदिरा गांधी के नाती राहुल गांधी ने काफी बवाल किया था। इन ऑरागन फाइटर जेट्स का निकनेम रखा गया था ‘तूफानी’। ऐसे चार जेट फाइटर्स ने ऐसा कहर ऐजवाल पर बरसाया कि शहर के सारे लोग घरों से बचते-बचाते पास के जंगल और पहाड़ियों में भाग गए। मिजोरम में वैसे भी 90 फीसदी से ज्यादा जंगल हैं। सोचिए, छोटे बच्चे और बुजुर्गों का क्या हाल हुआ होगा? सोचिए, जिनके घरों पर बम गिरे होंगे, लाशें गिरी होंगी, वे किससे मदद मांगेंगे, जब सरकार ही बम बरसा रही हो?आपके दिमाग में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर मामला क्या था? इंदिरा गांधी ने क्यों ऐसा किया? दरअसल, यह विवाद तो आजादी से पहले का है, जब 1895 में मिजो आदिवासियों के साथ कई दौर की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने 1895 में इस इलाके पर कब्जा कर लिया था। उसके बाद वहां ईसाई मिशनरियां पहुंचीं और लगभग सारी जनता का धर्मांतरण कर दिया गया। अंग्रेजी फौज के आगे उनकी क्या बिसात थी, वैसे भी कई सुविधाएं उन्हें ईसाई बनने के बाद ही मिलनी थीं। वहां 87 फीसदी से ज्यादा जनता अब भी ईसाई है।आजादी के बाद अंग्रेज तो चले गए, लेकिन मिशनरियां छोड़ गए। मिजोरम का ज्यादातर हिस्सा असम में था। मिजो यूनियन के बैनर तले मिजो नेता असम के नेताओं पर मिजोरम क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार करने के आरोप लगाने लगे और अलग से मिजोरम राज्य की मांग करने लगे। शायद वह उन्हें मिल जाता तो बात इतनी आगे न बढ़ती । बिना मिजो नेताओं से पूछे असमिया को राज्य की आधिकारिक भाषा बनाने से भी वे नाराज थे। इधर नेहरूजी ने एक और बड़ी गलती यह कर दी कि 1959-60 में जब मौटम अकाल पड़ा तो सरकार ने मिजो आदिवासियों को अकेले मरने के लिए छोड़ दिया, सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली, ऐसा दावा आज भी मिजो नेता करते हैं। तब मिजो नेताओं ने अकाल राहत के लिए मिलकर एक संगठन बनाया ‘मिजो नेशनल फेमाइन फ्रंट’ । जिसका नेता था लालडेंगा। लोगों की भरपूर मदद इस संगठन ने गांव-गांव, पहाड़ी पहाड़ी की तो लोग इस संगठन की काफी इज्जत करने लगे। वहीं भारतीय सरकार के खिलाफ अलगाववाद की भावना भी भड़कने लगी।’लालडेंगा और मिजो नेशनल फ्रंटलालडेंगा इंडियन आर्मी में हवलदार था, बाद में असम सरकार के साथ अकाउंट्स क्लर्क के तौर पर काम किया, लेकिन मिजो डिस्ट्रक्टिस में अकाल के समय असम सरकार का रवैया देखकर वह विद्रोही हो गया। दो साल बाद इस संगठन ने अपना नाम बदलकर मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) रख लिया और अब स्वरूप भी राजनीतिक रख लिया। अगले पांच सालों में इस संगठन ने भारत विरोधी विदेशी शक्तियों से संपर्क बढ़ाकर अपनी ताकत काफी बढ़ा ली। इसी की एक शाखा थी ‘मिजो नेशनल आर्मी’ (एमएनए), जिसने 8 मिजो नायकों के नाम पर सशस्त्र बटालियनें खड़ी कर दीं।पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से सीधे उसे सैन्य मदद मिलने लगी और एमएनएफ ने सीधे-सीधे भारत से अलग होकर अलग देश बनाने की मांग शुरू कर दी। मिजो नेता लालडेंगा ने पूर्वी पाकिस्तान की यात्रा भी की और हथियारों, ट्रेनिंग का समझौता भी कर लिया। असम सरकार ने उसे एक बार गिरफ्तार भी कर लिया, लेकिन अच्छे आचरण के चलते जल्द छोड़ दिया गया। वह कई बार गिरफ्तार हुआ और रिहा हुआ। दरअसल, लालडेंगा आधुनिक म्यांमार के ‘फादर ऑफ नेशन’ कहे जाने वाले आंग सान सूकी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री आंग सान की सशस्त्र संघर्ष की रणनीति का कायल था और उन्हीं से प्रेरणा लेता था।कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़ा आंग सान वैसे ही राष्ट्र के विचार को नहीं मानता था, ऐसे में लालडेंगा को भी विदेशी मदद के जरिए मिजोरम को भारत से अलग करके नया देश बनाने में कोई गुरेज नहीं था। लालडेंगा ने 28 फरवरी, 1966 को एक बड़े विद्रोह का ऐलान किया और 1 मार्च को मिजोरम को एक अलग देश घोषित कर दिया और उसके साथ ही ‘ऑपरेशन’ शुरू करके असम के सरकारी दफ्तरों कब्जा और सुरक्षा बलों पर हमला करना शुरू कर दिया। सरकार के दावे के मुताबिक, एमएनएफ के 10,000 मिजो लड़ाकों की फौज ने ऐजवाल में सरकारी खजाने, मिजो डिस्ट्रिक्ट के हथियार डिपो के साथ-साथ पेट्रोल पंप आदि पर भी कब्जा करना शुरू कर दिया। तमाम अधिकारियों और कर्मचारियों को बंदी बना लिया गया। रसद और मदद पहुंचाने की कोशिशें हेलीकॉप्टर से भी की गई, लेकिन विद्रोहियों की फायरिंग के चलते वे उतर नहीं पाए।'(1984 की तस्वीर में मिजोरम नेता लालडेंगा (बीच में) अपने परिवार के साथ)मानेकशॉ कनेक्शनउस वक्त ईस्टर्न कमांड प्रभारी सैम मानेकशॉ थे। 4 मार्च को जेट फाइटर्स से फायरिंग के बाद अगले दिन विमानों ने 5 घंटे बमबारी की। शेखर गुप्ता ने अपने एक लेख में यह तक खुलासा किया था कि ऐजवाल पर बम गिराने वाले विमानों में दो पायलट राजेश पायलट और सुरेश कलमाड़ी थे, जिन्हें बाद में कांग्रेस पार्टी में काफी तरक्की दी गई। 1998 में मिजोरम के मुख्यमंत्री बनने वाले पू जोरामथंगा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि मैं एमएनएफ में अगर शामिल हुआ था तो 1966 में हुई इसी बमबारी के खिलाफ हुआ था। आज तक मिजोरम के लोग 5 मार्च को ‘जोराम नी’ यानी ‘जोराम दिवस’ के तौर पर इस दिन का शोक मनाते हैं। लोग इतने गुस्सा थे इस बमबारी से कि जब सैम मानेकशॉ एक बार 1968 में मिजोरम के ऊपर से उड़ रहे थे, उनके रूसी एमआई-4 हेलीकॉप्टर पर मिजो स्नाइपर्स ने फायरिंग की थी; एक नहीं, चार अलग-अलग जगह पर निशाना लगाया गया था। सैम के सौभाग्य से स्नाइपर्स का निशाना तो अच्छा था, लेकिन उन्हें हेलीकॉप्टर के कमजोर बिंदुओं की जानकारी नहीं थी, सो ज्यादा नुकसान नहीं हुआ।यूं ऐजवाल (आइजोल) और आसपास के इलाके 25 मार्च तक फिर से भारत सरकार के कब्जे में आ गए थे। लेकिन ये सवाल उठने लगे कि एयरफोर्स के जरिए अपने ही नागरिकों पर बमबारी की क्या जरूरत थी? अगले 20 साल तक आक्रोश कायम रहा, जंगलों में छुपकर, म्यांमार व पूर्वी पाकिस्तान (बाद में बांग्लादेश) से उनका सशस्त्र संघर्ष चलता रहा। इधर भारत सरकार ने भी कई बटालियनें वहां तैनात कर दीं, साथ ही एक बड़ा फैसला किया, ‘विलेज रिग्रुपिंग का’। इन गांवों को ‘प्रोटेक्टेड एंड प्रोग्रेसिव विलेजेज’ (पी.पी.वी.) कहा गया।जो लोग दूर-दराज की पहाड़ियों पर बने गांवों में रहते थे, उनको कहा गया कि एक ही रोड के किनारे आपको बसाया जाना है, सो जो सामान साथ ले सकते हैं, ले लीजिए और बाकी जला दीजिए। आपको जलाने में दिक्कत हो तो यह काम इंडियन आर्मी कर देगी और उसने किया भी। सरकार उग्रवादी समूहों की ताकत को समझ रही थी, जो पहाड़ियों पर बसे इन गांवों में छुप जाते थे। तब उसने वह रास्ता अपनाया, जो ब्रिटेश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध में, मलाया में चीनियों के साथ, केन्या में मऊ विद्रोह को दबाने के लिए गांव वालों के साथ किया था, यानी गांवों से निकालकर स्पेशल कैंप में रखना। लेकिन न इंदिरा गांधी और न आर्मी के अफसर समझ पाए कि जो उन्होंने अंग्रेजी आर्मी की रूल बुक में से आइडिया कॉपी किया है, वह सब अंग्रेजों ने दूसरे देश की जनता के साथ किया था, मिजो आदिवासी तो भारतीय ही थे। कुल 764 गांवों में से 516 को पूरी तरह खाली करवा लिया गया और उनको 110 पी.पी.वी. कैंपों में रख दिया गया, जबकि 138 गांवों को ऐसे ही छोड़ दिया गया। कुल 95 फीसदी जनता इन कैंपों में आ गई थी।मिजो आदिवासियों के लिए काफी मुश्किल हो गई। इन कैंपों में काफी कम जमीन थी और झूम खेती करते थे, कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह। अब वे एक तरह से कैद थे। सेना वे उन्हें रसद आदि भी नहीं दे रही थी, हजारों आदमी इन कैंपों रूपी विशेष रूप से बने गांवों में रह रहे थे। केवल इसलिए क्योंकि वे उग्रवादियों की मदद न कर सकें। लेकिन वे लोग एक तरह से दूसरे किस्म की भुखमरी झेल रहे थे। इसका विरोध होना शुरू हुआ, तो 1971 में पहली पी. पी.वी. तोड़ा गया और आखिरी 8 साल बाद 1971 में ही इंदिरा गांधी थोड़ा झुकीं और मिजोरम को केंद्रशासित प्रदेश घोषित कर दिया गया। लेकिन मिजो नेशनल फ्रंट लगातार सक्रिय रहा और विदेशी धरती से ही अपना अभियान चलाता रहा। वे इंदिरा गांधी से खफा थे, 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद फिर से शांति के प्रयास शुरू हुए और 1986 में ‘मिजोरम शांति समझौता’ हुआ और 1987 में मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया। लालडेंगा ही उसका पहला मुख्यमंत्री बना, 1986 से 1988 तक मुख्यमंत्री रहा।