new education policy and options for tribal people

अमरेंद्र किशोरतकरीबन 34 साल पुरानी शिक्षा नीति की जगह 2020 में लागू हुई नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) को शिक्षा प्रणाली में परिवर्तनकारी सुधार का नुस्खा माना जा रहा है। इससे उम्मीद की गई है कि यह स्कूल-कॉलेजों की शिक्षा प्रणाली को अधिक लचीली और समग्र बनाकर स्टूडेंट्स की अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाएगी। सवाल है कि इस नीति में आदिवासी समाज को कितनी जगह दी गई है?
बेमानी बातसरकार और विशेषज्ञों का कहना है कि NEP 2020 की परिकल्पना राष्ट्र के विकास में सीधा योगदान देती है। इस संदर्भ में यह बात दोहराई गई है कि 3 से 6 वर्ष तक के बच्चों को 2025 तक मुफ्त और उच्च-गुणवत्ता वाली शिक्षा मिलेगी, क्योंकि अभी भारत में सीखने का गंभीर संकट है। सरकार स्वीकार करती है कि बच्चे प्री-प्राइमरी के लिए नामांकित तो हो जाते हैं, लेकिन वे बुनियादी कौशल हासिल करने में विफल रहते हैं। यह विफलता कोडरमा-कैमूर-करीमनगर सहित ऐसे ढेरों आदिवासी बहुल जिलों में साफ दिखती है। मुख्यधारा से कटे रायगड़ा-कांकेड़-झाबुआ और अदिलाबाद जैसे जिलों में बुनियादी कौशल की बात बेमानी हो जाती है। ये जिले अकुशल श्रमिकों की पौधशाला हैं।
कितनी हिस्सेदारीक्या NEP से आदिवासी समुदायों के जीवन में आमूल-चूल बदलाव की उम्मीद की जा सकती है? NEP में वनाश्रित समुदाय, पहाड़ों के रहिवासी या मैदानी इलाकों में रहने वाले जनजातीय समुदायों की कितनी हिस्सेदारी है, इस पर बात होनी चाहिए। बड़ी दिक्कत तो यह है कि लंबे समय तक आदिवासियों को शिक्षा का उद्देश्य बताया ही नहीं गया। उनसे यह भी नहीं पूछा गया कि उनकी जिंदगी की प्राथमिकता क्या है? वे किसलिए पढ़ रहे हैं? नौकरी के लिए पढ़ रहे हैं तो उनके पास रोजगार को लेकर क्या जानकारी है?

वन प्रबंधन1964 में बने कोठारी आयोग ने शिक्षा के संदर्भ में कहा था कि मनुष्य में आंतरिक बदलाव, गुणात्मक सुधार और सुविधाओं का विस्तार जरूरी है। मगर वन्य संस्कृति में इसकी जगह मैदानी इलाकों के अतिरंजित तथ्य और महानायकों की महिमा पिरोए जाने की कोशिश शुरू हुई। आदिवासियों का जंगल उनकी शिक्षा में पहले भी नहीं था। हालांकि NEP 2020 में वन प्रबंधन का जिक्र है, मगर जंगलों पर गंभीर चर्चा नहीं है। वैसे आदिवासियों का अपना वन प्रबंधन है, जो उनकी परंपरा से यहां तक पहुंचा है। जंगलों का प्रबंधन अगर उन्हें अपनी परंपरा से अलग करके पढ़ाया जाता है तो उसे वे कितना स्वीकार करेंगे?
बोली बनाम भाषाआंकड़े बताते हैं कि देश में चिह्नित 74 आदिवासी बोलियों में बारह से ज्यादा लुप्त हो चुकी हैं। इन्हें हजारों सालों से आदिवासी व्यवहार में लाकर बचाते आ रहे थे। क्या नई शिक्षा नीति में इन्हें बचाने या संजोने की कोई पहल है? आदिवासी समुदाय तो हिंदी से भी झिझकता रहा है, मगर अंग्रेजी सीखना उसके लिए बाध्यता है। समाजशास्त्री मानते हैं कि आदिवासी बच्चों को एक अपरिचित भाषा में शिक्षा देना न केवल उनकी सीखने की क्षमता को सीमित करता है, बल्कि उनके पारंपरिक ज्ञान को भी नकारता है। इस लिहाज से राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत मातृभाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था जरूर कुछ लाभदायक साबित हो सकती है।
गलत खुशफहमी1979 में शिक्षा नीति पर बने मसौदे में नैतिकता और शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने का प्रस्ताव आया। 1992 की नई शिक्षा नीति में फिर उसी गुणवत्ता की बात हुई, लेकिन इस बार शिक्षा को जीवन की वास्तविकताओं से जोड़ने की बात हुई है। तब भी आदिवासियों की शिक्षा प्राथमिकता में कहीं नहीं दिखी, न दिल्ली में और न राज्यों की राजधानी में। इसके उलट आदिवासी बच्चों को छात्रवृत्ति और आवासीय सुविधाओं वाले विद्यालय देकर नीति को सफल बनाने की खुशफहमी पैदा की गई। ऐसी सुविधाओं की समीक्षा भी नहीं की गई कि इस तरह के संरक्षणात्मक और प्रतिपूरक उपाय जारी रखे जाएं या नहीं?
हमारी शिक्षा प्रणाली में कई खामियां अभी भी बनी हुई हैं। आदिवासी शिक्षा के वर्तमान प्रारूप में सुविधाओं की कमी नहीं है, किंतु सवाल उठता है कि आदिवासियों को सुविधाएं परोसते हुए सात दशक बीत गए, फिर भी आज वही हालात क्यों हैं जैसे दशकों पहले थे।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं