आलोक कुमार
Alok Kumar
नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। BJP को दूसरी बार बाय-बाय करने वाले नीतीश यू-टर्न वाली राजनीति के लिए बिहार के भीतर और बाहर आलोचना झेलते आए हैं। उनकी विश्वसनीयता दांव पर थी, लेकिन आज उस यू-टर्न की चर्चा मंद हो गई है। उन्होंने BJP विरोध को राष्ट्रीय कलेवर देने की कोशिश कर इससे ध्यान हटाने में कामयाबी हासिल की है।
फॉर्म्युले का लिटमस टेस्ट
इस साल अप्रैल में वह ममता बनर्जी से मिलने कोलकाता पहुंचे और TMC ने पश्चिम बंगाल की पेचीदा राजनीति में कांग्रेस को साधते हुए BJP का विरोध करने पर सहमति जता दी। फिर उसी दिन वह लखनऊ में अखिलेश यादव से मिले। इससे पहले और इसके बाद नीतीश अरविंद केजरीवाल, स्टालिन, KCR समेत तमाम विपक्षी नेताओं से मिलते रहे हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश दो ऐसे राज्य हैं, जहां नीतीश कुमार के वन टु वन फॉर्म्युले का लिटमस टेस्ट है। यह फॉर्म्युला है लोकसभा की अधिकतम सीटों पर BJP के खिलाफ इंडिया का कोई एक साझा प्रत्याशी खड़ा करने का।
यह कितना कठिन है, इसे ममता बनर्जी की मिसाल से समझिए। वह कांग्रेस से लड़ीं, फिर अलग होकर पश्चिम बंगाल की राजनीति में दबदबा कायम किया। इसके बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई वाले लेफ्ट फ्रंट को हराकर TMC को सत्ता दिलाई। क्या अब इस मोड़ पर वह कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट से हाथ मिलाने को तैयार होंगी और इस तरह वन टु वन फॉर्म्युले को आगे बढ़ाने का जरिया बनेंगी? इस सवाल का जवाब शायद मुंबई की बैठक में मिले। लेकिन जहां तक नीतीश के इस फॉर्म्युले के इंपैक्ट की बात है तो उसकी प्रयोगशाला तय हो चुकी है। वह है यूपी का घोसी उपचुनाव, जहां पांच सितंबर को वोट डाले जाएंगे। कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के पक्ष में उम्मीदवार नहीं उतारा है। मायावती का स्टैंड अभी तक NDA और INDIA दोनों से अलग रहने का है, लेकिन घोसी में उम्मीदवार उनका भी नहीं है। ध्यान रहे, उपचुनाव न लड़ने की परंपरा मायावती त्याग चुकी हैं। 2020 के विधानसभा उपचुनावों और आजमगढ़ में लोकसभा उपचुनाव में BSP उम्मीदवार मैदान में थे। इसलिए घोसी का चुनाव परिणाम INDIA के लिए काफी अहम साबित होने वाला है।
खैर अब वन टु वन फॉर्म्युला देने वाले नीतीश कुमार पर लौटते हैं। 2013 में नरेंद्र मोदी का विरोध कर पहली बार BJP से अलग होने वाले नीतीश की साख 2023 में वैसी नहीं है।
कहने को तो आज भी JDU उन्हें पीएम मटीरियल बताती है, लेकिन तब यानी 2013 में कांग्रेस के सत्ता में रहते वह मोदी का विरोध कर विपक्ष के पोस्टर बॉय बन गए थे।
आज राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और कर्नाटक-हिमाचल में मिली जीत से कांग्रेस का मनोबल बढ़ा हुआ है।
ममता बनर्जी के साथ ही अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे और KCR की भी राजनीति BJP विरोध पर टिकी हुई है।
ऐसे में पिछले साल नौ अगस्त की सुबह तक BJP के साथ रहने वाले नीतीश को पीएम मटीरियल के तौर पर स्वीकृति मिलना आसान नहीं है।
शायद इसीलिए INDIA के संयोजक बनने पर भी बयानबाजी तेज है। उकताकर नीतीश ने भी कह दिया है कि उन्हें किसी पद से मतलब नहीं है और वह सिर्फ सबको एकजुट कर रहे हैं।
दरअसल, पद निरपेक्ष मुद्रा रख कर नीतीश अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। उन पर राष्ट्रीय जनता दल का भी दबाव है। तेजस्वी महागठबंधन की अगुआई करने के लिए तैयार बैठे हैं। नीतीश की रणनीति दिल्ली शिफ्ट होकर बिहार की राजनीति कंट्रोल करने की है। इसका उन्हें पुराना अनुभव है। कई फैक्टर उनके पक्ष में काम कर रहे हैं।
नीतीश कुमार पांच दशक से राजनीति में सक्रिय हैं लेकिन उनकी छवि हमेशा बेदाग रही।
उन्होंने हमेशा यह स्टैंड रखा कि BJP से लड़ाई सीधी रखनी होगी, तीसरे मोर्चे की कोई गुंजाइश नहीं है।
राजनीति से इतर व्यक्तिगत स्वभाव के कारण सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों खेमे में उनकी पैठ है।
उनके पास सामाजिक सुधार आधारित विकास मॉडल है, जिसे अब दूसरे राज्यों में भी बढ़ाया जा रहा है। आधी आबादी पर फोकस इसके केंद्र में है।
उनकी सरकार जातीय जनगणना पूरा करने की कोशिश कर रही है। इससे गैर यादव अन्य पिछड़ा वर्ग वोट बैंक जो BJP की तरफ शिफ्ट हो गया हैं, वापस उनकी ओर आ सकता है।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमेशा BJP का विरोध करने वाले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार समाजवादियों की दूसरी पीढ़ी के नेताओं में हैं, जिन्होंने इमरजेंसी देखी और इंदिरा गांधी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के साथ एकजुट हुए थे। उनकी कोशिश है कि 1977 में जैसा गठबंधन कांग्रेस के खिलाफ बना था, उसी तरह की तैयारी BJP के खिलाफ 2024 में की जाए। इंदिरा के खिलाफ गठबंधन एक था लेकिन जनता पार्टी, भारतीय लोक दल, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी समेत सभी ने अपने-अपने सिंबल पर ही चुनाव लड़ा। यह फैसला रणनीति के तहत लिया गया था क्योंकि तब संचार क्रांति नहीं हुई थी। जिस इलाके में जो पार्टी मजबूत थी, वहां के वोटर उसे सिंबल से ही जानते थे। इस बार भी रणनीति वही होगी, लेकिन गठबंधन के लिए एक साझा लोगो जारी करने की तैयारी है। फिर भी BJP से लड़ने का फॉर्म्युला बताना अलग बात है और उसे धरातल पर उतारना बिलकुल अलग।
बिहार में सहूलियत
तथ्यात्मक तौर पर देखें तो बिहार इकलौता ऐसा राज्य है, जहां पूर्ववर्ती UPA का स्वरूप स्पष्ट है। कांग्रेस, लेफ्ट, JDU और RJD एक साथ हैं। जैसा पहले ही बताया गया है, इसे केरल, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब में दोहराना बड़ी चुनौती है। देखना होगा कि मुंबई में सीट शेयरिंग की इस चुनौती पर बात किस दिशा में और कितना आगे बढ़ती है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं