Opinion : एक देश एक चुनाव का विरोध करने से पहले नफा-नुकसान पर तो बात कर लेता I.N.D.I.A

लेखक: आर. जगन्नाथभारतीय लोकतंत्र का एक चिंताजनक पहलू यह है कि एक राजनीतिक दल से प्रस्तावित किसी भी चीज का विरोध बाकी सभी दलों करते हैं, भले ही वह विचार कितना ही अच्छा क्यों न हो। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि 2024 में मोदी को सत्ता से हटाने की उम्मीद कर रहे विपक्षी गठबंधन I.N.D.I. A में शामिल सभी दलों ने ‘एक देश एक चुनाव’ के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। मोदी सरकार ने केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के तीन स्तरों पर एक साथ चुनाव कराने के लिए जरूरी सभी पहलुओं के परखने के लिए एक समिति गठित कर दी है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई वाली इस समिति से कांग्रेस के सदस्य ने दूरी बना ली। गृह मंत्री अमित शाह, पूर्व कांग्रेस सदस्य गुलाम नबी आजाद और कई गैर-राजनीतिक सदस्यों वाली इस आठ सदस्यीय समिति कुछ हद तक अपनी वैधता खो देगी, अगर कोई विपक्षी सदस्य इसमें शामिल नहीं होगा।दो बातें स्पष्ट रूप से कही जा सकती हैं। एक, समिति की सिफारिशें जब भी आएंगी, इस संसद के कार्यकाल में तो लागू नहीं होंगी। 18 से 22 सितंबर को बुलाई गई विशेष संसद सत्र में भी। खासकर इसलिए कि प्रस्ताव को लागू करने के लिए कई संविधान संशोधनों से गुजरना होगा जिनमें कुछ को राज्यों का भी अनुमोदन दिलाना होगा। दूसरा, एक देश एक चुनाव (ONOP) का कानून बनाने के लिए कई दलों के समर्थन की आवश्यकता होगी। सरकार को उन दलों को भी मनाना होगा जो उसके सहयोगी नहीं हैं। दूरगामी प्रभाव के ऐसे राजनीतिक सुधार आम सहमति से लागू होना चाहिए, बहुमत के समर्थन पर आधारित नहीं।एक देश एक चुनाव (ONOP) की खासियतें इस प्रकार हैं: यह चुनावों की लागत को कम करेगा क्योंकि सभी चुनाव एक साथ होंगे; यह शासन को भी बेहतर बनाएगा क्योंकि निर्वाचित सरकारों को बिना किसी रुकावट के अपने वादों और नीतियों को लागू करने के लिए पांच साल का समय मिलेगा। प्रस्ताव का विरोध करने वालों ने मुख्य रूप से एक कारण बताया है जिसमें दो प्रश्न शामिल हैं। क्या होगा अगर कोई सरकार चुनाव के तुरंत बाद गिर जाती है? क्या केंद्र, राज्य या नगर निकाय को एक गैर-निर्वाचित शासकों के समूह द्वारा चलाया जाएगा, जैसे कि विशेषज्ञ सलाहकारों की सहायता से राष्ट्रपति या राज्यपाल?दूसरे, एक देश एक चुनाव को अपनाने पर पहले से ही निर्वाचित विधायिकाओं का क्या होगा? क्या वे लंबे समय तक बने रहेंगे या छोटा कर दिए जाएंगे? हम बाद में इस पर चर्चा कर सकते हैं, लेकिन एक देश एक चुनाव का विरोध करने या स्वीकार करने से पहले हमें इन सवालों के जवाब जाने की जरूरत है: क्या बेहतर शासन का लाभ, लंबी अवधि के लिए वैध रूप से निर्वाचित सरकार के नहीं रहने के नुकसान की भरपाई कर देगा? या क्या हम यह सुनिश्चित करने के तरीके खोज सकते हैं कि गैर-निर्वाचित लोग बहुत लंबे समय तक सरकार नहीं चलाएं?’I.N.D.I.A’ के लिए मोदी का चक्रव्यूह है ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का आइडिया, समझिए क्योंइन सवालों के कई जवाब हैं। उदाहरण के लिए, एक देश एक चुनाव को एक-राष्ट्र-दो-चुनावों में बदला जा सकता है, ताकि तीन स्तरों के चुनाव हर दो-ढाई साल में एक बार हों जिससे लंबे समय तक गैर-निर्वाचित शासन के दौर से बचा जा सके। एक और तरीका यह है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल एक खास अवधि में फिर से चुनाव होने से पहले केंद्र या राज्य में बहुदलीय सरकार बनाएं। एक तीसरा समाधान यह हो सकता है कि जब तक विकल्प तय नहीं हों, कोई भी सरकार गिराई नहीं जा सकती है। यदि यह संभव नहीं है, तो पिछली सरकार एक सीमित जनादेश के साथ जारी रह सकती है – जैसा कि आदर्श आचार संहिता लागू होने पर होता है।कोई इस बात पर बहस कर सकता है कि किसी पार्टी या गठबंधन के बहुमत खो देने के बाद यह ‘जुगाड़’ या अस्थायी समाधान एक बेहतर विकल्प नहीं है। लेकिन अगर हम भूतपूर्व ब्रिटिश पीएम विंस्टन चर्चिल के इस बात को स्वीकार करते हैं कि ‘लोकतंत्र सरकार का सबसे खराब रूप है, सिवाय अन्य व्यवस्थाओं के’ तो क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सुधारते रहें? अगर किसी कदम से हमें अधिक जिम्मेदार सरकारें मिलती हैं, तो क्या हम इस पर विचार नहीं करें? दुनियां की बहुत सारी समस्याओं का समाधान ढूंढने की जरूरत है और यह भी तय है कि हर समाधान में वक्त लगता है, तो क्या लोकतंत्र की समस्याओं पर ध्यान न देना बेहतर शासन की संकल्पना के खिलाफ नहीं है?मनमोहन सरकार ने चुनाव में वक्फ को दे दी थी दिल्ली की 123 संपत्तियां, अब मोदी सरकार ने ले ली वापसएक और आलोचना तीन स्तरों की सरकार के लिए एक साथ मतपत्र दिए जाने से मतदाताओं के भ्रमित होने की आशंका को लेकर हो रही है। क्या यह एक पार्टी या लोकप्रिय नेता को फायदा देगा? यह संभव है, लेकिन यही होगा, इसकी गारंटी नहीं है। आंध्र प्रदेश और ओडिशा विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ हुए हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बंपर जीत मिली तो दोनों विधानसभा चुनावों पार्टी धड़ाम हो गई। इसके अलावा, जो राज्य विधानसभा चुनावों में एक पार्टी के लिए भारी मतदान करते हैं, वे कुछ ही महीनों बाद स्थानीय और केंद्रीय चुनावों में अलग तरह से मतदान करने के लिए जाने जाते हैं। हम यहां मतदाता को बहुत कम श्रेय दे रहे हैं। वास्तव में, यह मुद्दा पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा यदि संविधान में ऐसा संशोधन किया जाए ताकि केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के विधायी अधिकार विशेष परिस्थितियों को छोड़कर परस्पर संबंधित हों। मतदाता तब जान जाएगा कि उसे किस स्तर की सरकार में किस दल से क्या उम्मीद करनी है।दूसरी ओर, राजनीतिक दलों को काम करने का मौका देना बेहतर शासन के लिए बहुत जरूरी है। चूंकि मतदाता किसी भी पांच वर्ष की अवधि में कम-से-कम तीन बार वोट करते हैं और यदि सरकारें बीच में गिर जाती हैं तब तो ज्यादा ही। ऐसे में राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए बार-बार रेवड़ियां बांटते हैं। इससे भारी आर्थिक नुकसान हो रहा है। ऊपर से कोविड या रूस-यूक्रेन युद्ध जैसी विपरीत परिस्थितियों में इसका और भी गहरा असर होता है। यदि पांच साल में तीन बार एक ही मतदाता को लुभाने पर खर्च करना पड़ेगा तो ऐसे से संकट से निकलने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं बचेंगे। सत्ता में आने के लिए टैक्सपेयर के संसाधनों का उपयोग दरअसल कानूनी रूप से स्वीकृत भ्रष्टाचार है जिसमें लोकतंत्र का पुट भी है।I.N.D.I.A में जातीय जनगणना पर रार, लालू-नीतीश और अखिलेश के खिलाफ खड़ी हो गईं ममता?हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अच्छी सरकार को आसानी से नहीं छोड़ सकती। खासकर तब, जब ज्यादा वोट पाने वाले की जीत वाली हमारी चुनावी प्रणाली 30-31% लोकप्रिय वोटों से ही बहुमत सरकार दे सकती है जैसा कि 2007 और 2012 में उत्तर प्रदेश में हुआ था। एक देश एक चुनाव के खिलाफ ज्यादा दमदार तर्क यह है कि यह बहुत जटिल है और यह राजनीतिक प्रयास के लायक नहीं है। लेकिन क्या हमने माल और सेवा कर (GST) जैसा जटिल कानून लागू नहीं किया है जो अब फल-फूल रहा है? एक देश एक चुनाव राजनीति के मोर्चे पर जीएसटी की तरह बेहतर परिणाम दे सकता है। एक देश एक चुनाव हमारी लोकतंत्र की गुणवत्ता में सुधार की हमारी तलाश का हिस्सा है। इसे तब तक खारिज नहीं किया जाना चाहिए जब तक इसका उद्देश्य सरकार में सुधार का हो न कि सिर्फ राजनीतिक एजेंडा साधने का।लेखक स्वराज पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं।