Opinion: क्या सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दरवाजे से सरकार चलाने के लिए गढ़ी है संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा? – has the supreme court coined the concept of the basic structure of the constitution to run the government through the backdoor

लेखक : आर. जगन्नाथअदालत के कुछ फैसले न्यायिक प्रक्रिया को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं क्योंकि उनका इशारा कुछ गहन बातों की ओर होता है। ऐसा ही एक फैसला 1973 में 13 सदस्यीय विशाल संवैधानिक पीठ द्वारा केशवानंद भारती केस में दिया गया था। पीठ ने कहा कि संविधान में कुछ ऐसे चीजें हैं जिन्हें संसद भी नहीं बदल सकती। इस फैसले ने ‘मूल संरचना’ की अवधारणा को पेश किया, जो अब इतनी ज्यादा उपयोग की जाती है कि इसका कोई मतलब नहीं रह गया है। सवाल यह नहीं है कि संसद को क्या करना चाहिए, लेकिन क्या न्यायपालिका को स्वयं मूल संरचना शब्द के अर्थ को कितना उपयोग किया सकता है, इसकी हदें तय नहीं की जानी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न फैसलों को सही ठहराने के लिए ‘मूल ढांचे’ का टर्म उपयोग तो किया है, लेकिन आज तक इसकी कोई परिभाषा तय नहीं की है।मई में नौकरशाही पर अधिकारों के बारे में दिल्ली सरकार के पक्ष में फैसला सुनाते हुए, शीर्ष अदालत ने कहा कि लोकतंत्र और संघवाद मूल संरचना का हिस्सा हैं। अब इसके निहितार्थों पर विचार करें। क्या इसका मतलब यह है कि संघवाद केवल केंद्र और राज्यों के बीच है, न कि राज्यों और स्थानीय निकायों के बीच? क्या एक नगरपालिका निकाय संविधान का हिस्सा होने के कारण अदालत में स्वायत्तता की मांग कर सकती है? संसदीय लोकतंत्र शासन का हमारा अपनाया हुआ स्वरूप है। लेकिन अगर इसे मूल संरचना का हिस्सा माना जाता है, तो क्या भविष्य में शासन व्यवस्था के राष्ट्रपति प्रणाली अपनाए जाने के खिलाफ गारंटी देगा? मूल संरचना शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है और न्यायपालिका को इस पर कुछ सीमाएं लगानी चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मूल संरचना की अवधारणा का दुरुपयोग न हो, न्यायपालिका को यह स्पष्ट करना चाहिए कि मूल संरचना में क्या शामिल है और क्या नहीं।क्या है संविधान संशोधन का दायरा, पूर्व सीजेआई के संसद में दिए बयान को लेकर छिड़ी बहसमूल संरचना की अवधारणा पर बहस फिर से सुर्खियों में आ गई, जब केंद्र ने दिल्ली सरकार के अधिकारों पर मई के फैसले के एक हिस्से को रद्द करने के लिए नया कानून बना दिया। एक पूर्व सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने सुझाव दिया कि मूल संरचना का विचार ‘विवादास्पद’ है। जब उनके संज्ञान में यह बात आई तो वर्तमान चीफ जस्टिस ने गोगोई के बयान को सिर्फ एक ‘राय’ करार दिया। इससे पहले, उन्होंने रिकॉर्ड पर कहा था कि मूल संरचना ‘न्यायशास्त्र का ध्रुवतारा’ है।अगर दो समकालीन न्यायाधीश, एक भूतपूर्व और दूसरे वर्तमान, मूल संरचना पर इतने अलग-अलग विचार रख सकते हैं, तो क्या समय नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट इसपर अंतिम फैसला लेते हुए समझाए कि इसका वास्तव में क्या मतलब है, और इसे कब एक तार्किक ढांचे में फिट किया सकता है? अतीत की कुछ बातें यहां हमारी मदद करेंगी। केशवानंद का फैसला अप्रैल 1973 में 7-6 के मामूली बहुमत के साथ आया था। यही नहीं, 13 जजों ने 11 अलग-अलग फैसले दिए। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील टीआर अंध्यारुजिन (TR Andhyarujina) के अनुसार, फैसले का प्रभावी निष्कर्ष कि संसद को मूल संरचना में संशोधन की शक्ति नहीं थी, इन 11 फैसलों से नहीं निकला।जजों की लिस्ट पर नोटिफिकेशन की डेडलाइन तय हो… सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम पर सरकार से मांगी मददवास्तव में, यह सहमति तत्कालीन चीफ जस्टिस एसएम सिकरी ने जबरन तैयार की जो इस फैसले के बाद रिटायर होने वाले थे। उन्होंने खुली अदालत में ‘बहुमत का विचार (View of majority)’ के छह बिंदु पेश किए। इसका दूसरा बिंदु था कि ‘अनुच्छेद 368 संविधान के मूल ढांचे या स्वरूप को बदलने का अधिकार संसद को नहीं देता है।’ बहुमत के विचारों का यह निचोड़, सभी 13 जजों द्वारा हस्ताक्षरित न्यायिक आदेश का हिस्सा नहीं था, लेकिन सीजेआई सिकरी ने इसे सभी जजों के हस्ताक्षर के लिए ओपन कोर्ट में पेश कर दिया। उनमें से चार ने दस्तखत करने से इनकार कर दिया। मूल संरचना की अवधारणा को लेकर अभी भी बहुत उहापोह है।इसे एक जटिल फैसले का चतुर प्रबंधन कहा जा सकता है जिसे कुछ ही लोग पूरी तरह से समझने में सक्षम होते हैं। लेकिन सीधी बात यह है कि मूल संरचना की अवधारणा इस फैसले से नहीं निकली है और न्यायिक हस्तक्षेप के लिए इसका बार-बार उपयोग गलत है जब तक कि इस पूरे विचार को पूरी तरह से किसी अन्य संवैधानिक पीठ ठीक से समझा नहीं दे। बेहतर तो यही होगा कि केशवानंद केस की सुनवाई में जितने जजों की बेंच बैठी, उतनी विशाल बेंच ही फिर बैठे। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस फैसले के पीछे का राजनीतिक संदर्भ क्या था।बाबुओं पर बेवजह रौब ना झाड़ें जज साहब, सरकार ने लाया SOP तो सुप्रीम कोर्ट बोला- हम खुद बना लेंगेबेहद ताकतवर इंदिरा गांधी संविधान में संशोधन पर संशोधन कर रही थीं ताकि कार्यपालिका को ज्यादा से ज्यादा शक्ति मिले और वो अपना सामाजिक एजेंडा लागू कर सकें। न्यायपालिका दो खेमों में बंटी थी- एक प्रगतिशील और दूसरी रूढ़िवादी। कुछ लोग मान रहे थे कि कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगाना बहुत महत्वपूर्ण है। यही वह संदर्भ था जिसमें न्याय की देवी से ‘मूल ढांचा’ नाम का बच्चा पैदा करवाया गया। यह भी सच है कि असाधारण परिस्थितियों में खराब कानून ही बनते हैं। ‘मूल ढांचे’ का विचार अपने समय की उपज थी, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इसे मौजूदा समय की कसौटी पर कसा जाए।कुछ सामान्य समझ की ‘मूल’ बातों पर भी विचार कर लें जिन्हें न्यायपालिका ने दरकिनार कर दिया है। संतुलन का सिद्धांत भी तो संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा होना चाहिए। फिर सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायपालिका के सभी जजों को नियुक्त करने का अधिकार खुद को ही कैसे दे दिया? क्यों न्यायपालिका ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को असंवैधानिक करार दिया, खासकर तब जब वह खुद उसका एक पक्षकार था?एनजेएसी मामले में अन्य जजों के रुख से असहमत जस्टिस जे चेलमेश्वर ने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता केवल इसलिए खत्म नहीं हो जाती है क्योंकि जजों की नियुक्ति का प्राथमिक प्रस्ताव प्रधान न्यायाधीश की तरफ से नहीं जाता है। उन्होंने कहा कि मुख्य न्यायाधीश की राय की प्रधानता संविधान की मूल विशेषता नहीं है। अगर एनजेएसी पैनल में शामिल जजों को बाकी लोगों द्वारा समर्थित किसी भी उम्मीदवार को अस्वीकार करने की शक्ति हो तो यही काफी होगा।’आपके के बिना तो हम जज समय की रेत में शून्य होंगे…’, जानें CJI चंद्रचूड़ ने किसलिए की वकीलों की तारीफफिर से यही अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘मूल संरचना’ संविधान सभा की सोच से निकली है जिसने संविधान तैयार किया था। लेकिन मूल संविधान में ‘मौलिक कर्तव्यों पर अध्याय’ कभी नहीं था। इसे 1976 में अनुच्छेद 51A के रूप में डाला गया था। इसमें नागरिकों के 11 मौलिक कर्तव्यों को सूचीबद्ध किया गया है ताकि उन्हें अनुच्छेद 12-35 के तहत मिले अपने अधिकारों को उपयोग करते हुए अपने दायित्वों का भी अहसास हो। सैद्धांतिक रूप से मौलिक कर्तव्य भी लागू किए जाने चाहिए, लेकिन वे शायद ही कभी होते हैं।क्या उस प्रावधान को मूल संरचना का हिस्सा माना जा सकता है जो प्रारंभिक संविधान को अपनाने के बाद एक चौथाई सदी के बाद डाला गया है? यदि हां, तो साफ है कि मूल संरचना का मनर्जी से विस्तार किया जा सकता है। यदि नहीं, तो क्या यह एक समस्या नहीं है जहां संविधान से केवल अधिकारों की नदी निकलती है जबकि दायित्व की धारा सूखी रहती है? क्या कोई भी अधिकार बिना जिम्मेदारियों के हो सकता है? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर एक नई संवैधानिक पीठ को देना चाहिए, जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि मूल संरचना क्या है, और संसद और न्यायपालिका दोनों को किन रेखाओं को पार नहीं करना चाहिए। इस स्पष्टता के अभाव में ‘मूल संरचना’ न्यायपालिका द्वारा किया गया संवैधानिक तख्तापलट जैसा ही है।लेखक स्वराज पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं।