लेखक : आसिम अलीभारतीय राजनीति में एक सफल चुनावी अभियान के तीन प्रमुख स्तंभ होते हैं: मीडिया की हलचल, चुनावी रणनीति और शासन का एजेंडा। I.N.D.I.A गठबंधन की पहली दो बैठकें पूरी तरह से मीडिया की हलचल पैदा करने में ही खप गईं। मुंबई बैठक में बताया गया है कि यह चुनावी रणनीति पर केंद्रित है- पहली, सीटों की साझेदारी का सूत्र और दूसरी, साझे संगठनात्मक/संपर्क की व्यवस्था। फिर भी, सफल चुनावी अभियानों का आधारभूत स्तंभ- राजनीतिक या शासन का एजेंडा- बहुत हद तक नजरअंदाज है। यह अस्पष्ट दृष्टिकोण, सत्तारूढ़ भाजपा के 2024 के एजेंडे की स्पष्टता के विपरीत है। इसका एक कारण है कि भाजपा को सत्ता में रहने का लाभ मिल रहा है। भाजपा भविष्य में शासन की अपनी योजना को मोदी के नेतृत्व के विशिष्ट पहलुओं के संदर्भ में व्यक्त करती है।इस प्रकार, मोदी का व्यक्तित्व ही संदेश बन जाता है: एक ‘मजबूत नेता’ जो समृद्धि और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के ‘अमृत काल’ का वादा करता है। इस बीच, यूसीसी और ‘लव जिहाद’ के मुद्दों को अपने हिंदुत्व के मूल आधार को बनाए रखने के लिए सक्रिय रूप से नियोजित किया जा रहा है। भाजपा का दृष्टिकोण काम कर रहा है। पिछले हफ्ते, इंडिया टुडे-सीवोटर (एमओटीएन) के द्विवार्षिक राष्ट्रीय सर्वेक्षण से पता चला कि 43 प्रतिशत वोट और 300 से ज्यादा सीटों के साथ एनडीए अगले साल एक और आसान जीत के साथ सत्ता में कायम रह सकता है।I.N.D.I.A का चेहरा बनने की होड़ से आगे निकल गए नीतीश कुमारराष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (NDA) शासन के नौ साल हो गए हैं, लेकिन अभी तक कोई स्पष्ट नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई है, खासकर कोविड-19 के बाद की अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने में सुस्ती के बावजूद। ऐसा इसलिए नहीं है कि लोग वर्तमान प्रधानमंत्री या उनकी सरकार के काम से पूरी तरह से संतुष्ट हैं। सरकार के कामकाज से व्यापक संतोष के साथ आर्थिक मामलों जैसे महंगाई, बेरोजगारी और आमदनी नहीं बढ़ने पर व्यापक असंतोष भी है। एमओटीएन सर्वेक्षण में केवल 46% लोगों ने एनडीए के आर्थिक प्रदर्शन को ‘बहुत अच्छा’ या ‘अच्छा’ बताया, जो 2016 के बाद से सबसे कम है।वास्तव में, 42% लोगों को लगता है कि पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पीएम मोदी से बेहतर तरीके से अर्थव्यवस्था को संभाला था। एक बड़े बहुमत (62%) ने दावा किया कि दैनिक खर्च का बोझ बढ़ गया है और 56% लोगों ने कहा कि बेरोजगारी का संकट गंभीर स्तर पर पहुंच गया है । इस प्रकार, मोदी की ‘आर्थिक परिवर्तनकारी’ छवि, जिसने दो लोकसभा चुनावों में उनकी जीत में योगदान दिया था, अब पूरी तरह से ‘सबका विकास’ के एजेंडे पर आधारित नहीं है और मध्य वर्ग को दरकिनार करता है। 2004 और 2009 में यूपीए की जीत, मध्य वर्ग के अच्छे-खासे समर्थन के कारण संभव हो सकी थी जो भाजपा को मिल रहे मध्य वर्ग के समर्थन के करीब या अधिक ही थी।लाल किले से ‘आएगा तो मोदी ही’ की हुंकार भर चुके पीएम को 2024 में आखिर कैसे रोक पाएगा विपक्ष का I.N.D.I.A.लोकनिति सीएसडीएस के इन चुनावों के आंकड़े से दिलचस्प सबूत मिलता है। यह आंकड़ा जनसंख्या को आय के आधार पर चार भागों में विभाजित करता है।इसमें पता चलता है कि 2004 में सबसे ज्यादा कमाई वाली 25 प्रतिशत भारतीय आबादी के मतदाताओं में से 25.4% ने कांग्रेस का समर्थन किया, जो 2009 में बढ़कर 30.3% हो गया। कांग्रेस कर्नाटक जैसे कुछ विधानसभा चुनावों में सामाजिक कल्याण केंद्रित ‘सबका विकास’ के एजेंडे पर जीत सकती है क्योंकि राज्य की राजनीति में विशिष्ट जातिगत विभाजन होते हैं जो राज्य विशेष राजनीतिक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से संबंधित होते हैं।इस तरह, पिछड़ी जाति के गठबंधन (जैसे सिद्धारमैया का अहिन्दा) और तोहफों (बिजली के बिलों में कटौती, बेरोजगारी भत्ता, बस यात्रा में सब्सिडी आदि पर) की राजनीति का तालमेल बैठ जाता है। कर्नाटक में, कांग्रेस ने गरीबों में भाजपा से लगभग दोगुना वोट हासिल किया। फिर भी, राष्ट्रीय स्तर पर जाति और वर्ग के बीच ऐसा सामंजस्य बिठा पाना बेहद चुनौतीपूर्ण है क्योंकि प्रत्येक राज्य में जातिगत विभाजन का सामाजिक-आर्थिक ढांचा मौलिक रूप से अलग है।’I.N.D.I.A’ के लिए मोदी का चक्रव्यूह है ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का आइडिया, समझिए क्योंयह उत्तर भारत के राज्य चुनावों में भी देखा जा सकता है, जैसे कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़, जहां कमलनाथ और भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस की चुनावी रणनीति, हिंदुओं के प्रमुख वर्गों को तुष्टीकरण और विकास के माध्यम से लुभाने की है। इन दोनों प्रदेशों में कांग्रेस, हिंदुओं को जाति या वर्ग में बांटने की रणनीति पर अपेक्षाकृत कम काम करती है। जैसा कि पॉलिटिकल सांइटिस्ट कांता मुरली ने बताया, ‘मोटे तौर पर, उत्तर भारत के राज्यों की जाति संरचना संकीर्ण पूंजीवादी गठबंधनों को बढ़ावा देती है, जबकि अधिक समतावादी दक्षिणी राज्य व्यापक पूंजीवादी/गरीब हितैषी गठबंधनों को बढ़ावा देते हैं।लोकनीति सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार, 2014 और 2019 के चुनावों में पारंपरिक मध्य वर्गों (आय के आधार पर टॉप 25% आबादी) में भाजपा ने कांग्रेस से दोगुने से अधिक मत हासिल किए। 2014 में, भाजपा ने इस मध्य वर्ग के निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस से 21 प्रतिशत अंक की बढ़त हासिल की (38% से 17%), जो 2019 में बढ़कर 24 प्रतिशत अंक (44% से 20%) हो गई।जी-20, लोकसभा चुनाव… फिर सही मौके पर साजिश रच रहे हैं जॉर्ज सोरोस? हिंडनबर्ग 2.0 आने की खबरइकॉनमिक एजेंडे के माध्यम से इन वर्गों के बीच पहले की धाक वापस पाए बिना कांग्रेस चुनावों में अपना प्रदर्शन सुधारने में कामयाब होगी, यह मुश्किल है। फिर कांग्रेस के सामने एक और मुश्किल है, सकारात्मक सरकारी एजेंडे को अपने पक्ष में भुनाने वाले एक मजबूत नेतृत्व का अभाव। राहुल गांधी ने वास्तव में एक जिद्दी विपक्षी लड़ाके के रूप में अपनी छवि को काफी हद तक सुधारा है। मूड ऑफ द नेशन सर्वे में भाग लेने वाले लगभग 43% लोगों का दावा है कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी की छवि बेहतर हुई है।वहीं, 55% लोगों का दावा करते हैं कि एनडीए शासन ने मुख्य रूप से बड़े उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाया है। राहुल गांधी भी यही आरोप लगाते हैं। फिर भी, राहुल के पास अभी तक कोई इकॉनमिक एजेंडा नहीं है जो बड़े पैमाने पर मतदाताओं को लुभा सके। अभी भी यूपीए शासन की आर्थिक सफलताओं का श्रेय प्राप्त करने वाले मनमोहन सिंह उम्र की वजह से अब सक्रिय राजनीति में नहीं हैं। बड़ी बात है कि कांग्रेस में ऐसा कोई चेहरा ही नहीं दिखता जो मनमोहन की जगह ले सके और एक विकासवादी एजेंडे से भाजपा से मध्य वर्ग के मतदाताओं को छीन सके।प्रशांत महासागर के खौलते पानी से लोकसभा चुनाव में हो सकता है खेल! एलनीनो का कनेक्शन समझिएकांग्रेस का राष्ट्रीय आर्थिक एजेंडा अभी भी अमूर्त नारे जैसे ‘अर्थव्यवस्था के आधार को व्यापक बनाना’ और ‘श्रमिकों के मुद्दों को प्राथमिकता देना’ तक ही सीमित है। बहुत से मतदाता नहीं जानते कि ये नारे वास्तव में क्या मायने रखते हैं और वे किसके लिए लक्षित हैं। एक सुसंगत संदेश की कमी और अधिक विश्वसनीय नेता के अभाव से भरोसे का संकट बना हुआ है। कांग्रेस को इस समस्या को हल करने की जरूरत है, इससे पहले कि वह वास्तविक रूप से भाजपा की आर्थिक मोर्चे पर कमजोरियों का फायदा उठाने की उम्मीद कर सके।लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।