opinion on Nuh Violence: picture of nuh after violence

खिड़की बंद करोदरवाज़ा मत खोलोबोलना है तो आँखों ही आँखों में बोलोशोर गली तक आ पहुँचा हैजल मरने से पहलेआओ गले मिल कर रो लो….
ये नज्म है मोहम्मद अल्वी साहब की. शायद ये अल्फ़ाज़ काफी है फसाद का दर्द समझने को. भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता. वो प्यासी होती है खून की. उसका कलेजा सिर्फ और सिर्फ खून की पिचकारी से ही सुकून महसूस करता है. हरियाणा का नूंह जल रहा है. मकान, दुकान, वाहन सब ख़ाक पड़े हुए हैं. शहर के कई रास्ते चीख चीखकर हिंसा की गवाही दे रहे हैं. गलियों में सन्नाटे हैं. जमीन पर बिखरे हुए कांच के टुकड़े हिंसा की कहानी बयां कर रहे हैं. मरने वाला कोई भी हो. मंदिर जली हो या मस्जिद. खून किसी का भी बहा हो. जिसकी जान चली गई वो लौटकर नहीं आएगी. कुछ दिनों बाद हालात सुधर जाएंगे. मेवात के लोग वापस से अपनी जिंदगी जीने लगेंगे मगर यादों के संदूक में सिमटी ये तस्वीरें कभी नहीं भुलाई जाएंगी. कितनी भी तकरीरें आप दे दो. हिंसा को आप जायज नहीं ठहरा सकते.
मेवात की सड़कें हिंसा की आग बयां कर रही हैं (Photo: BCCL)
देखिए, जी भर के ये तस्वीरें देखिए. हिंसा की आग देखिए. मुझे यकीन है आप का कलेजा भी कांप रहा होगा. आप भी सोच रहे होंगे कि हिंदुस्तान की ये रवायत तो नहीं है. विदेशी मुल्क हम पर हंस रहे हैं. गुरुग्राम से लोग पलायन कर रहे है. अपना घर छोड़ने का दर्द इनके शब्द और आंखें बयां कर रही हैं. फिर भी जान है तो जहान है. लेकिन ये किस जहान के लिए जान बचा रहे हैं. इसी जहान के लिए जहां पर इंसान ही इंसान के खून का प्यासा है.

मासूम बच्चा अभी भी दूध के इंतजार में हैं. उसे दंगा, हिंसा, हिंदू-मुसलमान शब्द के मायने तक नहीं पता. आज वो भूखा सो रहा है. शायद सोच रहा होगा कि उसकी मां आज उसको दूध नहीं पिला पाएगी. हाथों में तलवार लेकर नारे लगाने वाले जाहिलों को समझना चाहिए, चंद सियासी हुक्मरानों की साजिश न बने. दंगे में कौन मरता है. कभी पलटकर देखिएगा दंगे के निशानों को. आपको मासूमों की चीखें, लाश के बगल में छाती पीटती मां के सिवा कोई नजर नहीं आएगा.
मेवात की सड़कें हिंसा की आग बयां कर रही हैं (Photo: BCCL)
बशीर बद्र साहब का एक शेर है. लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में. दुकानें लुट गईं. सालों की कमाई में दंगाई आग लगा गए. भगवान हो या अल्लाह ये कभी ऐसे लोगों को माफ नहीं करेंगे. उबैदुल्लाह अलीम लिखते हैं मैं ये किस के नाम लिक्खूँ जो अलम गुज़र रहे हैं मिरे शहर जल रहे हैं मिरे लोग मर रहे हैं. स्क्रीन पर चल रही तस्वीरों पर आप भी थोड़ी संवेदना दे सकते हैं. दोनों समूहों में सही गलत ठहरा सकते हैं. मगर इन बेकसूरों को क्यों सजा मिलती है. दंगाई हमेशा बच जाते हैं. वो उकसाते हैं औकर छिप जाते हैं. इस आग में राख हो जाते हैं कई घरों के चराग. दंगे की तपिश देखने के बाद इन आंखों को आफताब की रोशनी से खौफ लगता है. खौफज़दा ये लोग मेवात छोड रहे हैं. अपनी औलादों को गोदी पर उठाकर मीलों का सफर तय कर रहे हैं. वो यहां से भाग जाना चाहते हैं. शर्म आती है मुझे ये तस्वीर देखकर. गुस्सा आता है उन लोगों पर जो हिंसा को सियासी हथियार बना रहे हैं. जो लाशों पर राजनीति कर रहे हैं. इज़ाजत दीजिए. लिखना बंद रहा हूं. इस उम्मीद से भगवान, अल्लाह जहां तक मेरी फरियाद पहुंच पा रही हो बस इस आग को शांत कर दे….
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं