नई दिल्ली : समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) का मुद्दा आजकल चर्चा में है। अभी शादी-विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, संपत्ति में अधिकार जैसे सिविल मुद्दों पर मजहब के हिसाब से अलग-अलग कानून हैं। आप हिंदू हैं तो अलग कानून, मुस्लिम हैं तो अलग, क्रिश्चियन हैं तो अलग…। ये पर्सनल लॉ (What are personal laws?) कहलाते हैं। पर्सनल लॉ प्राचीन काल से चली आ रही प्रथाओं, परंपराओं पर आधारित हैं और उनके पैरोकार मानते हैं कि इन्हें हरगिज नहीं बदला जा सकता। ये पत्थर की लकीर हैं। पर्सनल लॉ के नाम पर भेदभाव और कुरीतियों (Malpractices on name of tradition) तक को संरक्षण मिलता है। कई कुरीतियों को कानून बनाकर खत्म किया गया। सबसे हालिया मामला तलाक-ए-बिद्दत (Triple Talaq news) यानी तीन बार तलाक बोलकर एक झटके में महिला से शादी को खत्म करने की परंपरा पर रोक का है। कुरीतियों को खत्म करने के लिए अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग कानून बनाने से बेहतर ये है कि देश में सबके लिए एक कानून हो। सबके लिए यानी वह महिला हो या पुरुष, हिंदू हो या मुस्लिम…हर नागरिक के लिए एक समान कानून। सती प्रथा भी ऐसी ही एक कुरीति थी जिसे परंपरा के नाम ढोया गया। हाल में हमने 1987 के रूप कंवर सती कांड के बारे में बताया था जिसने तब पूरे देश को हिला दिया था। 18 साल की रूप कंवर की 8 महीने पहले ही शादी हुई थी। पति की मौत के बाद वह उसकी चिता के साथ जिंदा जल गई। इसके बाद सती प्रथा के खिलाफ पहले से सख्त कानून बनाना पड़ा। बाल विवाह (Child Marriage menace in India) भी ऐसी ही एक कुरीति है जो बच्चों से उनका बचपन छीन लेती है। उसके पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे अधिकारों पर नकारात्मक असर पड़ता है। असम की इससे सबसे ज्यादा पीड़ित महिलाएं होती हैं यानी दुनिया की आधी आबादी। भारत में बालविवाह के खिलाफ तब कानून बना जब एक 10 साल की एक मासूम बच्ची फूलमोनी देवी (Phulmony Dasi Rape Case) शादी की पहली रात ही तड़प-तड़पकर मर गई। मामला अदालत में पहुंचा। रूपकंवर सती कांड की तरह उस घटना ने भी तब पूरे देश को झकझोर दिया था। उसी दौर में रखमाबाई (Story of Rukhmabai the first woman doctor of India) नाम की एक अन्य लड़की ने पति के घर जाने से इनकार कर दिया। वही रखमाबाई जो आगे चलकर डॉक्टर बनीं और जिन्हें देश की पहली महिला डॉक्टर माना जाता है।10 साल की बच्ची की शादी की पहली रात मौत से हिल गया था पूरा देशएक 10 साल की बच्ची की शादी की पहली रात को दर्दनाक मौत के बाद पूरा देश हिल गया था। उसके बाद तमाम लीगल रिफॉर्म्स हुए और बाल विवाह के खिलाफ भारत में पहली बार कानून बना। उस लड़की का नाम था फूलमोनी दासी और उसकी मौत के मामले को फूलमोनी दासी रेप केस के नाम से जाना गया। ये बात है 1889 की। जब देश पर अंग्रेजों का राज था। बंगाल की फूलोमनी दासी की 1889 में बमुश्किल 10 साल की थी कि मां-बाप ने उसकी शादी तय कर दी। उसकी शादी हरि मोहन मैत नाम के 30 साल के शख्स के साथ हुई। इतनी छोटी उम्र के मासूम को भला क्या समझ कि शादी क्या चीज होती है? सेक्स क्या होता है? उसे तो शादी का मतलब सिर्फ यही पता कि उत्सव, नए-नए कपड़े, अच्छे-अच्छे पकवान, मिठाइयां, नाच-गाना, गीत-संगीत, जश्न….। शादी की पहली रात को ही फूलोमनी की मौत हो गई। पति ने सुहाग रात के नाम पर उस मासूम के साथ जबरदस्ती की। वह बख्शने की गुहार लगाती रही, चीखती और चिल्लाती रही लेकिन उसके पति ने एक न सुनी। उसकी चीख-पुकार सुनकर जब घर की महिलाएं उस कमरे में गईं तब उन्होंने देखा कि बच्ची खून से लथपथ अचेत पड़ी है। पूरे कमरे में खून ही खून फैला हुआ था। पास में उसका पति है और उसके कपड़ों पर भी खून के छींटे पड़े हैं। खून से लथपथ फूलमनी दासी ने तड़प तड़कर दम तोड़ दिया।सती ऐक्ट की कहानी: साल 1987, पति की जलती चिता पर बैठी 18 साल की रूप कंवर और पूरा देश हिल गयाऑटोप्सी रिपोर्ट ऐसी कि रोंगटे खड़े हो जाएंफूलमनी की मां ने इंसाफ की लड़ाई शुरू की और मामला अदालत में गया। 6 जुलाई 1890 को कलकत्ता सेशंस कोर्ट में मुकदमा शुरू हुआ जिसे ‘एम्प्रेस वर्सेज हरिमोहन मैत’ के नाम से जाना गया। इसने पूरे देश का ध्यान खींचा। मुकदमे के दौरान फूलमनी दासी की ऑटोप्सी रिपोर्ट कोर्ट में पेश की गई, जो ऐसी बर्बरता की कहानी बयां कर रहा था जो रोंगटे खड़े कर दे। किसी को भी विचलित कर दे। आज भी फूलमनी देवी की ऑटोप्सी रिपोर्ट को डॉक्टर और विधि विशेषज्ञ केस स्टडी के तौर देखते हैं, पढ़ते हैं।ऑटोप्सी रिपोर्ट के मुताबिक, फूलमनी दासी की मौत गुप्तांग में जख्म लगने और बहुत ज्यादा खून बहने से हुई। उनका शव बहुत ही भयानक हालात में खून से लथपथ मिला था। ऑटोप्सी रिपोर्ट के मुताबिक, फूलमनी के सेक्सुअल ऑर्गन विकसित ही नहीं हुए थे। उसका गर्भाशय अभी नहीं बना था। उसकी माहवारी भी शुरू नहीं हुई थी। किशोरावस्था के उसमें कोई बाहरी लक्षण नहीं थे सिवाय आंशिक तौर पर उभरे वक्षस्थल के। मेडिकल साइंस के मुताबिक, वह अभी किशोरावस्था यानी प्यूबर्टी की तरफ बढ़ रही थी लेकिन अभी किशोर नहीं हुई थी।उस वक्त कानून के मुताबिक, शादी के लिए लड़की की न्यूनतम उम्र 10 साल होनी चाहिए थी। इसलिए इतनी बर्बरता के बावजूद उसके पति को सिर्फ 12 महीने की सजा सुनाई गई। उसे सिर्फ ‘किसी अन्य की पर्सनल सेफ्टी को खतरे में डालने और गंभीर चोट पहुंचाने’ का दोषी ठहराया गया। रेप के केस में वह इसलिए बरी हो गया कि कानून के मुताबिक, पत्नी से यौन संबंध बनाना रेप नहीं माना जाता।जब रखमाबाई ने शादी के बाद पति के घर जाने से इनकार कर दियाफूलमनी दासी का केस जब अदालत में चल ही रहा था, उसी दौरान एक अन्य मामले ने भी देश का ध्यान खींचा। तत्कालीन बॉम्बे (आज की मुंबई) की रखमाबाई राउत की शादी उनकी विधवा मां ने महज 11 साल की उम्र में दादाजी भीकाजी नाम के एक 19 साल के शख्स के साथ कर दी थी। दोनों की शादी 1875 में हुई। तब रिवाज था कि कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी लेकिन उन्हें ससुराल नहीं भेजा जाता था। जब लड़कियां थोड़ी सयानी हो जाती थीं, किशोरावस्था को हासिल कर लेती थीं तब उन्हें पति के घर भेजा जाता था। गौना का ये रिवाज आज भी देश के कई हिस्सों में प्रचलित है। बाद में रखमाबाई ने अपने पति के घर जाने से इनकार कर दिया। 1887 में उनके पति ने अदालत का रुख किया और वैवाहिक अधिकारों की बहाली की मांग की। कोर्ट में रखमाबाई ने दलील दी कि कोई भी उन्हें इस शादी के लिए मजबूर नहीं कर सकता क्योंकि उन्होंने शादी के लिए सहमति नहीं दी थी। जब उनकी शादी हुई तब वह बहुत ही छोटी थीं। तब अदालत ने उनके सामने दो विकल्प रखे- शादी हो चुकी है लिहाजा पति के घर चली जाओ या फिर 6 महीने जेल की सजा काटो। रखमाबाई ने पति के घर जाने के बजाय जेल जाने का साहसिक और ऐतिहासिक फैसला लिया। कोई दूसरी मासूम बाल विवाह के कुचक्र में न फंसे, इसके लिए उन्होंने एक तरह का आंदोलन शुरू कर दिया। इसमें उन्हें अपने सौतेले पिता सखाराम अर्जुन का भी साथ मिला। उन्होंने 22 साल की उम्र में तलाक के लिए कानूनी लड़ाई शुरू की। अदालत ने तलाक को मंजूरी नहीं दी। इसके बावजूद वह हिम्मत नहीं हारीं। उन्होंने अपनी शादी को खत्म करने के लिए ब्रिटेन की तत्कालीन महारानी विक्टोरिया को पत्र भी लिखा। महारानी ने अदालत के फैसले को पलट दिया। आखिरकार पति मुकदमा वापस लेने के लिए मजबूर हुआ और रखमाबाई थोपी गई शादी से आजाद हो गईं। उसके बाद उन्होंने विदेश में डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने फिर कभी शादी नहीं की और अपना पूरा जीवन महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए खपा दिया। उन्हें भारत की पहली महिला डॉक्टर माना जाता है जो अपनी पीढ़ी की बहुत बड़ी समाज सुधारक थीं।रखमाबाई (फाइल फोटो)फूलमनी दासी रेप केस और रखमाबाई की हिम्मत ने शुरू किया न्यायिक और सामाजिक सुधारों का दौरफूलमनी दासी रेप केस और रखमाबाई के पति के घर जाने से इनकार करने के मामलों की देशभर में काफी चर्चा हुई। इसके बाद कई तरह के न्यायिक और सामाजिक सुधार शुरू हुए। ब्रितानी हुकूमत ने शादी की न्यूनतम उम्र को बढ़ाने का फैसला किया। 9 जनवरी 1891 को भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लैंसडाउन ने ‘एज ऑफ कंसेंट’ बिल पेश किया। इसमें शादी के लिए लड़की की न्यूनतम उम्र को 10 साल से बढ़ाकर 12 कर दिया गया। इस उम्र से कम की लड़की से सेक्स को रेप माना गया भले ही वह आरोपी की पत्नी ही क्यों न हो। तब इस बिल का तमाम हिंदूवादी संगठनों और नेताओं ने काफी विरोध भी किया था। इसे हिंदू धर्म से जुड़े मामलों में सरकार का हस्तक्षेप बताया गया। लेकिन बिल पास हुआ और कानून बना। बाद में 1929 में लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र को 12 साल से बढ़ाकर 14 साल कर दिया गया और लड़कों के लिए ये 18 वर्ष रखी गई। देश जब आजाद हुआ तो 1949 में लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम उम्र को बढ़ाकर 15 साल कर दिया गया। लड़कों के लिए उम्र में कोई बदलाव नहीं किया गया। बाद में 1978 में कानून में फिर से संशोधन हुआ और शादी के न्यूनतम उम्र को बढ़ा दिया गया। महिलाओं के लिए ये 18 वर्ष और पुरुषों के लिए 21 वर्ष किया गया।भारत में बाल विवाहबाल विवाह कितनी गंभीर समस्या है, इसका अंदाजा यूनिसेफ की एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर साल कम से कम 15 लाख लड़कियों की शादी 18 वर्ष की उम्र से पहले हो जाती है। 15 से 19 वर्ष की उम्र वाली देश की करीब 16 प्रतिशत लड़कियों की फिलहाल शादी हो चुकी है। हालांकि, अच्छी बात ये है कि बाल विवाह में लगातार कमी आ रही है। यूनिसेफ के मुताबिक, 2005-06 में भारत में बाल विवाह का प्रतिशत 47 था, जो एक दशक बाद 2015-16 में घटकर 27 प्रतिशत रह गया। हालांकि, तब भी ये बहुत ऊंचा है।