अक्षय शुक्ला
पिछले वीकेंड उत्तराखंड के एक शांत से हिल स्टेशन लैंसडाउन की शॉर्ट ट्रिप पर गए। मसूरी, नैनीताल, शिमला की तरह यहां न ट्रैफिक का शोर है, न कंक्रीट के जंगल। बेहद कम बसाहट और हरे-भरे पहाड़ों से घिरे लैंसडाउन की खूबसूरती मॉनसून सीज़न में देखने लायक थी। यहां की सुनसान सड़कों पर बादलों के बीच ड्राइव करने का अपना ही मज़ा है। हालांकि, यह मज़ा उस समय थोड़ा किरकिरा हुआ, जब कई जगह पर्यटकों की छोड़ी हुई निशानियां देखने को मिलीं। हिल टॉप पर बसा छावनी एरिया तो एकदम साफ-सुथरा था, लेकिन दूसरे पहाड़ी कई रास्तों के किनारे पड़ी बीयर की बोतलें और प्लास्टिक के कचरे को देख दुख हुआ कि कितना ही समझा लें, लोग नहीं सुधरेंगे। इतनी सुंदर जगह को गंदा करने का कोई सोच भी कैसे सकता है। खा-पीकर खाली रैपर्स और बोतलें वहीं फेंकी और आगे बढ़ गए। जिन दूसरे पर्यटकों के लिए ये गंदगी छोड़कर जा रहे हैं, क्या खुद इसी जगह बैठना पसंद करेंगे। दूसरों का नहीं, तो कम से कम इस प्रकृति का ही ख्याल कर लें, जिसे निहारने इतनी दूर से वहां पहुंचते हैं। खाली बोतलों और कचरे को अपनी गाड़ी में ही रखें और जहां डस्टबिन दिखे, वहां उसमें डाल दें। यह हाल हर पॉपुलर हिल स्टेशन का है। अभी हाल में नैनीताल का एक ऐसा ही विडियो काफी वायरल हुआ, जिसमें सफाई अभियान के दौरान हज़ारों की संख्या में निकलीं शराब की खाली बोतलों को एक दीवार पर लाइन से रखा हुआ है। नीचे ज़मीन पर प्लास्टिक कचरे समेत पर्यटकों की फेंकी हुई ढेर सारी गंदगी बिखरी पड़ी है। समझ नहीं आता कि लोग घर से इतनी दूर पहाड़ों पर या नदियों के किनारे क्या सिर्फ पीने के लिए ही आते हैं? उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कई लोकप्रिय पर्यटन स्थलों से भी नदी किनारे शराब की बोतलों के ढेर मिलने की तस्वीरें आती रहती हैं। नदी में बैठकर लोग नशा करते हैं और बोतलें या कैन पानी में ही फेंक चले जाते हैं। नशा करने के बाद ये न सिर्फ गंदगी फैला रहे हैं, बल्कि उसी हालत में ड्राइव कर खुद के साथ ही दूसरों की जिंदगी भी खतरे में डाल रहे हैं।
इस बीच, उत्तराखंड के चारों पवित्र धाम एक दूसरे तरह के कचरे से जूझ रहे हैं। गंगोत्री और यमुनोत्री धाम में पिछले दो महीनों में चले सफाई अभियान के दौरान भागीरथी और यमुना नदी से सात क्विंटल कपड़े निकले हैं, जिनमें सबसे अधिक संख्या साड़ियों की थी। यहां आने वाले तीर्थयात्री स्नान के बाद पुराने गीले कपड़े नदी में ही बहा दे रहे हैं। सभी घाटों पर नदी में कपड़े न बहाने से संबंधित चेतावनी बोर्ड लगे हैं और लाउडस्पीकर से अनाउंसमेंट भी किया जाता है, तब भी लोग लगातार कपड़े और अन्य कचरा नदी में बहाए जा रहे हैं। ऐसा करते पकड़े जाने पर एक हज़ार रुपये के जुर्माने का प्रावधान है, पर उसका भी कोई असर नहीं दिख रहा। घाटों पर प्लास्टिक और अन्य कचरा भी भारी मात्रा में मिला है।
साफ-सफाई को लेकर हमारा रवैया इतना बेपरवाह सा क्यों है कि जहां बैठे, वहीं गंदगी फैला दी। सावन की शुरुआत में अभी जगह-जगह राहगीरों को मीठा शरबत पिलाने के स्टॉल लगे देखे। कई जगह नियमों के विपरीत प्लास्टिक के गिलासों में शरबत पिलाया जा रहा था और डस्टबिन रखे होने के बावजूद सभी लोग गिलास सड़क पर ही फेंक कर चले जा रहे थे। उस भले काम की पवित्रता कितनी बढ़ जाए, अगर हम साफ-सफाई का भी ध्यान रखें। अक्सर यह हाल प्रमुख त्योहारों के समय हमारे धर्मस्थलों का भी हो जाता है। धार्मिक कार्यक्रम के बाद बची हुई पूजन सामग्री प्लास्टिक की पन्नियों में भरकर नदियों में डाल दी जाती हैं। प्रतिबंध के बावजूद इस पर रोक नहीं लग पा रही है। चाहे सड़क पर हो, पहाड़ या नदी और नालों में, हमारा फेंका कचरा हर जगह पर्यावरण और जल स्रोतों को नुकसान पहुंचा रहा है। ये प्लास्टिक वेस्ट सड़क और पानी में रहने वाले जीवों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मनुष्य के फेंके प्लास्टिक कचरे से हर साल पानी में रहने वाले 10 करोड़ से अधिक जीव मारे जाते हैं। बड़े आकार के समुद्री जीव अक्सर इस कचरे को शिकार समझ निगल जाते हैं और दम घुटकर उनकी मौत हो जाती है। हाल ही में दो विडियो काफी वायरल हुए जिनमें एक में शार्क मछली और दूसरे में कछुआ प्लास्टिक के तार में बुरी तरह उलझे नज़र आ रहे हैं। बड़ी मशक्कत के बाद कुछ लोग उन्हें उससे आज़ाद करते हैं। हमारी लापरवाही की कीमत ये बेज़ुबान चुका रहे हैं।
पहाड़ों पर लगा है प्लास्टिक कचरे का ढेर (फोटोः एजेंसी)
हालांकि कई लोग हैं जिन्होंने साफ-सफाई को एक मिशन बना रखा है। इनमें से एक हैं मुंबई के 34 वर्षीय अफरोज़ शाह, जिन्होंने आठ साल पहले अकेले ही वहां के सबसे गंदे वर्सोवा बीच को साफ करने का बीड़ा उठाया। तट पर बिखरे पड़े हर तरह के कचरे को उठाने के उनके मिशन में साल भर के अंदर तीन सौ लोग जुड़ गए। हज़ारों टन कचरा हटाकर इस बीच को साफ-सुथरा बनाने वाले अफरोज़ को संयुक्त राष्ट्र अपने शीर्ष पर्यावरण सम्मान ‘चैंपियन ऑफ दि अर्थ’ से नवाज़ चुका है। अपने पर्यावरण को बचाने के लिए आज हमें हर जगह ऐसे ही लोगों की ज़रूरत है। इनके जैसा जज्बा हर नागरिक में न हो, पर इतना तो किया ही जा सकता है कि अगर हम अपने आसपास सफाई में कोई योगदान न दे पा रहे हों तो कम से कम गंदगी फैलाने में तो न दें।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं