प्रणब ढल सामंता
अमेरिका और भारत में आज जो राजनीतिक माहौल है, वह पिछले एक दशक में हुए बदलावों का नतीजा है। 9/11 आतंकवादी हमलों के बाद इस्लामिक आतंकवाद से मुकाबले के लिए दोनों करीब आए और आज चीन के रूप में अहम चुनौती का सामना करने के लिए दोनों साथ हैं। इस संघर्ष में सीमा विवाद से लेकर तकनीकी वर्चस्व की लड़ाई तक शामिल है। जिन हालात में दोनों देशों के रिश्तों में बदलाव आया है, वह भी महत्वपूर्ण है। लेकिन यह भी मानना होगा कि दोनों देशों के संबंधों में हुई प्रगति के बावजूद नौकरशाही की पुरानी सोच और बाधाएं बनी हुई हैं।
चीन पर दांव: सोवियत संघ के विघटन के बाद भी भारत और अमेरिका एक-दूसरे से दूर-दूर रहे। इकलौती सुपर पावर के रूप में अमेरिका ने 1990 के दशक में चीन पर दांव लगाया। जो आर्थिक रूप से एकीकृत था, लेकिन जहां लोकतंत्र नहीं था। जहां कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही चलती थी। उस दौर में चीन ने पाकिस्तान जैसे सहयोगी देशों को आतंकवाद रोकने के लिए मजबूर नहीं किया, जो भारत में अशांति फैलाने के लिए इनका इस्तेमाल कर रहा था। चीन ने उन देशों के साथ भी रिश्ते मजबूत किए, जिन्हें अमेरिका ‘दुष्ट देश’ कहता है। उसने नॉर्थ कोरिया और पाकिस्तान को परमाणु हथियार बनाने में मदद दी। दूसरी ओर, शीत युद्ध के बाद 1998 में भारत के पोखरण-2 परमाणु परीक्षण और 2001 में अमेरिका में हुए 9/11 के हमलों ने दोनों पक्षों को नजदीक ला दिया।
ब्यूरोक्रेसी की बाधा: 2000 के दशक में भारत और अमेरिका के बीच सामरिक संबंधों को लेकर असल पहल हुई। 2008 का यूएस-इंडिया असैन्य परमाणु समझौता उस प्रयास की बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इससे नौकरशाह अपना रवैया बदलने को मजबूर हुए, लेकिन उनकी ओर से चुनौतियां खत्म नहीं हुईं। ब्यूरोक्रेसी ने सिविल न्यूक्लियर लायबिलिटी लॉ और दूसरे तकनीकी मुद्दे उठाकर बाधाएं खड़ी कीं। इसीलिए न्यूक्लियर और तकनीक के क्षेत्रों में दोनों के बीच सहयोग नहीं बढ़ पाया।
नया युग: नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार भारत ने अमेरिका के साथ मजबूत रिश्तों को राजनीतिक रूप से अपनाया। इस दौर में दोनों देशों के संबंधों में संतुलन आया। अमेरिका को इसका अहसास हो गया था कि चीन उसके बरक्स खड़ा हो रहा है। अब वह 1990 और 2000 के दशक की अकेली सुपर पावर नहीं रह गया है। अमेरिका ने चीन को लेकर एक गलतफहमी पाल रखी थी कि आर्थिक समृद्धि उसे लोकतंत्र की राह पर ले जाएगी।
इससे भारत जैसे साझेदारों को लेकर उसका रवैया सही हुआ। आज अमेरिका को पता है कि उसे भारत से क्या उम्मीद करनी चाहिए। अमेरिका यह भी जानता है कि भू-राजनीति को लेकर नए अलायंस के लिए उसे सहयोगी देशों के हितों का भी खयाल रखना होगा। जैसे, भारत की हथियारों को लेकर रूस पर निर्भरता। भारत और अमेरिका समझ रहे हैं कि रक्षा क्षेत्र में सहयोग कितना जरूरी है क्योंकि इसका असर हिंद-प्रशांत की भू-राजनीति पर पड़ने वाला है, जहां चीन बेहद आक्रामक है।
जरूरी क्षेत्र: आज दोनों देशों को सहयोग बढ़ाने के लिए मिलकर काम करने की जरूरत है:
2016 के राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम के जरिए अमेरिका ने भारत को प्रमुख रक्षा भागीदार बनाया। लेकिन अमेरिकी विदेश विभाग के आर्म्स एक्सपोर्ट कंट्रोल एक्ट में भारत को ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसी बराबरी नहीं दी गई।
इसके चलते जीई फाइटर जेट इंजन जैसी चीजों की तकनीक के ट्रांसफर प्रॉसेस में देर होती है।
वहीं, भारत को अपनी ओर से अमेरिकी बौद्धिक संपदा अधिकारों की रक्षा के लिए आश्वासनों पर काम करना होगा।
अमेरिका और चीन जैसी दो तकनीकी ताकतों में बंटने वाली दुनिया में भारत, अमेरिका के साथ जाएगा। यानी 5जी, 6जी और AI में जल्द से जल्द अमेरिका के साथ तालमेल जरूरी है।
पीएम मोदी अगले महीने अमेरिका की राजकीय यात्रा पर जा रहे हैं। ऐसे में सामरिक लिहाज से अमेरिका के और करीब जाने के लिए भारत अपनी ओर से क्या पेशकश कर सकता है, उसे यह देखना चाहिए। इसके साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ अमेरिका को और मजबूती से जोड़ने की कोशिश होनी चाहिए। आखिर, अमेरिका के आर्थिक सहयोग की वजह से ही पिछले दो दशकों में चीन बड़ी आर्थिक ताकत बन पाया।