वरुण गांधी
लेखकः वरुण गांधीवित्त वर्ष 2022 में भारत का राजकोषीय घाटा केंद्रीय स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद का 6.8 फीसद रहने की उम्मीद है। आम समझ के लिए यह बोझ 15.06 लाख करोड़ रुपए का है। राज्यों के कर्जों को भी इसमें शामिल कर लें तो यह आंकड़ा जीडीपी के 12.7 फीसद तक पहुंच जाता है। गौरतलब है कि वित्त वर्ष 2022 में मनरेगा के लिए बजटीय परिव्यय 73,000 करोड़ था, जबकि रक्षा मंत्रालय को इसी अवधि के लिए 4.78 लाख करोड़ रुपए आबंटित किए गए थे। अंतर का यह पाट हर साल चौड़ा और गहरा होता जा रहा है। दिलचस्प है कि निजीकरण को सर्वसम्मत रास्ता या रामबाण मान लिया गया है। नीति निर्माता अक्सर निजी क्षेत्र की क्षमता और तेजी से आगे बढ़ने की उसकी पेशकश का हवाला देते हैं। पर यह हमेशा सच नहीं साबित हो सकता।
सरकारी उदासीनताअध्ययनों से संकेत मिलता है कि स्वायत्तता वाले लोक उपक्रम और निजी फर्मों के बीच विकास और सेवा को लेकर कोई खास अंतर नहीं है। एक अध्ययन में इस मुद्दे पर रोशनी डाली गई है कि ब्रितानी निजीकरण की प्रसिद्ध पहल के तहत ब्रिटिश एयरवेज, ब्रिटिश गैस और उसके रेलवे के प्रदर्शन में कोई व्यवस्थित अंतर नहीं आया। वैसे भी निजीकरण के बाद की वृद्धि अक्सर कई कारकों पर निर्भर करती है। कभी-कभी लोक उपक्रम के प्रदर्शन या राजस्व पैदा करने की उसकी क्षमता में कमी महज सरकारी उदासीनता की देन होती है। यह भी कि राजस्व स्रोत के रूप में निजीकरण ने भी अब तक मामूली रिटर्न की ही पेशकश की है।
मुंबई एयरपोर्ट के हैंगर में खड़े एयर इंडिया के विमान (फोटोः Raju Shelar)
एक नीति के रूप में निजीकरण भी अकेले महत्वपूर्ण धन जुटाने में नाकाम रहा है। विनिवेश से वास्तविक प्राप्तियां हमेशा लक्ष्य से काफी कम रही हैं। मसलन, विनिवेश के जरिए वित्त वर्ष 2011 में महज 22.846 करोड़ रुपए ही जुटाए जा सके, जबकि लक्ष्य एक लाख करोड़ रुपए जुटाने का था। वित्त वर्ष 2011 और 2021 के बीच इस तरह मात्र पांच लाख करोड़ रुपए जुटाए जा सके जो कि 2022 के राजकोषीय घाटे का महज 33 फीसद बैठता है।
साफ है कि निजीकरण से महत्वपूर्ण राजस्व जुटाने की संभावना खासी कमजोर है। शायद यह अन्य विकल्पों पर गौर करने का समय है। आगे चलकर हिस्सेदारी बिक्री के विपरीत एकमुश्त निजीकरण का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। हाल में एयर इंडिया के अलावा 21 तेल और गैस ब्लॉकों की नीलामी में केवल तीन फर्मों ने भाग लिया था और इनमें भी दो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम थे। 18 ब्लॉक के लिए तो महज एक बोली लगी। 12 रेल मार्ग-समूहों के निजीकरण की एक और कोशिश में तीन मार्गों के लिए दो बोलीदाता ही सामने आए। इन दो में भी एक लोक उपक्रम था।
इस बीच, बाजार में ब्याज दरों में बढ़ोतरी का जो आलम है, वह भी इस तरह के सौदों के लिए सही नहीं है। ऐसे में मूल्यांकन की भी चुनौती है। मसलन, 300 राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं में से 65 फीसद 25,000 किमी को कवर करते हुए 15 फीसद सालाना वृद्धि की दर से टोल संग्रह कर रहे हैं। ऐसी परिसंपत्तियों के किसी भी मूल्यांकन के लिए यह जरूरी होगा कि टोल राजस्व में संभावित वृद्धि को कतई नजरअंदाज न किया जाए अन्यथा सौदा नुकसान का होगा।
ऐसे विकल्पों में मारुति मॉडल कहीं ज्यादा शिक्षाप्रद है। यह सरकार का सुजुकी कॉर्पोरेशन के साथ एक संयुक्त उद्यम था। महज 26 फीसद शेयरधारिता होने के बावजूद सुजुकी द्वारा भारत से अधिक निर्यात और भारत में वैश्विक मॉडल के निर्माण के बदले में नियंत्रण छोड़ दिया गया था। सरकार के लिए बेहतर मूल्यांकन सुनिश्चित हो इसके लिए मारुति से बाहर निकलने का फैसला छोटी किश्तों में किया गया। इस मामले में अनुभवजन्य साक्ष्य इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि हिस्सेदारी बिक्री एक पसंदीदा राह है। 1977 और 2000 के बीच 108 देशों में सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री का 67 फीसद इसी तरह किया गया।
पीएसयू अतीत में रोजगार के लिहाज से अहम रहे हैं। 2018 में 10.3 लाख कर्मचारियों के साथ 348 केंद्रीय लोक उपक्रम अस्तित्व में थे। जाहिर तौर पर कम रोजगार सृजन की अवधि में निजीकरण के लिए एक और धक्का बड़े पैमाने पर छंटनी की निराशाजनक सूरत पैदा करेगा। यहां जो एक बात और काबिले गौर है, वह यह कि देश में वित्त वर्ष 2020 में कॉर्पोरेट क्षेत्र में उत्पन्न कुल मुनाफे का 70 फीसद महज 20 फर्मों के हाथों में था। जबकि 1993 में यह आंकड़ा 15 फीसद का था। मुनाफे का यह संकुचित और वर्चस्ववादी स्वरूप आज टेली कम्युनिकेशन से लेकर हवाई अड्डों के परिचालन तक कई क्षेत्रों में देखने को मिल रहा है। सार्वजनिक संपत्तियों के निजीकरण के साथ सामने आए इस तरह के इकहरे वर्चस्व से उच्च उपयोग शुल्क (यह पहले से ही दूरसंचार के क्षेत्र में देखा जा रहा है) और मुद्रास्फीति का तो खतरा बढ़ा ही है, सरकार के लिए रणनीतिक नियंत्रण में भी परेशानी आनी शुरू हो गई है। ऐसे में चुनिंदा पीएसयू के सुधार की राह पर भी विचार की दरकार है।
पिछले कुछ दशकों से चीन में विकास का नेतृत्व निगमीकृत (कार्पोरेटाइज्ड) सार्वजनिक उपक्रम कर रहे हैं। 2020 में फॉर्च्यून ग्लोबल-500 में 94 ऐसे चीनी पीएसयू शामिल थे। सिंगापुर के वित्त मंत्रालय ने भी अपने यहां सार्वजनिक उपक्रमों को कुछ इसी तर्ज पर चलाने के लिए नीति निर्माण पर जोर दिया है।
कारगर विकल्पऐसे कामयाब ग्लोबल तजुर्बों के बीच तार्किक तौर पर यह कहा जा सकता है कि एक होल्डिंग फर्म के के जरिए सरकारी नियंत्रण के साथ अधिक स्वायत्तता वाला लोक उपक्रम भी एक कारगर विकल्प हो सकता है। दरअसल, समय आ गया है कि हम निजीकरण के मुद्दे पर फिर से विचार करें। अब निजीकरण की पुरानी लीक पर चलते हुए और इससे अर्जित धन का चुनावी चक्र में कर्ज माफी या लोकलुभावन उपहारों के लिए इस्तेमाल करने भर से काम नहीं चलेगा। निजीकरण के जरिए तत्काल राजस्व की तलाश का फौरी और नीतिगत आग्रह आम भारतीय के दीर्घकालिक हितों पर हावी नहीं होना चाहिए।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं