अशोक देसाई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को सिख भाइयों को बधाई और शुभकामनाएं दीं। 1,604 ईस्वी में इसी दिन गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों के पांचवें गुरु अर्जन देव ने अमृतसर के गुरद्वारा रामसर साहिब में रखा था। गुरु ग्रंथ साहिब में सिखों के पहले चार गुरुओं के लिखे भजन हैं। प्रधानमंत्री ने देशवासियों को महत्वपूर्ण संदेश देने के लिए इस दिन को चुना। इस संदेश की मूल बात यह थी कि सरकार ने 14 महीने पहले जिन तीन कृषि कानूनों को लागू किया था, प्रधानमंत्री ने उन्हें वापस लेने का ऐलान किया। यह बड़ी खबर बनी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि नरेंद्र मोदी शायद ही किसी चीज से पीछे हटते हैं।
कृषि क्षेत्र में सरकारी पहल
प्रधानमंत्री ने जिस संबोधन में इन कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया, वह एक लंबा संदेश था। उसी के एक छोटे हिस्से में उन्होंने इन कानूनों को वापस लेने की बात कही। कुछ ही महीनों में पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। इसलिए सरकार की उपलब्धियों के बारे में बताने का वह सही मौका था और मोदी ने इसे गंवाया नहीं। उन्होंने कहा कि सरकार ने माइक्रो-इरिगेशन, सॉयल हेल्थ कार्ड्स और नीम कोटेड यूरिया को बढ़ावा दिया है। माइक्रो-इरिगेशन ऐसी तकनीक है, जिसमें पानी की कम मात्रा सीधे पौधों की जड़ तक पहुंचती है। भारत इसे इस्राइल से सीखने की उम्मीद कर रहा है। सॉयल हेल्थ कार्ड्स से किसानों को जो सूचना मिलती है, उसकी मदद से वे उर्वरक का बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकते हैं। दूसरी तरफ, नीम कोटेड यूरिया को खेतों में धीरे-धीरे डाला जाता है तो पौधों को कहीं अधिक लाभ होता है। ये सारे ही अच्छे आइडिया हैं, लेकिन इन पर किस हद तक अमल हुआ है, इसका पता नहीं है।
सरकार ने फसल बीमा योजना के तहत किसानों को मुआवजा दिलाया है। माना जाता है कि इस योजना के तहत किसानों को 1 लाख करोड़ रुपये मिले हैं। एक साल में देश में जितनी पैदावार होती है, यह रकम उसका 40वां हिस्सा है। क्या यह रकम काफी थी? क्या फसल बीमा योजना के तहत दी जाने वाली रकम प्रभावित किसानों तक पहुंची? हो सकता है, आगे चलकर हमें इन सवालों के जवाब मिलें। प्रधानमंत्री ने यह भी याद दिलाया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी की गई है। असल में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से पहले इसमें अंग्रेजों, बाद में कांग्रेस सरकारों और सभी राजनीतिक दलों की सरकारों ने बढ़ोतरी की है। तो क्या मोदी इसका श्रेय नेहरू, राव और मनमोहन सिंह की सरकारों के साथ बांटना चाहेंगे?
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हजारों मंडियों को ई-मंडियों में बदला गया है। यानी वहां कंप्यूटर लगे हैं, जिनकी मदद से लोग कृषि उपज की खरीद या बिक्री कर सकते हैं। जो लोग इनके जरिये अनाज की खरीद-बिक्री करते हैं, उनमें से कितने किसान हैं, कितने व्यापारी और कितने सट्टेबाज? ई-मंडियों में किन फसलों का व्यापार ज्यादा हो रहा है? फसलों की कटाई के बाद के महीनों में कितना व्यापार होता है और बाद के महीनों में कितना? अच्छा होगा, अगर ये अटपटे सवाल ना पूछे जाएं। यूं भी इनका जवाब किसी के पास नहीं है। मोदी ने यह भी कहा कि उनकी सरकार किसानों के हित में कृषि कानून लेकर आई थी। लेकिन क्या अच्छी नीयत ऐसे मामलों में काफी होती है?
जिन तीन कानूनों को रद्द करने की बात कही गई है, उनमें से पहला कानून किसानों को अपनी उपज कहीं भी बेचने का अधिकार देता। किसान सिर्फ सरकारी मंडियों में अनाज बेचने के लिए मजबूर नहीं होता। दूसरे कानून से उन्हें फसल तैयार होने से पहले ही उसकी बिक्री का करार करने की इजाजत मिलती। आमतौर पर फसल की बुवाई के वक्त ऐसे करार किए जाते हैं। तीसरे कानून में किसी उपज की स्टॉक लिमिट तय करने का सरकारी अधिकार खत्म किया गया था। यानी इन कानूनों के पीछे की सोच स्पष्ट थी। 1940 से 1960 के दशक तक देश में अनाज की कमी रही। इसलिए किसानों को सीधे सरकार को अनाज बेचने के लिए मजबूर किया गया। इनमें भी खासतौर पर गेहूं और धान पर जोर था, लेकिन इस वजह से अनाज का निजी व्यापार कम हो गया।
बीजेपी सरकार इस निजी व्यापार को बढ़ावा देना चाहती थी। इसके पीछे सोच यह रही होगी कि अगर निजी व्यापार बढ़ेगा और वह एकीकृत होगा तो अनाज की कीमत बाजार के हिसाब से तय होगी। उस बाजार से जुड़े लोग भविष्य में कीमतों का अंदाजा लगाकर किसी अनाज का स्टॉक बढ़ाएंगे या कम करेंगे। अमेरिका में शिकागो मार्केट इसी तरह से काम करता है, जो दुनिया का सबसे बड़ा कमोडिटी बाजार है। यह बाजार इंटरनेट के जरिये दूसरे बड़े बाजारों से जुड़ा हुआ है। सरकार ऐसा ही आधुनिक बाजार भारत में बनाना चाहती थी।
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लंबी योजना की जरूरत
यह अच्छा आइडिया था या नहीं, इस बात को रहने देते हैं, लेकिन कई किसानों, खासतौर पर उत्तर भारतीय किसानों को यह पसंद नहीं आया। वे सरकार को अनाज बेचने के आदी हैं। उनका मानना है कि सरकार के इस बाजार को नियंत्रित करने की वजह से अनाज की कीमत ऊंची रहती है, जो किसानों के हक में है। इस मामले में किसान मोटे तौर पर सही हैं। सरकार ने करोड़ों टन अनाज का भंडार तैयार किया है, इसलिए खाद्यान्न महंगे हैं। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि भारत में ज्यादातर अनाज की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार से अधिक रहती हैं। किसानों को यह बात भाती है।
यह भी सच है कि देश के पास जरूरत से अधिक अनाज है। हमारी खेती में ऐसे उत्पादों को शामिल करने की जरूरत है, जिनका निर्यात किया जा सके। यह तभी हो सकेगा, जब अनाज की कीमत से सरकार का नियंत्रण खत्म हो। उनकी कीमत बाजार तय करे। लेकिन इसके लिए अलग किसानों की जरूरत पड़ेगी। वैसे किसान जो समृद्ध हों, शिक्षित हों और उनमें उद्यमशीलता हो। यह रातोरात नहीं हो सकता। इसके लिए लंबे वक्त की सूझबूझ भरी योजना बनानी होगी, जिसके लिए सरकार तैयार नहीं है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं