Sanatan Dharma Issue Opposition Alliance INDIA To Stay On Backfoot

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और खेल एवं युवा मामलों के मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने अपने एक भाषण में सनातन धर्म को लेकर जो कटुतापूर्ण बात कही, वह न केवल उनकी पार्टी DMK बल्कि समूचे द्रविड़ आंदोलन की स्थापित लाइन रही है। कोरोना वायरस और कुछ अन्य संक्रामक बीमारियों के ही क्रम में सनातन धर्म का भी नाम गिनाते हुए उन्होंने कहा कि इनका विरोध नहीं, उन्मूलन किया जाना चाहिए। अगले आम चुनाव के लिए धीरे-धीरे गर्मा रहे राजनीतिक माहौल में BJP ने इस मामले को DMK तक सीमित रखने के बजाय विपक्ष के INDIA गठबंधन के खिलाफ मोड़ दिया, जो स्वाभाविक था। लेकिन कई गैर-BJP राजनेताओं और कर्ण सिंह जैसे गंभीर कांग्रेसी नेता ने भी शालीन ढंग से उदयनिधि के इस बयान पर आपत्ति जताई है।
उदयनिधि स्टालिन
उदयनिधि की सफाईद्रविड़ विचारधारा और सनातन धर्म को लेकर उसके दृष्टिकोण की तह में जाने से पहले युवा नेता उदयनिधि की इस सफाई पर भी एक नजर डाल ली जाए कि सनातन धर्म के उन्मूलन की बात कहकर उन्होंने किसी समुदाय के खिलाफ कोई आह्वान नहीं किया है। बहरहाल, इस सफाई से कुछ बातें साफ नहीं होतीं। मसलन यह कि सनातन धर्म या किसी और धर्म के बारे में कोई बात कही जाती है तो उसके साथ कई पहलू जुड़े होते हैं। एक तो उसे मानने वाले, जो बच्चे-बुजुर्ग, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष कुछ भी हो सकते हैं और धर्म से उनके जुड़ाव का स्तर भी अलग-अलग हो सकता है। दूसरा, उस धर्म का ढांचा, जिसमें धर्म के व्याख्याकार और पूजापाठी से लेकर धर्मग्रंथ और धर्मस्थल, साथ में उस धर्म की परस्पर विरोधी धाराएं भी शामिल हैं। उदयनिधि ने धर्म के मानने वालों को लेकर एक सफाई जरूर पेश की है, लेकिन बाकी चीजों के बारे में कुछ नहीं कहा है।
द्रविड़ आंदोलन और इसके संस्थापक ईवी रामास्वामी ‘पेरियार’ की नास्तिक विचारधारा शुरू से हिंदू धर्म या सनातन धर्म को इसकी तमाम दार्शनिक बहसों समेत इसके सारे पहलुओं के साथ खारिज करती आई है। चाहे आर्यसमाज आंदोलन हो, चाहे विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन हो, या फिर गांधी का उदार सनातनी चिंतन, पेरियार ने आगे बढ़कर हर एक के खिलाफ हमला बोला और इन सब के दूसरे पहलू उजागर किए। और तो और, डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जब अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो उनकी इस पहल को भी पेरियार ने ठीक नहीं समझा। आगे चलकर उनकी बात सही साबित हुई कि डॉ. आंबेडकर के बौद्ध हो जाने का समाज पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ेगा, उलटे भारत की सनातनी मुख्यधारा को उनके आंदोलन का असर सीमित करने में इससे थोड़ी और मदद मिल जाएगी।
यह सचमुच दिलचस्प है कि भारत में सनातन धर्म को लेकर परस्पर विरोधी नजरिया रखने वाली दो धाराओं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और पेरियार के सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट की स्थापना 1925-26 में थोड़ा ही आगे-पीछे हुई। यकीनन, पेरियार की चिंतन परंपरा की जड़ें तमिल इतिहास में काफी गहरी थीं, वरना भारत में एक खांटी नास्तिक सोच के साथ किसी राजनीतिक विचारधारा का इतने समय तक जिंदा रह जाना लगभग असंभव था। यहां एक और पहलू की ओर ध्यान दिलाना जरूरी है कि अपनी सारी तेजस्विता के बावजूद पेरियार अपने जीवनकाल के अंतिम बीस वर्षों में अपनी धारा के लिए ही अप्रासंगिक हो गए थे। इसका बड़ा कारण दक्षिण भारत और श्रीलंका के तमिल हिस्सों को मिलाकर अलग द्रविड़ राष्ट्र बनाने की उनकी मांग थी, जो उनकी राजनीति को आगे ही नहीं बढ़ने दे रही थी। फिर एक दिन अन्नादुरै ने पेरियार से अलग होकर DMK बना ली और इस धारा में उनका कद ज्यादा ऊंचा हो गया।
उदयनिधि के बयान के सिलसिले में इस प्रकरण को याद करने का मकसद यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति में अतिरेकपूर्ण बातें फायदा जरूर पहुंचाती हैं, लेकिन इसमें दूर तक वही चल पाता है जो एक स्तर पर पहुंचकर व्यावहारिकता के साथ अपना संतुलन बना पाता है। उत्तर भारत में परिवर्तनकामी धाराओं ने सनातन धर्म को समाप्त करने या सिरे से उसे खारिज करने का रास्ता नहीं अपनाया। पेरियार का बौद्धिक प्रभाव यहां भी दिखा, लेकिन वह कुछ व्यक्तियों या छोटे दायरों तक ही सीमित रहा। बिहार में जगदेव प्रसाद और उत्तर प्रदेश में ललई सिंह यादव का नाम इस सिलसिले में आज भी इज्जत से लिया जाता है। लेकिन पिछड़ा आंदोलन का नेतृत्व उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर समाजवादियों के ही हाथ में रहा, जिनके वैचारिक नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का नजरिया सनातन धर्म में सुधार का था। इसी के अनुरूप उन्होंने साधुओं का संगठन बनाया और ‘राम, कृष्ण और शिव’ तथा ‘सीता और द्रौपदी’ जैसे निबंधों के जरिये मिथकीय और महाकाव्यात्मक चरित्रों को नए अर्थ दिए।
दुर्भाग्यवश, सुधार का यह एजेंडा भी 1960 के दशक में संविद सरकारों के गठन के बाद से न सिर्फ सोशलिस्टों ने बल्कि उत्तर भारत की सारी राजनीतिक धाराओं ने छोड़ दिया। और तो और, दहेज हत्या और दलितों के गांव जला देने जैसे मुद्दे भी एक लंबे अर्से से भारतीय राजनीतिक मुख्यधारा के एजेंडे से बाहर जा चुके हैं। इससे पेरियार की कही हुई यह बात सही लगने लगती है कि सनातन धर्म के भीतर सुधार की बात कुछ निहित स्वार्थी लोग अपना कोई मकसद साधने के लिए ही करते हैं, क्योंकि जाति और लिंग, दोनों ही प्रश्नों पर इसकी नींव अन्याय और असमानता पर टिकी है। गांधी ने इस समझ को बदलने के लिए दशकों लगाए, लेकिन कितना इसे बदल पाए, हमारे सामने है।
DMK को मिलेगी हिदायत!भारत के विपक्षी दल कह रहे हैं कि सत्तारूढ़ BJP अपनी विफलताएं छिपाने के लिए ही मामले को हवा दे रही है। अपनी अगली बैठक में वह DMK नेताओं को धार्मिक मामलों पर संभल कर बोलने के लिए कह सकती है, जैसा अबतक मुस्लिम विपक्षी नेताओं से कहा जाता रहा है। लेकिन भारत जैसे देश में विपक्ष की कोई जमीनी राजनीति सांस्कृतिक मुद्दों को पूरी तरह से किनारे करके ज्यादा आगे नहीं जा सकती। उदयनिधि का सनातन धर्म को संक्रामक बीमारी बताना बहुत बड़ी आबादी की भावनाओं को चोट पहुंचाता है। लेकिन जो लोग, जो समुदाय धर्म से जुड़े जाति, लिंग और संप्रदाय के उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं, उनका पक्ष बड़े राजनीतिक धरातल पर उठाने के लिए एक न्यायसंगत मुहावरा जरूर खोजा जाना चाहिए।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं