ललित मोहन बंसल
साउथ अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में ब्रिक्स देशों की शिखर बैठक आयोजित हो रही है। 22 से 24 अगस्त तक चलने वाली इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग आमने-सामने होंगे। हो सकता है कि दोनों के बीच बातचीत हो और उसके कुछ ठोस परिणाम भी निकलें। मगर इतना तो दिख ही रहा है कि इंडोनेशिया के बाली में पिछले साल हुई G-20 की बैठक में जब दोनों राष्ट्राध्यक्ष मिले थे, तब से अब तक काफी कुछ बदल चुका है।
कूटनीतिक कशमकश
अमेरिका के तीखे तेवर के बावजूद चीन ने ‘ग्लोबल साउथ’ के नाम पर विकासशील देशों को फुसलाने की जो व्यूह रचना की है, वह ब्रिक्स बैठक का एक और विचारणीय पहलू होगा। चीन की पूरी कोशिश होगी कि वह ब्रिक्स मंच के विस्तार में अपने चहेते देशों को शामिल करे। उसने पिछली वर्चुअल मीटिंग में ईरान और अर्जेंटीना को शामिल करने की कोशिश की थी। तब भारत ने उसकी कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए थे। भारत और ब्राजील इस बार भी कुछ सवालों के साथ तैयार हैं:
G-7 ग्रुप के विपरीत इस मंच के गठन को लेकर क्या ‘आर्थिक विकास’ का उद्देश्य पूरा हो सका है?
क्या ब्रिक्स के सदस्य देशों के आर्थिक विकास की कामना चीन के भू-राजनीतिक स्वार्थों में समाहित नहीं होती जा रही है?
इसके पीछे महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड इनिशटिव’ के जरिए दुनिया में नंबर वन बनने की शी चिनफिंग की ख्वाहिश कैसे भुलाई जा सकती है?
चीन ने रूस को पीछे धकेल दिया है, तो दक्षिण अफ्रीका आर्थिक रूप से विवश है। इकलौता ब्राजील ही चीन से ट्रेड रिलेशंस अच्छे होने के बावजूद निष्पक्ष है। फिर भारत वहां कर क्या रहा है?
ब्रिक्स विस्तार
पश्चिमी देशों के G-7 समूह के जवाब में चीन की यह कोशिश रही है कि वह ब्रिक्स पर प्रभुत्व जमाकर अपना कारोबार फैला सके। सोवियत संघ के टूटने के बाद नवगठित ब्रिक्स मंच पर दक्षिण अफ्रीका को लाने का फैसला 2009 की बैठक में किया गया था। इससे पहले और किसी भी देश को ब्रिक्स में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई। G-7 के विकसित देशों की तुलना में चीन की एक ही मंशा रही है कि वह विकासशील देशों में BRI के जरिए अपनी पहुंच बनाए और उन्हें विकास के नाम पर उलझाए रखे। इस बार चीन की भरपूर कोशिश होगी कि वह ब्रिक्स में अपने चहेते देशों सऊदी अरब, ईरान, अर्जेंटीना, अल्जीरिया और पाकिस्तान आदि को जोड़ ले, जो अमेरिका और पश्चिमी देशों से छिटक रहे हैं।
भारतीय अवधारणा
‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा के अनुरूप भारत ने बीते एक दशक में एशिया के दक्षिणी और पश्चिमी छोर के देशों, दक्षिण अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों में पारस्परिक सहयोग के लिए हाथ बढ़ाए हैं। कोविड त्रासदी और फिर यूक्रेन युद्ध के चलते संकट से जूझ रहे अफ्रीकी देशों को भारत ने मास्क, वैक्सीन, दवा और खाद्यान्न की आपूर्ति की है। भारत ने अफ्रीका में पिछले सात दशकों में स्थापित 25 दूतावासों की संख्या को बढ़ाकर 42 कर दिया है। वहीं उनकी मूलभूत जरूरतों को आधार बना कर 12 अरब डॉलर के निवेश से ढेरों परियोजनाएं चलाई हैं। इसका काफी सकारात्मक असर हुआ है।
मंच छोटा, मार बड़ी
ब्रिक्स देशों का मंच देखने में छोटा है, पर आकार और मार बहुत बड़ी है। इसमें विश्व की बड़ी आबादी वाले दो देश- भारत और चीन हैं। दुनिया की GDP में इसका 25.7% और कारोबार में 17% हिस्सा है। ब्रिक्स देशों का ग्लोबल निवेश में 18% अंश है, तो 40% विदेशी मुद्रा भंडार है। चीन इस कोशिश में है कि ब्रिक्स देशों के 85% कारोबार में उसका प्रभुत्व हो। भारत और ब्राजील ने WTO से चीन के सस्ते माल और अंडरवैल्यूड करंसी की शिकायत की है। सीमा विवाद, आतंकवाद और UN सुरक्षा परिषद में चीन के दुर्भावनापूर्ण रवैए से भी भारत नाराजगी जता चुका है। फिर भी चीन की पूरी कोशिश रहती है कि हर कोई उसका प्रभुत्व स्वीकार करे। इसी एक बात को लेकर एक पक्ष भारत के इस मंच में बने रहने की मंशा पर संशय उठा रहा है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं