राजेश चौधरी
केरल हाई कोर्ट ने पिछले दिनों कहा कि मैरिटल रेप, तलाक का मजबूत आधार है। यूं तो मैरिटल रेप को लेकर भारत में पिछले कई सालों से बहस चल रही है, लेकिन अभी तक भारत में इसे अपराध नहीं माना गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में एक फैसले में यह जरूर कहा कि अगर पत्नी नाबालिग है तो वह पति के खिलाफ रेप का केस दर्ज करा सकती है। हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने इसे तलाक के आधार के तौर पर मान्यता दे दी है, लेकिन छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने इसी सप्ताह एक मामले में पति के खिलाफ तय किए गए रेप के आरोप को यह कहते हुए अवैध करार दिया कि पत्नी अगर बालिग है तो पति के खिलाफ रेप का केस नहीं हो सकता। ऐसे में मैरिटल रेप को लेकर बहस एक बार फिर तेज हो गई है।

कानून क्या कहता है
आईपीसी की धारा-375 में रेप को परिभाषित किया गया है और उसी में मैरिटल रेप यानी पति द्वारा 15 साल से ज्यादा उम्र की पत्नी के साथ बनाए गए संबंध को रेप का अपवाद माना गया है। कानून कहता है कि अगर कोई शख्स किसी महिला के साथ उसकी मर्जी के खिलाफ संबंध बनाता है तो वह रेप होगा। महिला की उम्र अगर 18 साल से कम है तो उसकी सहमति के मायने नहीं हैं। यानी 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति से बनाए गए संबंध भी रेप की श्रेणी में आएंगे। इसी तरह अगर कोई लड़की 15 साल से कम उम्र की है और उसके पति ने उससे संबंध बनाए तो वह रेप होगा। लेकिन पत्नी नाबालिग है और उम्र 15 साल से ज्यादा तो उसके साथ संबंध बनाना रेप के दायरे में नहीं आएगा। अक्टूबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में इस अपवाद को निरस्त कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर पत्नी की उम्र 15 साल से 18 साल के बीच है और मर्जी के खिलाफ उससे संबंध बनाए जाते हैं तो वह पति के खिलाफ रेप का केस दर्ज करा सकती है। हालांकि पत्नी अगर बालिग है तो मौजूदा कानूनी प्रावधान के तहत वह अपने पति के खिलाफ रेप का केस दर्ज नहीं करा सकती।
इस संदर्भ में केरल हाई कोर्ट का फैसला आगे की ओर एक कदम बढ़ाता है। उसने कहा कि पत्नी की मर्जी के खिलाफ संबंध बनाना मैरिटल रेप है। इस पर सजा तो नहीं हो सकती, लेकिन यह मानसिक और शारीरिक क्रूरता के दायरे में आता है। कानून में क्रूरता को पहले से तलाक का आधार माना गया है। हाई कोर्ट ने उसी प्रावधान की व्याख्या की और कहा कि मैरिटल रेप भी मानसिक और शारीरिक क्रूरता के दायरे में है और वह तलाक का आधार है।
पत्नी के साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाना रेप नहीं, छत्तीसगढ़ HC का फैसला
भारत में पिछले कई सालों से इस बात को लेकर बहस चल रही है कि मैरिटल रेप को आईपीसी में अपवाद बनाया जाना कितना सही है। लड़की अगर शादीशुदा नहीं है तो उसकी मर्जी के खिलाफ संबंध रेप की श्रेणी में आता है। ऐसे में शादीशुदा लड़की की मर्जी के खिलाफ संबंध रेप की परिभाषा में क्यों नहीं आना चाहिए? यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है। इसे महिलाओं के संवैधानिक अधिकार का भी उल्लंघन बताया जाता है।
इस दलील के बरक्स केंद्र सरकार का स्टैंड है कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने से विवाह संस्था की बुनियाद हिल जाएगी और इस कानून के रूप में पतियों को प्रताड़ित करने का टूल मिल जाएगा। पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंधों के मामले में अगर मैरिटल रेप का केस सामने आता है तो यह सचमुच रेप है या नहीं, यह पत्नी के बयान पर निर्भर करेगा। ऐसे मामले में साक्ष्य की सीमाएं क्या होंगी? लॉ कमिशन और संसदीय कमिटी ने परीक्षण किया था और उनकी सिफारिश में मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में न रखने की बात कही गई थी।
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किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों और रेप के साथ-साथ पोक्सो कानून पर भी नजर डालना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने एडल्टरी कानून को गैर-संवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था। उसका कहना था कि एडल्टरी कानून महिला को पति का गुलाम बना देता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कहा था कि स्वायत्तता का अधिकार, व्यक्तिगत इच्छा का अधिकार और गरिमा का अधिकार संवैधानिक अधिकार हैं। इस दायरे मे सेक्सुअल स्वायत्तता भी आती है। एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने दो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा-377 के बाकी प्रावधान बरकरार रखा था। इसके तहत जबरन अप्राकृतिक संबंध बनाना अपराध है।

बहस की गुंजाइश
रेप लॉ के मुताबिक महिला के शरीर के किसी अंग में पुरुष जबरन प्राइवेट पार्ट डालता है तो वह बलात्कार है। ऐसे में किसी मामले में यह बहस उठ सकती है कि पति को रेप कानून की आड़ में प्रोटेक्शन मिलेगा या फिर अप्राकृतिक संबंधों के मामले में उस पर शिकंजा कसा जाएगा? दूसरी तरफ एडल्टरी केस में सुप्रीम कोर्ट सेक्सुअल स्वायत्तता की बात करता है तो उसका दायरा क्या है? क्या सेक्सुअल स्वायत्तता के तहत पत्नी को हां या ना कहने का अधिकार नहीं होना चाहिए? अब अगर हम पोक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट 2012) कानून को देखें तो उसके तहत भी जबर्दस्त विरोधाभास है। इस कानून में 18 साल से कम उम्र के तमाम बच्चों को सेक्सुअल ऑफेंस से प्रोटेक्ट करने की बात है। पोक्सो एक्ट के तहत सहमति के कोई मायने नहीं होते। तो क्या 18 साल से कम उम्र की पत्नी पोक्सो के तहत प्रोटेक्टेड नहीं है?
मैरिटल रेप को कानून के दायरे में लाने से परिवार संस्था पर असर पड़ने की बात एक हद तक सही हो सकती है, इसके दुरुपयोग की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इन आधारों पर मैरिटल रेप को लेकर शुरू हुई बहस की गंभीरता कम नहीं हो जाती।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं