लेखकः वेदप्रताप वैदिकअफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और सीईओ डॉ. अब्दुल्ला की अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से भेंट हो चुकी है। उसके बावजूद अमेरिकी सरकार अपने इस फैसले पर कायम है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें 11 सितंबर तक वापस चली जाएंगी। सिर्फ 650 जवान काबुल में टिके रहेंगे, जो अमेरिकी दूतावास की सुरक्षा के लिए जरूरी हैं। जहां तक काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा का सवाल है, उसकी जिम्मेदारी तुर्की की सरकार ले रही है।
राष्ट्रपति बाइडन अपना पद संभालने के बाद अभी तक न तो भारत और न ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से मिले हैं। फिर भी वह अफगानिस्तान के नेता से मिले तो इसीलिए क्योंकि वहां से अमेरिकी फौज की वापसी इन दोनों देशों के लिए जबर्दस्त धक्का है। अमेरिका ने पिछले 20 वर्षों में उसने वहां अरबों डॉलर बहाए, सैकड़ों सैनिकों की जिंदगी कुर्बान की और अपने आप को विश्व-शक्ति प्रचारित करने के बावजूद अफगान तालिबान से मात खाई।
बाइडन की मजबूरीअफगान लोग भी कम परेशान नहीं। वे नहीं चाहते कि अमेरिकी और नाटो फौजें उनके देश से अभी वापस जाएं। गनी और अब्दुल्ला यह बात काबुल में तो कहते ही रहे हैं, उन्होंने वॉशिंग्टन में भी अपना पूरा जोर लगाया होगा, इसमें जरा भी शक नहीं है लेकिन राष्ट्रपति जो बाइडन की भी मजबूरी है। उन्होंने वापसी की तारीख 1 मई से खिसकाकर 11 सितंबर कर दी, यही क्या कम है? इन पांच महीनों में काबुल सरकार अपनी सुरक्षा के पूरे इंतजाम कर सकती थी। वह कर भी रही है। उसे चिंता है कि उसके ढाई-तीन लाख फौजियों का रख-रखाव कैसे होगा?
काबुल में अफगान डिफेंस फोर्सेज जॉइंन करते लोकल मिलिशिया के लोग (फोटोः एपी)
बाइडन ने उन्हें आश्वस्त किया है कि अमेरिका उसे 3.3 बिलियन डॉलर देने वाला है। लेकिन यह भी कहा है कि अब अफगान सरकार को अपने पांव पर खड़े होना है। अमेरिका अफगानों का साथ छोड़ नहीं रहा है। वह उनकी मदद करेगा, लेकिन उन्हें अब खुद तय करना होगा कि वे अपनी सुरक्षा कैसे करेंगे। बाइडन के चिकने-चुपड़े आश्वासनों के साथ गनी और अब्दुल्ला काबुल लौट आए हैं, लेकिन उन्हें पता है कि पिछले साल अमेरिका की मध्यस्थता से जो समझौता तालिबान और काबुल सरकार के बीच हुआ था, वह हवा में उड़ चुका है। तालिबान के हमले जारी हैं। अफगानिस्तान के लगभग एक-तिहाई यानी 100 जिलों में तालिबान के पदचाप सुनाई दे रहे हैं। 40 जिलों पर तो उनका कब्जा है ही।
तालिबान संगठन मूलतः गिलजई पठानों का है। उनसे अफगानिस्तान के ताजिक, उजबेक, हजारा, तुर्कमान, शिया, मू-ए-सुर्ख जैसे अल्पसंख्यक बहुत डरे हुए हैं। उनका अंदाजा है कि छह महीने या साल भर में तालिबान काबुल पर कब्जा कर लेंगे। फौज का भी कुछ भरोसा नहीं। उसमें ज्यादातर जवान पठान हैं। वे रातोरात अपनी निष्ठा बदल लेंगे। अभी-अभी काबुल में हजारा संप्रदाय के लोगों ने विशाल प्रदर्शन करके बताया कि उन्होंने अपने मोहल्लों को हथियारबंद कर लिया है। अनेक अफगान मित्र, जो कि नेता भी हैं और मालदार भी, फोन करके मुझसे पूछ रहे हैं कि हम रहने के लिए भारत आ जाएं तो कैसा रहेगा? उन्हें डर है कि तालिबान के सत्तारूढ़ होते ही काबुल में कत्ले-आम शुरू हो जाएगा।
ऐसा लग रहा है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद काबुल में वैसी ही अराजकता फैल सकती है, जैसी ब्रिटिश और रूसी फौजों की वापसी के बाद फैली थी। इस तथ्य को पाकिस्तानी नेताओं से बेहतर कौन समझ सकता है। पिछले महीने पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा स्वयं काबुल पहुंचे और उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में कोई अतिवादी, उग्रवादी या तालिबान राज कायम हो जाए, ऐसा वह नहीं चाहते। यदि सचमुच ऐसा है तो वह अपनी सरकार को प्रेरित क्यों नहीं करते कि वह काबुल सरकार और तालिबान के बीच समझौता करवाए? अगर पाकिस्तान सही ढंग से पहल करे तो तालिबान और गनी सरकार के बीच समझौता करवाने में उसकी भूमिका अमेरिका से अधिक सार्थक और प्रभावशाली हो सकती है।
यह ठीक है कि तालिबान के खिलाफ पाकिस्तान उस तरह का रवैया नहीं अपना सकता, जैसा कुछ समय पहले तक अमेरिका ने अपना रखा था। पाकिस्तान की सक्रिय सहायता के बिना तालिबान सफल हो ही नहीं सकते थे। आज भी पाकिस्तान में तालिबान के तीन संगठन उसके शहरों के नाम से चल रहे हैं। पेशावर शूरा, क्वेटा शूरा और मिरानशाह शूरा। पाकिस्तानी फौज और नेताओं को पता है कि तालिबानी पठान बहुत ही स्वाभिमानी और स्वतंत्र स्वभाव के लोग होते हैं। सत्तारूढ़ होने के बाद क्या मालूम वे कहने लग जाएं कि पेशावर को अपनी राजधानी बनाएंगे और 1893 में खिंची डूरेंड सीमा-रेखा को रद्द करेंगे। हो सकता है यह इस्लामी अमीरात चीन के उइगुर मुसलमानों के पक्ष में भी मुहिम छेड़ दे। पाकिस्तान का परम मित्र चीन इसे कैसे बर्दाश्त करेगा?
बदला-बदला रवैयाइसीलिए पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान का रवैया काबुल की गनी सरकार के प्रति बदला-बदला-सा लग रहा है। हालांकि अब भी इमरान खान ने अमेरिका को अपने हवाई अड्डों की वह सुविधा देने से इनकार कर दिया है, जिसके तहत वह अफगानिस्तान में होने वाले तालिबानी हमलों को कमजोर कर सकता है। पाकिस्तान का यह पसोपेश समझ में आता है। उसके कान इस तथ्य ने भी खड़े कर दिए हैं कि आजकल भारत ने तालिबान से गुपचुप संपर्क बढ़ा लिए हैं। तालिबान ने साफ-साफ कहा है कि कश्मीर समस्या से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। वह भारत का आंतरिक मामला है। तालिबान नेता मुल्ला उमर ने 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़वाने में भी मदद की थी। यदि संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में भारत और पाकिस्तान अपनी फौजें काबुल भेज दें तो तालिबान थोड़ा-बहुत लिहाज जरूर दिखाएंगे। तालिबान व गनी सरकार में समझौता तो फिर हुवा-हुवाया ही है। काबुल में होने वाला भारत-पाक सहयोग कश्मीर के स्थायी हल का रास्ता भी तैयार कर देगा।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं